उत्तर प्रदेश में बनते दिख रहे नए राजनीतिक समीकरण/सौमिक दुबे



उत्तर प्रदेश देश की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला एवं जनाकांक्षाओं का प्रदेश है। इस प्रदेश की एक सबसे बड़ी यह खासियत है कि यहां लोग जैसे सर आँखों पर बैठा सत्ता के शिखर पर पहुंचाते हैं वह जनआक्रोश में आकर सत्ता से बेदखल भी कर देते हैं। ऐसा मैं नहीं बल्कि सूबे का राजनीतिक इतिहास कह रहा, पिछले 20-25 वर्षों में नज़र डालें तो यहां कोई भी सरकार दुबारा रिपीट नहीं हुई है वापसी के लिए उन्हें लम्बा बनवास काटना पड़ा है।


इन सरकारों की वापसी न करने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण वजह भूमिहार और ब्राह्मणों का नाराज होना रहा है, 2005 में समाजवादी पार्टी की सरकार इन्हीं जातियों के बैसाखी के सहारे चल रही थी लेकिन तत्कालीन भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या ने इन जातियों का समाजवादी पार्टी से मोह भंग कर दिया फिर यह दोनों जातियां बसपा के साथ 2007 के चुनाव में नज़र आईं और बसपा ने शुरू में बकायदा सम्मान भी दिया लेकिन बामसेफ के लोगों के और बसपा के मुखिया के तानाशाही के चलते इन जातियों ने उस समय विकल्प के तौर पर सपा को चुना और समाजवादी पार्टी ने 1 दर्जन से भी अधिक भूमिहारों और ब्राह्मणों को मन्त्री बनाया।


लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के तरफ अत्यधिक झुकाव तथा सत्ता में एक जाति की अत्यधिक दख़ल के चलते यह लोग 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ खड़े नज़र आये और भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। वर्तमान समय में भाजपा से 7 भूमिहार एवं 58 ब्राह्मण विधायक हैं लेकिन यह जातियां इस सरकार में भी उपेक्षित नज़र आ रहीं हैं।


उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा क्षेत्रों में से कोई एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां इन जातियों का प्रभाव नहीं है, अकेले भूमिहार (त्यागी) जाति के मतदाता ही सूबे की तक़रीबन 126 विधानसभा क्षेत्रों में हराने तथा जिताने की क्षमता में हैं।

उत्तर प्रदेश का अगर जातिगत समीकरण देखा जाए तो दलित वर्ग के बाद सूबे में सर्वाधिक ब्राह्मण हैं जो तक़रीबन 15•8 फीसद एवं अगर इसमें 3•87 फीसद भूमिहार मतों को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 20 फीसद के आस पास पहुँच जाता है तो की किसी की सरकार बनाने तथा गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए पर्याप्त है।



उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक वह दौर हुआ करता था जब 100-125 से ज्यादा भूमिहार ब्राह्मण विधायक हुआ करते थे, मात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही 17 से 18 भूमिहार विधायक बना करते थे एवं उत्तर प्रदेश में एक ही साथ 3-3 भूमिहार सांसद हुआ करते थे लेकिन बदलते वक्त के साथ राजनैतिक दलों ने इन जातियों से जनसहयोग, धनसहयोग एवं वोट तो ख़ूब लिया लेकिन बदले में जो मान सम्मान वापस देना चाहिए वह नहीं दिया।



वर्तमान समय में देश एवं प्रदेश में सर्वाधिक शोषित तथा पीड़ित कोई जाति है तो वह भूमिहार एवं ब्राह्मण हैं क्योंकि इन जातियों को न तो आरक्षण का लाभ मिला और न ही इन जातियों को इनकी जाति के नेताओं, अधिकारियों ने आर्थिक तौर पर सबल किया। वर्तमान समय में इस जाति के 60 फीसद से ज्यादे लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं एवं वर्तमान व्यवस्था को कोस रहे हैं।


अगर बात उत्तर प्रदेश की हो तो यहां पिछले कई सालों से ब्राह्मण और भूमिहार राजनैतिक एवं आर्थिक रूप से हाशिये पर जाते नज़र आ रहे हैं। किसी जमाने में कई बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे और हर बार कई दर्जन भूमिहार विधायक एवं मंत्री रहे। आज की स्थिति यह है कि ब्राह्मण और भूमिहार बहुल सीटों पर भी अन्य जाति के लोग चुनाव लड़ और जीत रहे हैं। उसी प्रकार नेतृत्व में भी इन दोनों जातियों की उपेच्छा होती देखी जा रही है, इतना ही नहीं बल्कि इनके साथ शारीरिक अपराध एवं अन्य अत्याचार की घटनाएँ भी रोज़ ब रोज़ हो रही हैं। सर्व विदित है कि सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्याएँ हाल में हुई हैं, इन जाति के अधिकारियों पर भी अन्याय और अत्याचार हुए हैं। ब्राह्मणों का कहना है कि इन घटनाओं एवं दुराचारों के पीछे शासन की शह और एक जाति विशेष का आक्रामक रवैया है। इस बात में काफ़ी तथ्य है ऐसा निष्पक्ष लोगों के द्वारा भी बताया जा रहा है।  


एके शर्मा के राजनीतिक रूप से सक्रिय होने से भूमिहार तथा ब्राह्मण वर्ग को एक उम्मीद की आस दिखी थी लेकिन सरकार में उनको सम्मान न मिलने से यह वर्ग बेहद नाराज़ है तथा इस वर्ग की नाराज़गी सरकार को भारी पड़ सकती है।


ब्राह्मण यह भी कहते हैं कि विभिन्न पार्टियों ने उनका सिर्फ़ उपयोग किया। किसी ने कुछ दिया नहीं, भूमिहार उससे भी ज़्यादा नाराज़ हैं क्योंकि भूमिहारों का कहना है कि एक बार उन्हें मनोज सिन्हा के नाम पर अपमानित किया गया और अब अरविन्द शर्मा के नाम पर अपमानित किया जा रहा। भूमिहारों का कहना है कि हम न तो अपराधी हैं और न ही ठेकेदार हैं इसलिए हमें सत्ता के संरक्षण की कतई जरूरत नहीं है लेकिन ऐसे ही हमारे जाति के नेताओं का अपमान हुआ तो हम भी तख्ता पलट करना जानते हैं।

भूमिहार खेती के आधार पर स्वयं सक्षम है इसलिए सरकार से उनकी सीधी उमीदें कम हैं लेकिन सम्मान की भूख तो है ही। ये दोनों जातियाँ यह भी कह रही हैं कि पिछले दो-तीन दशकों में उनकी नेतागीरी कमजोर रही है। इसलिए नए नेता की तलाश थी जो ए के शर्मा के आने से सफल हो गयी लेकिन उनका यह अफ़सोस है कि उनकी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद अभी तक वो लोग विभाजनकारी राजनीति का शिकार होते रहे हैं। 


ब्राह्मण कहते हैं कि सन् 2016 में तत्कालीन मुख्य सचिव उत्तर प्रदेश सरकार श्री आलोक रंजन की अध्यक्षता में राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश में एक आंतरिक शासकीय सर्वे करवाया था जिसको सार्वजनिक नहीं किया गया। लेकिन 2017 विधानसभा चुनाव इसी गणना के आँकड़ों का उपयोग करके लड़े गए। उसी समय अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय  अध्यक्ष द्वारा 75 जिलों के ब्लॉक एवं गांव में निवास करने वाले ब्राह्मण समाज की सूची तत्कालीन सरकार से माँगी गयी थी। 


उस सर्वे में  यह पाया गया कि ब्राह्मण समाज विभिन्न क्षेत्रों में प्रजाति और गोत्र के अनुसार विभाजित है। जो कि मुख्य रूप से शुक्ला, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, दुबे, तिवारी, पांडेय, चौबे, उपाध्याय, पाठक,  मिश्रा, शास्त्री, विद्यार्थी, शर्मा, शांडिल्य, भारद्वाज, वशिष्ठ, पराशर, व्यास, भूमिहार-ब्राह्मण, बंदोपाध्याय,चटर्जी, बनर्जी चक्रवर्ती, खत्री और खन्ना आदि में विभाजित हैं ।ब्राह्मणों में तमाम उपजातियां भी शामिल हैं जिसमें भट्ट ,गिरी, (गोसाई ), गौड़ और मृत्यु उपरांत कर्मकांड कराने वाले ब्राह्मण ( महापात्र) इत्यादि शामिल हैं। कुछ प्रजातीयों का भौगोलिक वर्गीकरण भी है। जैसे शाक्ल्यदीपी, सरयूपारी, कान्यकुब्ज। कुछ क्षेत्रों में लिखे जाने  वाले  सनाढ्य, पचौरी जैसे उपनाम, गोत्र और प्रवर भी ब्राह्मण समुदाय में शामिल हैं ।


इनमें 3•87 % भूमिहार (ब्राह्मण) भी है जिनमें त्यागी, राय, शाही, पांडेय, मिश्रा, तिवारी, द्विवेदी, कुमार, वत्स, भारद्वाज, शर्मा एवं सिंह आदि लिखने वाले लोग हैं लेकिन भूमिहारों के अत्यधिक उपनाम होने की वजह से कोई इस जाति का सटीक आकलन नहीं कर पाता। ब्राह्मण एवं भूमिहार की उत्पत्ति एवं संस्कार एक हैं। परशुराम भगवान दोनों के आराध्य हैं, इन दोनों में कभी कोई मतभेद नहीं रहा। कोई कारण नहीं होते हुए भी कई बार इनका राजनैतिक दृष्टिकोण अलग रहा है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए अब इन दोनों जातियों ने एक साथ रहने का मन बना लिया है। 


इस पुख़्ता तथ्यों के आधार पर इन दोनों जातियों ने अब ध्रुवीकरण की साझा रणनीति अपनायी है। उन्होंने संगठित होकर पुराने तथ्यों पर आधारित एक गणना की है। इस आधार पर जो तथ्य उभरकर सामने आए उसमें यह प्रमाणित हो रहा है कि उत्तर प्रदेश के कुल मतदाताओं का 15•8 प्रतिशत यानी 16 प्रतिशत या उससे से भी अधिक ब्राह्मण और 3•87 प्रतिशत भूमिहार मतदाता हैं। इस प्रकार किसी एक ख़ास जाति या वर्ग की बात की जाए तो अनुसूचित जाति के बाद सबसे बड़ा वर्ग ब्राह्मण-भूमिहार का है। 


सर्वे का मुख्य आधार जिलों और तहसीलों में उपस्थित चुनाव हेतु जनगणना एवं पल्स पोलियो अभियान के तहत पारिवारिक विवरण एवं अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के सर्वे को तथा 2016 में  उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या प्रतिशत को आधार माना गया जिसके आधार पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश , बुंदेलखंड में ब्राह्मणों की संख्या कम तथा अवध प्रांत एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण जनसंख्या घनत्व अधिक पाया गया, पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो

भूमिहार ब्राह्मणों का प्रतिशत 23-24 तक जाता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में वही पार्टी जीतती है और उसी पार्टी की सरकार होती है जिसको भूमिहार ब्राह्मण वर्ग का समर्थन हो, जैसे पहले कांग्रेस फिर बसपा, सपा और वर्तमान में भाजपा। 


इस प्रकार प्रदेश की लगभग पाँचवां हिस्सा ब्राह्मण है। इनमें 30% परास्नातक, 20% स्नातक 10% इंटरमीडिएट एवं 20% हाई स्कूल पास तथा साक्षर हैं परंतु 30% ब्राह्मण-भूमिहार भूमिहीन, निर्धन एवं गरीब हैं। उनका जीवन स्तर दलितों से भी बदतर है। 


इन जातियों में एक ख़ासियत यह है कि सभी समाज के लोग इनको प्रेम करते हैं तथा सबकी मदद के लिए सदैव तैयार रहते हैं, वैमनस्य इनके स्वभाव में नही है। इसी जाति से ताल्लुक रखने वाले नेता ए के शर्मा का स्पष्ट रुप से एक ही मूल मंत्र है - सबका साथ सबका विकास। इसलिए ब्राह्मण-भूमिहार के साथ वो अन्य जातियों के लिए भी आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। विशेष रूप से अनुसूचित जातियों के उपरांत अति पिछड़ी जातियों जैसे कि निषाद, गोड़, कुर्मी, मौर्य एवं राजभर नेताओं से उनके निकट के व्यक्तिगत सम्बंध विकसित हो गए हैं। सनातन संस्कृति एवं पूजा पद्धति में पूर्ण डूबे हुए होने के साथ साथ उनके स्वभाव में कमजोर वर्गों के प्रति संवेदनशीलता देखने को मिलती है।  


अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका कितना लाभ भाजपा ले पाती है क्योंकि ब्राह्मण और भूमिहार वर्ग को एके शर्मा के जरिये अपना मान सम्मान बचता दिख रहा है, इन वर्ग के लोगों का कहना है कि अबतक बहुत पिछलग्गू की भूमिका में रह लिए लेकिन अब हमें ऐसा नेता चाहिए जो हमारे मान सम्मान के लिए खड़ा हो सके।


सौमिक दुबे

स्वतन्त्र विचारक

यह तो होना ही था ! विधानसभा चुनाव के सेमीफाइनल में भाजपा का लहराया परचम / अशोक मधुप


चुनाव शुरू होने से ही कुछ लोग इसे राजनैतिक रंग देने में लगे थे। वे इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे। भाकियू के दिल्ली बार्डर पर चल रहे आंदोलन के मद्देनजर कुछ विश्लेषकों का कहना था कि इस चुनाव में भाजपा को भाकियू की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा।

उत्तर प्रदेश में बहु प्रतिक्षित जिला पंचायत चुनाव संपन्न हो गया। हर बार की तरह इस चुनाव में सत्ता बल और धनबल विजयी रहा। सिद्धांत और विचार धारा कूड़े में पड़ी नजर आईं। विचारधारा गौण हो गई। प्रदेश की 75 जिला पंचायत सीट में से 67 पर भाजपा विजयी रही। दो सीट पर उसके समर्थक दल का कब्जा रहा। सपा को सिर्फ पांच सीट मिली। एक सीट रालोद को गई। पश्चिमी इलाके में सपा- रालोद और भाकियू का गठबंधन कोई भी करिश्मा नहीं कर सका। अपने गढ़ मुजफ्फर नगर में भारतीय किसान यूनियन का प्रत्याशी मात्र चार वोट पाकर ही घर बैठ गया। रालोद-भाकियू के गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश की 14 सीट में से 13 पर भाजपा ने विजय पताका फहराई। 

चुनाव शुरू होने से ही कुछ लोग इसे राजनैतिक रंग देने में लगे थे। वे इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे। भाकियू के दिल्ली बार्डर पर चल रहे आंदोलन के मद्देनजर कुछ विश्लेषकों का कहना था कि इस चुनाव में भाजपा को भाकियू की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा। वह ये भूल गए कि ये चुनाव सत्ता का चुनाव है। सत्ता में जो दल होता है, उसके ही प्रत्याशी प्रायः विजयी होतें हैं। 2016 में समाजवादी पार्टी की सरकार में सपा के 26 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए थे। जबकि इस बार भाजपा के 21 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध बने। एक सपा का भी जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुना गया। सपा सरकार में 2016 के चुनाव में सपा के 63 जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए थे। इस बार भाजपा और उसके समर्थक दल के दो अध्यक्ष मिला कर कुल 69 चुने गए हैं।

बसपा ने तो पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। सपा- रालोद मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन भी इनके साथ थी। इसके बावजूद यह शुरूआत से ही बैकफुट पर रहे। इस चुनाव में आम जनता मतदान नहीं करती है बल्कि जनता से चुने गए सदस्य मतदान करते हैं। मीडिया रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि इनकी खुलकर बोली लगती है। निर्धारित राशि तै हो जाने पर सदस्य प्रत्याशी के साथ चले जाते हैं। इस बार सदस्य का रेट 15 से 20 लाख के आसपास रहा। विजेता को पांच- छह करोड़ के आसपास रूपया व्यय करना पड़ा।

चुनाव की विशेष बात यह रही कि इसमें जमकर क्रास वोटिंग हुई। बिजनौर जनपद में भाजपा के आठ सदस्य विजयी हुए थे। अन्य दल के इस प्रकार थे। सपा 20, रालोद चार भाकियू दो,असपा आठ , बसपा पांच अन्य छह। सपा,रालोद और भाकियू के दो सदस्य मिलाकर 26 सदस्य हो रह थे। लग रहा था कि सपा प्रत्याशी विजयी होगा। किंतु 26 की जगह सपा को 25 ही वोट मिले। भाजपा के साकेंद्र चौधरी 30 मत पाकर विजयी रहे। 

मुजफ्फरनगर में अकेले भाकियू ने अपना प्रत्याशी लड़ाया। यह भाकियू का गढ़ है। भाकियू को अपने गढ़ में ही बुरी तरह पराजय हाथ लगी। उसके प्रत्याशी सत्येंद्र बालियान को कुल चार मत मिले। इस सीट पर भाजपा के 13 सदस्य ही विजयी हुए थे। भाजपा इन तेरह की बदौलत तीस तक पंहुच गई। भाजपा प्रत्याशी 26 मत से विजयी रहा।आठ में से पांच मुस्लिम सदस्यों ने भी भाजपा प्रत़्याशी को वोट किया। नौ मतदाताओं ने मतदान नही किया। रालोद-भाकियू के गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश की 14 सीट में से 13 पर भाजपा ने विजय पताका फहराई। अकेले बागपत में ही रालोद का प्रत्याशी विजयी रहा।

चुनाव संपन्न हो गया । अगर इसे विधान सभा चुनाव का सेमीफाइनल माने तो भाजपा पूर्ण बहुमत से भी आगे निकल गई। वैसे इस चुनाव को विधान सभा चुनाव का सेमी फाइनल कहना गलत है। इतना जरुर है कि ये भाजपा के 67 और दो गठबंधन के कुल 69 जिला पंचायत अध्यक्ष विधान सभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों को विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। आगामी चुनाव में प्रत्याशी के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े होंगे।

- अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

विचारधाराओं के भंवरजाल में फंसे युवा /दिव्येन्दु राय


जैसे किसी लड़की की शादी में बुआ का लड़का आकर बहुत सारा काम कर देता है वही हाल चुनाव में कार्यकर्ताओं का होता है, शादी के बाद न तो कोई बुआ के बेटे को खोजता है और न ही विधायक, मन्त्री बना व्यक्ति कार्यकर्ता को.

क्या आपने देखा है किसी लड़की के पिता को अपने बहन के लड़के को शादी बाद खोजकर उसके भविष्य को सुरक्षित करने की कोशिश करते हुए? क्या आपने कभी देखा या सुना है किसी विधायक, मन्त्री को अपने चुनाव में काम किये हुए कार्यकर्ताओं को रोजगार अथवा काम देते हुए? जहां तक मुझे पता है ऐसा आपने शायद ही कभी सुना या देखा होगा लेकिन इसकी भी उम्मीद मुझे मात्र 0.1 फिसद ही है.


किसी आइडियोलॉजी को मानना अच्छी बात है लेकिन सम्बन्धित विचारधारा से जुड़े नेता चाहते हैं कि आप उस विचारधारा के प्रति इस कदर समर्पित हो जाईये कि उसके अलावा आपको कोई अन्य विचारधारा समानांतर लगे ही नहीं वह इसलिए ऐसा चाहते हैं ताकि आप उनके किसी काम पर चाह कर भी प्रश्नचिन्ह न उठा सकें. जैसे अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और किसी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बेरोजगार ने आत्महत्या कर ली तो कोई भाजपा से जुड़ा हुआ व्यक्ति इसमें सरकार की आलोचना नहीं करेगा वहीं अगर दिल्ली में अगर किसी बेरोजगार ने आत्महत्या कर ली तो आम आदमी पार्टी से जुड़ा हुआ व्यक्ति सरकार की आलोचना नहीं करेगा. इसलिए अगर आप बेरोजगार हैं तो आपकी आइडियोलॉजी रोजगार पाना होना चाहिए न कि सोशल साइट्स पर नेताओं और पार्टियों के लिए तू-तू, मैं-मैं करना होना चाहिए. राजनीतिक दल के नेता आपके घर कौन सी सब्जी बनेगी, आटा कैसे पिसायेगा उसकी चिन्ता नहीं करते बल्कि वह यह चाहते हैं कि उनसे जुड़े कार्यकर्ता उक्त नेता की, सम्बन्धित विचारधारा वाले दल की कमियों को छुपाएं तथा उनका बचाव करें.


युवाओं का समय के साथ विचारधारा बदल देना फिर भी ठीक है लेकिन विचारधारा के नाम पर भ्रमित कर देने वालों के साथ रहना बिल्कुल ठीक नहीं होता है, हाँ कुछ लोग यह जरूर कहेंगे कि कहाँ पहले थे अब कहाँ चले गए लेकिन वह न तो आपके घर पर सरसों का तेल पहुंचाने जाएंगे और न ही आपकी बाइक में पेट्रोल डलवायेंगे.


"कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि फ़लाना लड़का एकदम असामाजिक है, किसी से मतलब नहीं रखता लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि कुछ लड़के सामाजिक बनने के लिए नहीं बल्कि समाज को बदलने के लिए होते हैं और इसलिए ही समाज से दूर रहकर पढ़ाई करते हैं."


आजकल आप अभी कुछ लाइने लिखकर सोशल साइट्स पर कोई फ़ोटो पोस्ट करेंगे तो लोग आठ कदम आगे तक का सोच लेते हैं एवं अनुमान लगाकर जजमेंट देने में देर नहीं करते जबकि वह खुद अपने वोट के साथ ही न्याय नहीं कर पाते कि वह अपना वोट जिस व्यक्ति को दिए होते हैं क्या वह व्यक्ति ही सबसे योग्य था उक्त प्रत्याशियों में?


देश की पहली संसद में 9 फीसद सांसद किसी बड़े, राजनीतिक परिवार से जुड़े थे, वर्तमान समय की संसद में 40 वर्ष से कम उम्र के 98 फीसद सांसद किसी न किसी राजनैतिक व्यक्ति के रिश्तेदार हैं और उनकी लीगेसी को आगे बढ़ा रहे हैं.


अगर आपको लगता है कि आप किसी नेता का झण्डा ढोकर, जय जयकार करके नेता बन जाएंगे तो यह गलत है. किसी नेता को क्या आन पड़ी कि वह आपकी चिन्ता करे, अब भला देश के गृहमंत्री मेरी क्यों चिन्ता करेंगे कि दिव्येन्दु को 2022 में घोसी से प्रत्याशी बना दिया जाए या राज्यमंत्री बना दिया जाए. नेता आपकी चिन्ता तभी करते हैं जब आप उनके लिए या तो लाभदायक होते हैं या नुकसानदायक, लाभदायक होने की दशा में आपको साथ जोड़ा जाता है और नुकसानदायक होने की दशा में आपको मैनेज किया जाता है. राजनीति का वह दौर गया जब आपके संघर्ष और त्याग को मान दिया जाता था, वर्तमान युग में धन,जाति एवं बाहुबल को मान दिया जाता है.


युवा सही समय पर विचारधारा के घुप अंधेरे से बाहर नहीं निकल पाते तो एक वक्त बाद परिस्थितियों के चलते उनकी विचारधारा कमाने, खाने और परिवार पालने में सिमट कर रह जाती है. उन्हें अपनी गलती का एहसास तब होता है जब उनसे कम योग्य लोग विधायिका में अपनी ताकतों को दुरुपयोग करते दिखते हैं और उनकी बदौलत उनके परिजन, उनके रिश्तेदार आम लोगों से रौब में बात करते हैं. 


उस समय वही युवा जो कभी किसी नेता के लिए झण्डा ढोये होते हैं वह समाज से खुद को काट लेते हैं क्योंकि उनके ऊपर परिवार की बहुत जिम्मेदारियाँ आ गईं होती हैं और आय का स्रोत समिति होता है, उनके पास न इतना वक्त बचता है कि वह समाज को बदलने की सोच सकें और तो और कुछ ही सालों बाद वह नेता भी ठीक से नहीं पहचानता जो पहले हर बात पर पीठ ठोक शाबासी दिया होता है.

फिर भी जब आप कभी किसी मुसीबत में फंस कर उक्त नेता के पास अपनी गुहार लेकर जाते हैं तो वह पहले अपना राजनीतिक लाभ और हानि देखता है उसके बाद कई दिन आपको अपने पीछे घुमाता है फिर या तो टाल देता है या फिर किसी लाभ को देखकर आपके लिए एक फोन कॉल करके पैरवी कर देता है.


इसलिए वर्तमान समय में युवाओं को राजनीतिक दलों का झण्डा ढोने से पहले खुद के परिवार के उम्मीदों के झण्डे को ढोने की जरूरत है. किसी विचारधारा के लिए लड़ने से पहले खुद के और अपनों के ख़्वाबों के लिए लड़ने की जरूरत है, क्योंकि देशभक्ति देश के लिए इनकम टैक्स देकर की जाती है न कि सोशल साइट्स पर लिखकर और अपने परिजनों को दुखी कर, उनके सपनों को तोड़कर.


दिव्येन्दु राय

स्वतन्त्र टिप्पणीकार & राजनैतिक विश्लेषक

स्वाधीनता के 75 वर्ष एवं राष्ट्र​ निर्माण में कलाकारों की भूमिका



भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत, मुजफ्फरनगर जिला, नव सिद्धार्थ आर्ट ग्रुप दिल्ली, उत्कर्ष ललित कला अकादमी लखनऊ उत्तर प्रदेश,  शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में "स्वाधीनता के 75 वर्ष एवं राष्ट्र​ निर्माण में कलाकारों की भूमिका" विषयक नौ द्विवसीय कला उत्सव का आयोजन किया गया। कला उत्सव कार्यक्रम का उद्धघाटन मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी एवं सिंगापुर के अंतराष्ट्रीय सुविख्यात कलाकार श्री पी गनाना द्वारा डैमोंस्ट्रेशन श्रंखला का प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम में प्रज्ञा प्रवाह पश्चिमी उत्तरप्रदेश उत्तराखंड के क्षेत्रीय​ संयोजक माननीय श्री भगवती प्रसाद राघव का सानिध्य रहा। विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल भटनागर (एमिनेंट आर्टिस्ट, चंडीगड़) रहें।

कला उत्सव कार्यक्रम की अध्यक्षता धन्यवाद ज्ञापन प्रोफेसर वीरपाल सिंह (प्रांत अध्यक्ष भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा प्रवाह मेरठ ) द्वारा हुआ।कार्यक्रम का प्रारंभ कार्यक्रम संयोजक इंजीनियर अवनीश त्यागी (प्रांत संयोजक भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा परिषद मेरठ) ने किया। कार्यक्रम में अतिथियों का परिचय और मंच का संचालन डॉ रजनीश गौतम, प्रस्तावना डॉ वन्दना वर्मा, कार्यक्रम सह संयोजक डॉ नीतू वशिष्ट के द्वारा किया गया। कार्यक्रम का प्रारंभ सरस्वती वंदना के साथ प्रारंभ होकर वंदे मातरम् और कल्याण मंत्र के साथ समापन हुआ।

मुख्य वक्ता प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी ने स्वाधीनता के 75 वर्ष और कलाकारों के राष्ट्र निर्माण में भूमिका पर बोलते हुए कहा, कि मुझे यह जानकर अति हर्ष हुआ है, कि आज स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने में कलाकारों की जो भूमिका रही है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्वाधीनता आंदोलन में कलाकारों की जो भूमिका रही है, इस विषय को लेकर आज ये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इसके लिए आप सभी विद्वितजन बधाई के पात्र हैं। आप सभी शिक्षाविद, प्रबुद्ध जन, कलाकार और विधार्थी प्रशंसा के पात्र भी हैं। उन्होंने कहा, कि आज इस कला उत्सव कार्यशाला में व्याख्यान एवं डेमोस्ट्रेशन श्रृंखला  में मुझे आने का जो अवसर प्रदान किया गया है, उसके लिए मैं आप सभी शिक्षक एवं प्रबुद्ध जनों का आभारी हूं, और आपका धन्यवाद करता हूं । इसके साथ-साथ आप ने मुख्य अतिथि पी गनाना जी और विशाल भटनागरजी सहित कार्यकर्ताओं को भी धन्यवाद भी ज्ञापित किया। उन्होंने कहा, कि इस कोरोना काल ने हमें नव दुर्गा की पूजा से भी वंचित कर दिया गया था। परंतु आज 9 दिवसीय कला कार्यशाला, व्याख्यान और डेमोंस्ट्रेशन​ के द्वारा हमें पुनः इस तरह के कार्यक्रम में जुड़ने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यह भी हमारे बड़ी अति हर्ष की बात है। 

प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी ने कलाकारी की ओर इशारा करते हुए कहा, कि यह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश के कलाकारो ने अपना संपूर्ण सहयोग दिया और अपने-अपने कार्य के द्वारा ही स्वाधीनता प्राप्त करने में सफलता मिली। इसमें प्रत्येक क्षेत्र के कलाकारो ने अपना भरपूर सहयोग दिया। उसमें भले ही वह कोई चित्रकार रहा हो, मूर्तिकार रहा हो, कवि हो, नाटककार हो, और अभिनेता भी रहे हो, इसमें कोई भी हो उन्होंने इसमें अपना-अपना सहयोग दिया है। जब हमारे देश में ब्रिटिश शासन था, तब हमारे देश का जो इतिहास रहा था, उसको तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया गया था। उसे कुछ भ्रामक तरीके से तैयार करके  हमारे सामने प्रस्तुत किया गया। जिससे हमारे देश की जनता को हमारे देश के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त ही नहीं हो सकी थी। आज उससे भिन्न तरह के व्याख्यान और डेमोस्ट्रेशन प्रोग्राम में आने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे ऐसा लग रहा है, कि अब हमारे देश का जो इतिहास है वह पूर्ण रुप से सभी जनों तक धीरे-धीरे पहुंच जाएगा। क्योंकि इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रबुद्ध जन दूर-दूर से जुड़े हुए हैं, साथ ही छात्र-छात्राएं भी जुड़ी हुई है। 

उन्होंने सन् अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के ऊपर प्रकाश डालते हुए बताया, कि यह क्रांति मेरठ से ही भारत देश के स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इसके पश्चात यह पूरे देश में फैल गई थी। उन्होंने आगे कहा, कि स्वतंत्रता आंदोलन कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं था। यह तो एक विचारधारा थी। एक भाव था, देश के प्रति! किंतु कुछ लोगों को तो यह एक राजनैतिक और केवल राजनीतिक मुद्दे के रूप में दिखाई देता है। जैसे वह एक राजनीतिक आंदोलन था। जिसमें गरम दल और नरम दल नाम के दो दल होते थे। जबकि स्वाधीनता आंदोलन एक वैचारिक धारा थी, जो देश प्रेमियों ने अपने देश की स्वाधीनता के लिए एक मुहिम शुरू की थी। परंतु हमारे लिए दुर्भाग्य की बात यह है, कि हमारे देश के इतिहास को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है।

उन्होंने क्रांतिकारियों महान नायकों के विषय में बताया, कि रविंद्र नाथ टैगोर जैसे कलाकार  स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे। क्या उन्होंने स्वतंत्रता के लिए अपना योगदान नहीं किया? रविंद्र नाथ टैगोर नोबेल पुरस्कार विजेता और एक  महान व्यक्ति थे। उन्होंने बहुत सारी कविताएं, चित्रकारी, अभिनय, नाटक आदि राष्ट्र को दिए। वह सब प्रकार की कलाओं में पारंगत थे। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में अपना पूरा-पूरा महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई सारे लेख लिखे थे, अनेक कविताएं भी लिखी थी।

उन्होंने आगे बताया, कि यदि किसी देश की इतिहास और संस्कृति को खत्म करना हो, तो उसके तथ्यों को नष्ट कर देना चाहिए। जिससे वह देश ही खत्म हो जाता है। यही रणनीति अंग्रेज ब्रिटिश सरकार ने अपनाई थी! इस बात पर ध्यान महापुरुष का गया, और उन बुद्धिजीवियों ने इस मुहिम में अपना कदम आगे बढ़ाया और भारत मां की लाज बचाने के लिए स्वाधीनता प्राप्ति की ओर चल पड़े। उन कलाकारों उन प्रबुद्ध जनों को मेरा कोटि-कोटि सादर नमन है।

उन्होंने स्वामी विवेकानंद का जिक्र करते हुए बताया, कि स्वामी विवेकानंद किस प्रकार से अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धावान थे। जब शिकागो में उनका भाषण हुआ था। तब उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी को ही चुना था। जबकि वह कई भाषाओं के विद्वान रहे थे। आपने भारत देश के गौरवशाली इतिहास की ओर ध्यान देते हुए बताया, कि जहां पर गीता, पुराण, वेद शास्त्रो की रचना हुई है। उन्होंने बताया, कि यदि जनता को कुछ बताना हो, तो उसका केवल और केवल एक ही माध्यम हो सकता है और वह है कला। कला से लोग जल्दी प्रभावित होते हैं और उसका प्रभाव भी जल्दी ही पड़ता है। क्योंकि प्राचीन काल से ही मानव संप्रेषण का सबसे बढ़िया साधन कला ही रही है। जिससे कि यहां के प्रबुद्ध जनों को और छात्र छात्राओं को अपने भारत के गौरवमय इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त हो। आपने कला के साथ-साथ में नाटकों का कला के रूप में भी व्याख्यान किया है। उन्होंने बताया, कि उस समय के नाटकों का बहुत ही महत्व रहता था, और नाटकों के द्वारा ही विभिन्न कहानियों को दर्शाया जाता था। जिससे समाज को एक चेतना एक अनुशासन और एक प्रेरणा मिलती रही थी। उन्होंने टोली माधवराव पेशवा के ऊपर बनाए गए नाटक गिरीश चंद्र घोष के नाटक बाय नारायण जैसे नील दर्पण आदि नाटकों का जिक्र किया।  उन्होंने बताया, कि किस प्रकार से नाटक कला मतलब अभिनय कला से लोगों को प्रभावित किया जाता था, और किस प्रकार से देश के जनता को प्रभावित किया जा सकता है। किस प्रकार से सिखाया जा सकता है। हमें अपने देश के गौरव में इतिहास को जानना होगा। उसको पहचानना होगा और अपने देश की संस्कृति को भी।  इसी के साथ उन्होंने  सबको धन्यवाद और शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ पी. गनाना ने कला के विभिन्न रूपों में डैमोंस्ट्रेशन दिखाया। उन्होंने कहा,कि मुझे यह जानकर अति  हर्ष हुआ है कि भारत में आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर 9 दिवसीय कला कार्यशाला , व्याख्यान एवं डेमोंसट्रेशन श्रृंखला  का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने इसके लिए सभी को धन्यवाद दिया। इस कार्यक्रम में मुझे मुख्य अतिथि के रुप में बुलाया, यह मेरे लिए बड़ा ही गर्व और हर्ष का विषय है। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कलाकारों महत्वपूर्ण योगदान विषय पर विस्तृत रूप में चर्चा की। उन्होंने कहा, कि भारतीय आंदोलन अनेक कलाकारों ने अपनी कविताओं अपने चित्रों और अपने लेखों के द्वारा इस स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय सहयोग किया था। जैसा, कि रविंद्र नाथ का जिक्र आता है, तब रविंद्र नाथ टैगोर बहुत ही अच्छे कवि, विशेषज्ञ ,चित्रकार, अभिनेता तथा  कई बहुमुखी प्रतिभा लिए हुए थे। उन्होंने इनके साथ साथ नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज, अमृता शेरगिल, राजा रवि वर्मा, सतीश गुजराल, रविंद्र रेड्डी और बंगाल शैली के अन्य कलाकारों का जिक्र करते हुए बताया, कि भारतीय कला सिंगापुर मलेशिया इंडोनेशिया एवं अन्य देशों में किस प्रकार से फल-फूल रही है, किस प्रकार से बाजार में इसकी मांग बढ़ रही है। उन्होंने आगे बताया, कि सिंगापुर, मलेशिया और इंडोनेशिया में भारतीय चित्रों  के स्थानों पर संग्रहकर्ता है। जिन्होंने आज भी अपने संग्रह में भारतीय चित्रकारों के चित्रों को संजोकर रखा हुआ है और आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय चित्रो की मांग बढ़ रही है। भारतीय चित्रों ने आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेजोड़ धाक जमा रखी हुई है। जिनकी खरीदारी​ भी दिनों​ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसके साथ-साथ​ ही उन्होंने बंगाल की कला के बारे में बताया, बंगाल कला का जो रेखाचित्र था। वह पूर्ण रूप से भारतीय ही है। संपूर्ण भारतीयता का लुक उसमे दिखाई भी देता है। कई स्थानों पर भी बंगाल शैली के चित्रों का संग्रह प्राप्त होता है। जो बहुत ही सुंदर है। सिंगापुर के प्रधानमंत्री के विषय में भी बताते हुए उन्होंने कहा, कि प्रतिवर्ष वह लोग भारतीय चित्रों के मेले और प्रदर्शनियो का आयोजन करते रहते हैं। जिनमें भारतीय कला को प्रोत्साहन दिया जाता है। आपने बताया, कि कलाकारों को अपनी कला को विकसित करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। किन  सिद्धांतों को अपनी कला में उतारना चाहिए। इसके विषय में विस्तृत व्याख्या भी दी। उन्होंने भारतीय कलाकार और कला की प्रशंसा अनेक संदर्भ और व्याख्यान के द्वारा दी।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल भटनागर ने कहा, कि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है, कि जिला मुजफ्फरनगर के महाविद्यालय आपस में संयुक्त होकर इस कला कार्यशाला, व्याख्यान और डेमोंसट्रेशन का आयोजन कर रहे हैं, और इनमें भारत की विभिन्न कला संस्थाओं का भी योगदान मिल रहा है उन्होंने सभी को साधुवाद किया, और आभार व्यक्त करते हुए सबको बधाई दी।  उन्होंने कहा, कि यह नौ दिवसीय कला कार्यशाला उन सभी लोगों के लिए बहुत ही लाभप्रद होगी जो कला के क्षेत्र में कुछ ना कुछ कार्य कर रहे हैं, और निरंतर उसमें अपने प्रयोग भी कर रहे हैं उनमें चाहे कोई शिक्षक हो या कोई छात्र हो। इस कार्यशाला का लाभ सभी को प्राप्त होने वाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि इसमें समाज के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति जुड़े हुए हैं, और इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सभी अपना अपना प्रयास कर रहे हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के बाद कलाकारों की क्या भूमिका रही है, इस विषय पर उन्होंने विस्तृत व्याख्या रखी, और कहा,कि आजकल हमारा बालक वर्ग या कलाकार किस दिशा में जा रहा है। आज की कला किस दिशा में जा रही है, इस विषय पर हमें चिंतन और मनन करना ही होगा। इसके लिए यह कला कार्यशाला बहुत ही महत्वपूर्ण है। जिसमें इन सभी तथ्यों का विचार मंथन किया जा सकता है, क्योंकि यहां कार्यक्रम बहुत ही महत्वपूर्ण संस्थानों से जुड़ा हुआ है। जो बच्चों को सही मार्गदर्शन एवं सही दिशा प्रदान करेगा। इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। जिससे, कि उन्हें इस चीज का बोध हो जाए, कि वह किस दिशा में जा रहे हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है, कि हमारे इतिहास को तोड़ मरोड़ कर हमारे सामने पेश किया जा रहा है। हमारे वास्तविक इतिहास को छिपा दिया गया है, जो कि मूल रूप में नहीं रहा, और समाज को भ्रामक और भ्रांति से पूर्ण ज्ञान दिया जाता रहा है। 

उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कला की प्रासंगिकता पर कहा, कि स्वाधीनता की प्राप्ति में कलाकारों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है, कला के रूप में रविंद्र नाथ टैगोर जैसे अनेक महान कलाकार आते हैं, जिन्होंने शांति निकेतन जैसे संस्थानों की स्थापना की थी। जिसमें रामकिंकर वेज, देवी प्रसाद राय, चौधरी नंदलाल बोस और अन्य अन्य कई  प्रसिद्ध आर्टिस्ट वहीं से होकर संपूर्ण देश में अपनी कला को फैलाया और समाज को शिक्षा भी दी है। कला समाज को शिक्षा देने वाली होती है, क्योंकि कला से सभी को प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि कला गलत संदेश देती है तो उसका समाज पर गलत प्रभाव जाता है, और यदि वह कला अर्थ पूर्ण है, सही है, तब उसका समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। हमारे कॉलेज और स्कूलों और हमारे जो विषय है इनमें हमारे देश की कला और संस्कृति को ही पढ़ाया जाना चाहिए ना कि अन्य देशों के जैसा। पाश्चात्य सभ्यता का जो पाठ्य क्रम है वह हमारे देश मे पढ़ाया जाता रहा है। वह भी हमारे देश के पाठ्यक्रम के साथ मिलाकर सीखाया भी जा रहा है। जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। यदि किसी देश की संस्कृति और कला को दबाना है, तब उसको वहां की जनता के समक्ष ना लाया जाए। उसे वहां की संस्कृति और सभ्यता नष्ट हो जाएगी। इस प्रकार की रणनीति पहले से ही भारतीय समाज में खेली जा चुकी है।

विशिष्ट अतिथि श्री विशाल भटनागर जी आगे कहते हैं, कि मैंने अपना भित्ति चित्रण और  मूर्तिकला में कई प्रकार की मूर्तियां और पेंटिंग्स बनाई हुई है। जिनका विषय केवल और केवल भारतीय चित्रकला ही रही है। उन्होंने अपने चित्रों में भारतीय प्रतीक चिन्हों का प्रयोग सर्वाधिक किया है, यहां प्रथम बार इस बात की पुष्टि भी की है। उन्होंने अपने कुछ कार्यों के फोटोग्राफ्स को सभी के समक्ष प्रस्तुत किया। जिनमें यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि विशाल भटनागर की  कला पूर्ण रूप से भारतीय प्रतीक चिन्हों पर आधारित है। उन्होंने हमेशा अनेक कार्यशालाओं में यह बात कहते रहे हैं, कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में जरूर अपनी कलाकृतियों को लेकर जाना चाहिए। परंतु अपने देश की मूल भावना अपने देश की मूलकृतियों को अपनी कला को कभी भी भूलना नहीं चाहिए। हम संप्रेषण करने के लिए दूसरे देश की भाषाओं को सीख जरूर सकते हैं, लेकिन अपने देश की भाषा में उसको किस प्रकार से प्रयोग करना है, किस प्रकार से उसका व्यवहार में लाना है। अपने कला में यह भी हमें सीखना होगा ना कि दूसरे देशों की सभ्यता की कलाओ को अपनी कला में तोड़ मरोड़ कर पेश करना। उन्होंने बच्चों को चित्रकला और मूर्तिकला के विषय में भी विस्तृत जानकारी दी।

कार्यक्रम के अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर बीरपाल सिंह ने सभी आगंतुकों, कलाकारों, भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा प्रवाह के कार्यकर्ताओ​, समाज के प्रबुद्ध जनों, विधार्थियों का धन्यवाद दिया, उन्होंने कहा,कि यह अनुभव हमारे किये एक नई प्रेरणा लेकर आया है, क्योंकि मुजफ्फरनगर इकाई के द्वारा यह कार्यक्रम आयोजित करने के बाद आज मुझे भी कला के विषय मे कुछ सीखने को मिला है, आशा है, कि इससे सभी को बहुत प्रेरणा मिली होगी। इसके साथ ही आपने मुख्य वक्ता, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि सहित सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओ के विषय के सार को उपयोगी बताया। सभी कार्यकर्ताओं, कलाकारों, शिक्षाविदों, विधार्थियों एवं आयोजनकर्ताओं​ को शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम में प्रमुख रूप से भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत, प्रज्ञा परिषद ब्रज, देवभूमि विचार मंच के कार्यकर्ताओं, सहयोगी संस्थाओं, कलाकारों, प्रबुद्ध जनों के साथ-साथ मुजफ्फरनगर जिले के प्रमुख महाविद्यालयों के शिक्षकगण, प्रतिभागी, विधार्थी रहे। हैं।  कार्यक्रम में भारतीय प्रज्ञान परिषद के प्रांत संयोजक अवनीश त्यागी, प्रज्ञा परिषद अध्यक्ष डॉ प्रवीण तिवारी, संयोजक प्रोफेसर वी.के. सारस्वत, देवभूमि विचार मंच के अध्यक्ष डॉ चैतन्य भंडारी, संयोजिका डॉ अंजलि वर्मा, हस्तिनापुर संदेश पत्रिका के संपादक डॉ सूर्य प्रकाश अग्रवाल, प्रांत शोध संयोजिका डॉ शीला टावरीजी, सहसंयोजक डॉ देवेश, अनुराग विजय अग्रवाल, डॉ एस सी वार्ष्णेय, डॉ महेश दिवाकर, डॉ नितिन कुमार, डॉ ऋचा जैन , डॉक्टर अमित कुमार, श्री नीरज  मौर्य, श्री भास्कर द्विवेदी मीडिया, श्री कुलदीप कुमार, इंजीनियर पंकज कुमार, डॉ जी. आर.गुप्ता, डॉ अलका तिवारी, डॉ वंदना, सविता वर्मा, डॉ श्री राम शर्मा, डॉ दिनेश शर्मा, डॉ के.के. शर्मा, मीनाक्षी, डॉ अमिता, डॉ वकुल बंसल, योगेश शर्मा, डॉ अमित अवस्थी, डॉ अनिल जैसवाल, डॉ योगेश त्यागी, डॉ भूपेंद्र सिंह आदि उपस्थित रहें।

- अवनीश त्यागी, प्रांत संयोजक एवं कार्यक्रम संयोजक

भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत

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