आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी / क्षेमचंद्र ‘सुमन’

 


आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के इतिहास में युग-प्रवर्तक के रूप में विख्यात है। वे मुख्यतः निबन्धकार और समालोचक थे। उन्होंने साहित्यिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक और वैज्ञानिक आदि अनेक विषयों पर निबन्ध लिखे थे। वे कठिन से कठिन विषय को सरल भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत करते थे कि पाठक उसे सहज ही में हृदयांगम कर लेता था। हिंदी-गद्य की समृद्धि और भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में आपकी देन सर्वथा अप्रतिम कही जा सकती है। खड़ी बोली को गद्य की भांति पद्य की भाषा बनाने का आन्दोलन ीाी आपने ही चलाया था। ‘सरस्वती’ के सफल संपादन द्वारा आपने हिंदी भाषा और साहित्य की जो उल्लेखनीय सेवा की थी, उसीके कारण आपको ‘आचार्य’ का शीर्ष अभिधान प्राप्त हुआ था। सन् 1903 से निरन्तर 20 वर्षो तक ‘सरस्वती’ का संपादन करके आपने हिंदी को नई गति और शक्ति प्रदान की थी। 

आचार्य द्विवेदीजी का जन्म उत्तरप्रदेश के रायबरेली जनपद के दौलतपुर नामक ग्राम में सन् 1864 ईस्वी में हुआ था। आपके पिता श्री रामसहाय द्विवेदी महावीर हनुमान के परम भक्त थे और इसी कारण उन्होंने पुत्र का नाम ‘महावीर सहाय’ रखा था, जो बाद में आचार्य द्विवेदी के अध्यापक की भूल से ‘महावीरप्रसाद’ हो गया। यह यहां भी उल्लेखनीय है कि आचार्य जी के जन्म के आधे घण्टे बाद ‘जात कर्म’ होने से पूर्व पंडित सूर्यप्रसाद द्विवेदी नामक एक ज्योतिषी ने उनकी जीभ पर ‘सरस्वती’ का बीज मंत्र लिखा था। कदाचित् इस मंत्र ने ही आगे चलकर यह करिश्मा दिखाया कि ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में आचार्य द्विवेदी जी ने चरम कोटि की प्रसिद्धि प्राप्त की थी। प्रारम्भ में आपने घर पर ही संस्कृत की ‘दुर्गा सप्तशती’, विष्णु सहस्र नाम’, ‘शीघ्रबोध’ तथा ‘मुहूर्त चिन्तामणि’ आदि कई पुस्तकें कण्ठस्था कर ली थी। गांव के प्राइमरी स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करके आप 13 वर्ष की आयु में अंग्रेज पढ़ने के लिए अपने ग्राम से 32 मील दूर रायबरेली के हाई स्कूल में प्रविष्ट हुए।

अंग्रेजी के साथ आपने दूसरी भाषा फारसी रखी। क्योंकि उन दिनों स्कूलों में संस्कृत नहीं पढ़ाई जाती थी, इसलिए द्विवेदी जी उसका ज्ञान घर पर ही प्राप्त कर लिया था। क्यांेकि रायबरेली का स्कूल दौलतपुर से दूर था, अतः आप सुविधा की दृष्टि से पास के उन्नाव जनपद के ‘रणजीतपुरवा’ नामक स्थान पर स्थित स्कूल में आ गये। किंतु जब वह स्कूल किसी कारण से बंद हो गया तब आपको फतहपुर के स्कूल में जाना पड़ा। यहां से भी आप किन्ही असुविधाओं के कारण आगे पढ़ने के लिए उन्नाव चले गये। इस प्रकार जगह-जगह मारे-मारे फिरने और अनेक स्कूल बदलते रहने के कारण आपकी शिक्षा व्वयस्थित रूप से न हो सकी और आपने अंत में स्कूल को नमस्कार करके अजमेर जाकर 15 रूपये मासिक की रेलवे की नौकरी कर ली। 

जिन दिनों आपने यह नौकरी प्रारम्भ की थी, तब आपके पिता बम्बई मे ं थे। कुछ दिन तक अजमेर में कार्य करने के उपरान्त आप नागपुर और फिर कार्य करते हुए धीरे-धीरे आपकी उन्नति होती गई और महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के अनेक नगरों में रहकर फिर आप झांसी आकर जी0आई0पी0 रेलवे के ‘डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट’ के कार्यालय में हैड क्लर्क हो गए। झांसी में रहते हुए आपने अपने कुछ बंगाली मित्रों की कृपा से बंगला भाषा का ज्ञान भी बढ़ा लिया। मराठी का अध्ययन आपने महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कार्य-काल में कर लिया था। यहां रहते हुए भी आपने संस्कृत के काव्य तथा अलंकार शास्त्र का विधिवत अध्ययन करके साथ-साथ अपने काव्य रचना के अभ्यास को बढ़ाया। अपनी इस साहित्य-साधना के क्रम में आपके संस्कृत ग्रंथो की कई पुस्तकें तथा समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। द्विवेदी जी ने नौकरी छोड़कर ‘साहित्य सेवा’ के क्षेत्र में अवतरित होने का विचार पहले से ही बना  रखा था। इसी बीच एक ऐसी घटना घट गई जिसके कारण आपको तुरन्त नौकरी छोड़ने का निश्चय करना पड़ा। एक दिन आपकी अपने कार्यालय के नये सुपरिण्टेण्डेण्ट से खटपट हो गई और आपने तुरन्त त्यागपत्र दे दिया। 

सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण से मुक्ति पाकर आपने इंडियन प्रेस प्रयाग के स्वत्वाधिकारी श्री चिन्तामणि घोष के आग्रह पर ‘सरस्वती’ के संपादन का जो कार्य सन् 1903 को संभाला था, उसे लगभग 20 वर्ष तक पूर्ण तत्परता एवं लगन के साथ निबाहते रहे। आपके संपादन में जहाँ सरस्वती की बहुमुखी उन्नति हुई वहां आपके द्वारा हिंदी-साहित्य के उत्कर्ष का नया अध्याय ही प्रारम्भ हुआ। आपने अपनी कर्मठता से यह सिद्ध करके दिखा दिया कि एक पुरूष अपने ही उद्योग से विद्वता प्राप्त करके साहित्य-निर्माण की दिशा में उन्नति के शिखर पर किस प्रकार प्रतिष्ठित हो सकता है। आपने अपना पारिवारिक स्थति और तत्कालीन परिवेश का वर्णन करते हुए अपने जीवन संघर्षो के संबंध में जो विचार प्रकट किये थे,वे हम सब के लिए प्रेरणाप्रद है। उन्होंने लिखा था- मैं एक ऐसे देहाती का एक मात्र-आत्मज हूँ, जिसका मासिक वेतन सिर्फ 10 रूपये था। अपने गांव के देहाती मदरसे में थोड़ी सी उर्दू और घर पर थोड़ी सी संस्कृत पढ़कर 13 वर्ष की आयु में मैं 36 मील दूर रायबरेली के जिला-स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने लगा। आटा-दाल घर से पीठ पर लादकर ले जाता था। दाल ही में आटे के पेड़े या टिकिया पका करके पेट पूजा किया करता था। रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था। दो आने फीस देता था। संस्कृत भाषा उस समय स्कूल में वैसी ही अछूत समझी जाती थी, जैसे कि मद्रास के नम्नूदिरी ब्राह्मणों में शूद्र जाति समझी जाती है। विवश होकर अंग्रेजी के साथ फारसी पढ़ता था। एक वर्ष किसी तरह वहां काटा। फिर पुरवा, फतहपुर और उन्नाव के स्कूल में चार वर्ष काटे। कौटुम्बिक दूरवस्था के कारण मैं इससे आगे न पढ़ सका। मेरी स्कूली शिक्षा यही समाप्त हो गई।’’ आपको आजीवन संघर्षो से जूझकर अपने लिए नये मार्ग का निर्माण करना पड़ा था। 

आपकी प्रतिभा का ज्वलन्त प्रमाण यही है कि इतने संघर्षो में रहते हुए भी आपने अपनी लेखनी को कभी विराम नहीं दिया और प्रतिवर्ष कोई न कोई नई रचना हिंदी-साहित्य को देते रहे। आपने जहां संस्कृत में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद प्रस्तुत किया, वहां कई अंग्रेजी की उपयोगी पुस्तकों के हिंदी अनुवाद भी साहित्य-संसार को प्रदान किये। 

आपकी ऐसी कृतियों में ‘कुमार-संभव-सार’, ‘नैषध चरित चर्चा’, ‘विक्रमाकदेव चरित चर्चा’, ‘कालिदास की निरंकुशता’, ‘हिंदी कालिदास की समालोचना’, ‘किरातार्जुनीय की टीका’ और ‘मेघदूत की टीका’ के अतिरिक्त ‘स्वाधीनता’(जान स्टुअर्ट मिल की लिबर्टी का अनुवाद) और ‘शिक्षा’ (हर्बर्ट स्पेंसर की ‘एजुकेशन’ का अनुवाद) उल्लेखनीय है। आपने लार्ड बेकन के प्रमुख निबन्धों का भी अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ नाम से किया था। आपके समीक्षात्मक तथा वर्णनात्मक निबन्धों के आकलन आपकी ‘अद्भुत आलाप’ ‘आध्यात्मिकी’, ‘आलोचनांजलि’, ‘कोविद कीर्तन’, ‘नाट्यशास्त्र’, ‘प्राचीन चिन्ह’, ‘प्राचीन पण्डित और कवि’, ‘पुरातत्व-प्रसंग’, ‘रसज्ञ-रंजन’, ‘लेखांजलि’, ‘विचार-विमर्श’, ‘संकलन’, ‘साहित्य-सन्दर्भ’, ‘साहित्य-सीकर’, ‘सुकवि-संकीर्तन’ तथा ‘हिंदी भाषा की उन्नति’ विशेष उल्लेखनीय है। आपकी ‘सुमन’, ‘कविता-क्लाप’, द्विवेदी काव्यमाला’ और ‘काव्य मंजूषा’ नामक पुस्तकें कविताओं के संकलन है और ‘आख्यायिका सप्तक’, ‘चरित-चर्चा’, ‘जल चिकित्सा’ ‘वनिता विलास’ ‘नगर विलास’, ‘विदेशी विद्वान’, ‘विज्ञान-वार्ता’, ‘वैचित्रय चित्रण’, ‘संपत्ति शास्त्र’ और ‘हिंदी महाभारत’ आदि अन्य पुस्तकों का हिंदी के बहुमुखी विकास में बहुत बड़ा योगदान है। इन पुस्तकों के अतिरिक्त आको ‘विनय विनोद’ (भर्तृहरि के वैराग्य शतक का दोहो में अनुवाद) ‘विहार वाटिका’ (गीतगोविन्द का भावानुवाद), ‘स्नेह माला’ (भर्तृहरि के श्रंगार शतक’ का दोहो का अनुवाद), ‘भामिनी विलास’ (पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रंथ का छायानुवाद) आदि पुस्तकंें भी प्रकाशित हुई थी। आपने वाइरन के ‘ब्राइडल नाइट’ का छायानुवाद भी ‘सोहाग रात’ नाम से किया था, जो अप्रकाशित ही रह गया। आप संस्कृत के भी सुलेखक तथा कवि थे। आपकी संस्कृत की प्रकाशित रचनाओं में ‘देवी स्तुति शतक’, ‘कान्यकुब्जावली व्रतम्’ तथा ‘समाचारपत्र संपादक-स्तवः’ आदि प्रमुख हैं आपकी स्वाध्यायशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि इतना बहुबिध लेखन आपने किया था। 

अपने 20 वर्ष के संपादन-काल में आचार्य द्विवेदी जी ने जहाँ भाषा के परिष्कार और उसके स्वरूप-निर्धारण के लिए अथक संघर्ष किया था, वहां हिंदी में लेखकों तथा कवियों की एक पीढ़ी का निर्माण ही आपने कर दिया था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे प्रतिभाशाली कवि और अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी- जैसे तेजस्वी पत्रकार आपकी ही देन है। अपने कार्य-काल में द्विवेदी जी ने जहां हिंदी में अनेक आंदोलनों का सूत्रपात किया था, वहाँ साहित्य-क्षेत्र में व्याप्त बहुत-सी अराजकताओं का निराकरण करने में भी आप नहीं चूके। अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू जब हिंदी में लिखना अपमान समझते थे, तब आपने हिंदी का वातावरण बनाकर सैकड़ो हिंदी-लेखक तैयार किये थे। आप ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त के कट्टर विरोधी थे। आपकी ऐसी धारणा का परिचय इन पंक्तियों से मिलता है। केवल कविता के लिए कविता करना एक तमाशा है।’’ भाषा की एकरूपता तथा सरलता के संबंध में भी आपके विचार अनुकरणीय और माननीय है। इस संबंध में हिंदी में व्याप्त विषमता का विवेचन करते हुए आपने यह ठीक ही लिखा था-‘‘ गद्य और पद्य की भाषा पृथक-पृथक नहीं होनी चाहिए। हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसके गद्य में एक प्रकार की और पद्य में दूसरे प्रकार की भाषा लिखी जाती है। सभ्य समाज की जो भाषा हो, उसी भाषा में गद्य-पद्यात्मक साहित्य होना चाहिए, बोलना एक भाषा, और कविता में प्रयोग करना दूसरी भाषा प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध हैं जो लोग हिंदी बोलते है और हिंदी ही के गद्य-साहित्य की सेवा करते है, उनके पद्य में ब्रजभाषा का आधिपत्य बहुत दिनों तक नहीं रह सकता।’’

हिंदी भाषा तथा साहित्य-संबंधी आपकी उल्लेखनीय सेवाओं के उपलक्ष्य में काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने जनवरी सन् 1931 में जब आपकों अभिनन्दन-पत्र अर्पित किया था तब आचार्य शिवपूजनसहाय ने सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन -ग्रंथ समर्पित करने की योजना भी प्रस्तुत की थी। 2 मई, सन् 1933 ई0 को सभा ने बड़े समारोहपूर्वक काशी में वह अभूतपूर्व ‘अभिनन्दन-ग्रंथ’ भेट करके अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की थी। इसके 2 दिन बाद प्रयाग में भी ठाकुर श्रीनाथसिंह, मुंशी कन्हैयाला एडवोकेट तथा श्री लक्ष्मीबर वाजपेयी आदि अनेक महानुभावों के उद्योग से ‘द्विवेदी-मेला’ आयोजित करके उसमें भी द्विवेदी जी का अभिनन्दन किया गया था। आचार्य द्विवेदीजी ‘प्रचार और विज्ञापन’ से इतना दूर रहते थे कि अनेक बार प्रयास करने पर भी उन्हें ‘अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता के लिए तैयार न किया जा सका। हाँ, स्वागत-सत्कार करने में आप सबसे आगे रहते थे। इसका प्रमाण हमें इस बात से मिल जाता है कि जब कानपुर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का तेरहवां अधिवेशन सन् 1922 में किया गया था तब उसकी ‘स्वागत-समिति’ की अध्यक्षता का भार आपने ही सहर्ष संभाला था। ‘सरस्वती’ से अलग होने पर अपने जीवन के 18 वर्ष आपने अपने गाँव में रहकर ही व्यतीत किये थे। इण्डियन प्रेस से आपको पेंशन से जो पचास रूपये मिलते थे, द्विवेदी जी उसी में अपना जीवन-यापन करते थे। स्वाभिमानी इतने थे कि कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया और अपनी गरीबी मेें ही मस्त रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने आपको अपनी सर्वोच्च उपाधि ‘साहित्य वाचस्पति’ से सम्मानित किया था। 

आपका निधन 21 दिसंबर सन् 1938 को हुआ था।


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