प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘धूप के अक्षर’ का लोकार्पण



हैदराबाद, 

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (उच्च शिक्षा और शोध संस्थान) तथा ‘साहित्य मंथन’ के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 4 जुलाई (सोमवार) को दोपहर साढ़े 3 बजे से सभा के खैरताबाद स्थित परिसर में एकदिवसीय राष्ट्रीय साहित्यिक समारोह आयोजित किया जा रहा है। यह वही परिसर है जिसमें शर्मा जी शैक्षणिक सेवाएं देते हुए निवृत्त हुए मगर इस संस्थान और संस्थान से जुड़े विद्वानों ने सलाहकार, परीक्षक और साहित्यकार के रूप में निवृत्त नहीं होने दिया। ऐसे में प्रतिष्ठित साहित्यकार प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘धूप के अक्षर’ का लोकार्पण हिंदी का यह संस्थान अपने प्रांगण में कर शर्मा जी के व्यक्तित्व के मूल्यांकन का गवाह बन रहा है।  

समारोह के स्वागाताध्यक्ष प्रो. संजय लक्ष्मण मादार ने बताया कि कार्यक्रम का उद्घाटन राष्ट्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कृत वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. एन. गोपि करेंगे। अध्यक्ष महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व अधिष्ठाता प्रो. देवराज होंगे। देहरादून से पधारीं प्रो. पुष्पा खंडूअतिविशिष्ट अतिथि का आसन ग्रहण करेंगी। विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. गोपाल शर्मा, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. राकेश कुमार शर्मा, डॉ. वर्षा सोलंकी एवं सभा के प्रधान सचिव जी. सेल्वराजन उपस्थित रहेंगे। 

अभिनंदन ग्रंथ की प्रधान संपादक एवं समारोह की समन्वयक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने बताया कि ‘धूप के अक्षर’ शीर्षक अभिनंदन ग्रंथ दो जिल्दों में प्रकाशित है। लगभग 700 पृष्ठ के इस ग्रंथ में 60 लेखकों के कुल 82 आलेख सम्मिलित हैं। इनमें देश भर के विद्वानों और समीक्षकों के साथ-साथ प्रो. ऋषभदेव शर्मा के अंतरंग मित्रों, सहकर्मियों और शोध छात्रों के संस्मरण और समीक्षाएँ शामिल हैं। उन्होंने यह जानकाभी दी कि विमोचन के उपरांत अभिनंदन ग्रंथ की प्रतियाँ संपादन मंडल और सहयोगी लेखकों को समर्पित की जाएँगी। 

समारोह के संयोजक एवं सभा के सचिव एस. श्रीधर ने सभी साहित्य प्रेमियों से कार्यक्रम में उपस्थित होने की अपील की है।



लोकार्पण के अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहे इस ग्रंथ को दो भागों में प्रकाशित किया गया है जिसमें कुल 6 खंड हैं। इस ग्रंथ की संपादक हैं डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा और उनके सहयोगी संपादक हैं डॉ. राकेश कुमार शर्मा, डॉ. बी. बालाजी (बालाजी बाबुराव मंगनाळे), 

डॉ. चंदन कुमाऔर डॉ. मंजु शर्मा।

प्रथम खंड में 13 विद्वानों के 13 समीक्षात्मक आलेख सम्मिलित हैं। प्रथम खंड का शीर्षक है ‘चिंतन के आयाम: सारे अक्षर सूर्यमुखी हो जाएँ। जिसके लेखक हैं, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. अनीता शुक्ल (अनीता शुक्ल), प्रो. प्रतिभा मुदलियार, डॉ. चंदन कुमारी, डॉ. डॉली, श्रीमती शीला बालाजी (शीला इंगले), डॉ. मंजु शर्मा, प्रो. संजय एल. मादार, डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह, डॉ. अनुपमा तिवारी, हुडगे नीरज, श्रीमती शशि राय और डॉ. सुषमा देवी।

दूसरे खंड का शीर्षक है ‘काव्य कृतित्व: रोशनी का इक दुशाला लाइए’। जिसके लेखक हैं, डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया (स्व.), डॉ. प्रेमचंद्र जैन (स्व.), चंद्रमौलेश्वर प्रसाद (स्व.), प्रो. एस. ए. सूर्यनारायण वर्मा (स्व.), प्रो. देवराज (2), प्रो.दिलीप सिंह, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. रामजी सिंह ‘उदयन’, डॉ. प्रमीला के. पी., और डॉ. एन. लक्ष्मी ‘प्रिया’।

तीसरे खंड का शीर्षक है ‘आलोचना दृष्टि: रोशनदान जरूहै’। जिसके लेखक हैं, डॉ. बालशौरि रेड्डी (स्व.), प्रो. एम. वेंकटेश्वर  (स्व.), 

प्रो. देवराज, प्रो. जगमल सिंह, प्रो. गोपाल शर्मा, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. बी. बालाजी (बालाजी बाबुराव मंगनाळे), डॉ. परमान सिंह और प्रवीण प्रणव। 

चैथे खंड का शीर्षक है ‘संपादकीय विवेक: हम प्रकाश के प्रहरी’। जिसके लेखक हैं, डॉ. योगेंद्रनाथ मिश्र, प्रो. निर्मला एस. मौर्य, प्रो.गोपाल शर्मा, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, डॉ. चंदन कुमाऔर प्रवीण प्रणव।

पांचवे खंड का शीर्षक है ‘व्यक्तित्व: दिशाओं को लीपती श्वेत हँसी’। जिसके लेखक हैं, प्रो. देवराज, कु. समीक्षा शर्मा, डॉ. अंतरिक्ष सैनी, पवन कुमार ‘पवन’, जसवीर राणा, डॉ. दिनेश प्रताप तोमर, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. करन सिंह ऊटवाल, प्रो. पी. राधिका, श्रीमती पवित्रा अग्रवाल, डॉ. वर्षा सोलंकी, डॉ. रामनिवास साहू, डॉ. रेखा अग्रवाल, संजीव कुमार, डॉ. सैयद मासूम रजा, अमन कुमार त्यागी, चंद्रप्रताप सिंह, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, डॉ. गिरिजा रानी खन्ना, डॉ. विनीता कृष्णा, डॉ. सुपर्णा मुखर्जी, डॉ. शिवकुमार राजौरिया, डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’, और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

छठे खंड का शीर्षक है ‘मूल्यांकन: उपजे बीज अनेक, बाली गेहूँ की’। जिसके लेखक हैं, प्रवीण प्रणव, अवधेश कुमार सिन्हा, डॉ. राकेश कुमार शर्मा, ज्ञानचंद मर्मज्ञ, डॉ. चंदन कुमा, डॉ. बी. बालाजी बालाजी बाबुराव मंगनाळे, प्रो. निर्मला मौर्य, डॉ. संगीता शर्मा और प्रो. गोपाल शर्मा।



ग्रंथ की रूपरेखा पढ़ने के बाद लग रहा है कि यह प्रो. ऋषभदेव शर्मा के व्यक्तित्व का विशेष मूल्यांकन करता हुआ दिखाई देगा। ग्रंथ में क्या-क्या लिखा गया और क्या शेष रह गया? यह तो ग्रंथ के पठन से ही ज्ञात हो सकेगा किंतु यहां एक बात जो मैं जानता हूं वह यह है कि अभी शर्मा जी का वास्तविक मूल्यांकन शेष रहेगा जिसके लिए उनके विद्यार्थी और शुभचिंतक एक बार फिर प्रयास करेंगे। 

शर्मा जी वास्तव में एक सच्चे मार्गदर्शक ही नहीं बल्कि सहयात्री भी हैं। आप उनसे किसी विषय पर चर्चा करें, और फिर उनकी वाणी, शैली और चिंतन पर ध्यान दीजिए। कुछ समय बाद हो सकता है कि आप उस विषय को भूल जाएं परंतु एकाएक शर्मा जी का मैसेज आपकी समस्या के हल के साथ पहुंच जाएगा। बहरहाल प्रो. ऋषभदेव शर्मा जी के अभिनंदन का यह सिलसिला बना रहना चाहिए। इस बार के अभिनंदन की प्रमुख डाॅ. गुर्रमकोंडा नीरजा जी को साप्ताहिक ‘ओपन डोर’ की ओर से साधुवाद।


उत्तर प्रदेश में बनते दिख रहे नए राजनीतिक समीकरण/सौमिक दुबे



उत्तर प्रदेश देश की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला एवं जनाकांक्षाओं का प्रदेश है। इस प्रदेश की एक सबसे बड़ी यह खासियत है कि यहां लोग जैसे सर आँखों पर बैठा सत्ता के शिखर पर पहुंचाते हैं वह जनआक्रोश में आकर सत्ता से बेदखल भी कर देते हैं। ऐसा मैं नहीं बल्कि सूबे का राजनीतिक इतिहास कह रहा, पिछले 20-25 वर्षों में नज़र डालें तो यहां कोई भी सरकार दुबारा रिपीट नहीं हुई है वापसी के लिए उन्हें लम्बा बनवास काटना पड़ा है।


इन सरकारों की वापसी न करने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण वजह भूमिहार और ब्राह्मणों का नाराज होना रहा है, 2005 में समाजवादी पार्टी की सरकार इन्हीं जातियों के बैसाखी के सहारे चल रही थी लेकिन तत्कालीन भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या ने इन जातियों का समाजवादी पार्टी से मोह भंग कर दिया फिर यह दोनों जातियां बसपा के साथ 2007 के चुनाव में नज़र आईं और बसपा ने शुरू में बकायदा सम्मान भी दिया लेकिन बामसेफ के लोगों के और बसपा के मुखिया के तानाशाही के चलते इन जातियों ने उस समय विकल्प के तौर पर सपा को चुना और समाजवादी पार्टी ने 1 दर्जन से भी अधिक भूमिहारों और ब्राह्मणों को मन्त्री बनाया।


लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के तरफ अत्यधिक झुकाव तथा सत्ता में एक जाति की अत्यधिक दख़ल के चलते यह लोग 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ खड़े नज़र आये और भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। वर्तमान समय में भाजपा से 7 भूमिहार एवं 58 ब्राह्मण विधायक हैं लेकिन यह जातियां इस सरकार में भी उपेक्षित नज़र आ रहीं हैं।


उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा क्षेत्रों में से कोई एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां इन जातियों का प्रभाव नहीं है, अकेले भूमिहार (त्यागी) जाति के मतदाता ही सूबे की तक़रीबन 126 विधानसभा क्षेत्रों में हराने तथा जिताने की क्षमता में हैं।

उत्तर प्रदेश का अगर जातिगत समीकरण देखा जाए तो दलित वर्ग के बाद सूबे में सर्वाधिक ब्राह्मण हैं जो तक़रीबन 15•8 फीसद एवं अगर इसमें 3•87 फीसद भूमिहार मतों को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 20 फीसद के आस पास पहुँच जाता है तो की किसी की सरकार बनाने तथा गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए पर्याप्त है।



उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक वह दौर हुआ करता था जब 100-125 से ज्यादा भूमिहार ब्राह्मण विधायक हुआ करते थे, मात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही 17 से 18 भूमिहार विधायक बना करते थे एवं उत्तर प्रदेश में एक ही साथ 3-3 भूमिहार सांसद हुआ करते थे लेकिन बदलते वक्त के साथ राजनैतिक दलों ने इन जातियों से जनसहयोग, धनसहयोग एवं वोट तो ख़ूब लिया लेकिन बदले में जो मान सम्मान वापस देना चाहिए वह नहीं दिया।



वर्तमान समय में देश एवं प्रदेश में सर्वाधिक शोषित तथा पीड़ित कोई जाति है तो वह भूमिहार एवं ब्राह्मण हैं क्योंकि इन जातियों को न तो आरक्षण का लाभ मिला और न ही इन जातियों को इनकी जाति के नेताओं, अधिकारियों ने आर्थिक तौर पर सबल किया। वर्तमान समय में इस जाति के 60 फीसद से ज्यादे लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं एवं वर्तमान व्यवस्था को कोस रहे हैं।


अगर बात उत्तर प्रदेश की हो तो यहां पिछले कई सालों से ब्राह्मण और भूमिहार राजनैतिक एवं आर्थिक रूप से हाशिये पर जाते नज़र आ रहे हैं। किसी जमाने में कई बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे और हर बार कई दर्जन भूमिहार विधायक एवं मंत्री रहे। आज की स्थिति यह है कि ब्राह्मण और भूमिहार बहुल सीटों पर भी अन्य जाति के लोग चुनाव लड़ और जीत रहे हैं। उसी प्रकार नेतृत्व में भी इन दोनों जातियों की उपेच्छा होती देखी जा रही है, इतना ही नहीं बल्कि इनके साथ शारीरिक अपराध एवं अन्य अत्याचार की घटनाएँ भी रोज़ ब रोज़ हो रही हैं। सर्व विदित है कि सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्याएँ हाल में हुई हैं, इन जाति के अधिकारियों पर भी अन्याय और अत्याचार हुए हैं। ब्राह्मणों का कहना है कि इन घटनाओं एवं दुराचारों के पीछे शासन की शह और एक जाति विशेष का आक्रामक रवैया है। इस बात में काफ़ी तथ्य है ऐसा निष्पक्ष लोगों के द्वारा भी बताया जा रहा है।  


एके शर्मा के राजनीतिक रूप से सक्रिय होने से भूमिहार तथा ब्राह्मण वर्ग को एक उम्मीद की आस दिखी थी लेकिन सरकार में उनको सम्मान न मिलने से यह वर्ग बेहद नाराज़ है तथा इस वर्ग की नाराज़गी सरकार को भारी पड़ सकती है।


ब्राह्मण यह भी कहते हैं कि विभिन्न पार्टियों ने उनका सिर्फ़ उपयोग किया। किसी ने कुछ दिया नहीं, भूमिहार उससे भी ज़्यादा नाराज़ हैं क्योंकि भूमिहारों का कहना है कि एक बार उन्हें मनोज सिन्हा के नाम पर अपमानित किया गया और अब अरविन्द शर्मा के नाम पर अपमानित किया जा रहा। भूमिहारों का कहना है कि हम न तो अपराधी हैं और न ही ठेकेदार हैं इसलिए हमें सत्ता के संरक्षण की कतई जरूरत नहीं है लेकिन ऐसे ही हमारे जाति के नेताओं का अपमान हुआ तो हम भी तख्ता पलट करना जानते हैं।

भूमिहार खेती के आधार पर स्वयं सक्षम है इसलिए सरकार से उनकी सीधी उमीदें कम हैं लेकिन सम्मान की भूख तो है ही। ये दोनों जातियाँ यह भी कह रही हैं कि पिछले दो-तीन दशकों में उनकी नेतागीरी कमजोर रही है। इसलिए नए नेता की तलाश थी जो ए के शर्मा के आने से सफल हो गयी लेकिन उनका यह अफ़सोस है कि उनकी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद अभी तक वो लोग विभाजनकारी राजनीति का शिकार होते रहे हैं। 


ब्राह्मण कहते हैं कि सन् 2016 में तत्कालीन मुख्य सचिव उत्तर प्रदेश सरकार श्री आलोक रंजन की अध्यक्षता में राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश में एक आंतरिक शासकीय सर्वे करवाया था जिसको सार्वजनिक नहीं किया गया। लेकिन 2017 विधानसभा चुनाव इसी गणना के आँकड़ों का उपयोग करके लड़े गए। उसी समय अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय  अध्यक्ष द्वारा 75 जिलों के ब्लॉक एवं गांव में निवास करने वाले ब्राह्मण समाज की सूची तत्कालीन सरकार से माँगी गयी थी। 


उस सर्वे में  यह पाया गया कि ब्राह्मण समाज विभिन्न क्षेत्रों में प्रजाति और गोत्र के अनुसार विभाजित है। जो कि मुख्य रूप से शुक्ला, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, दुबे, तिवारी, पांडेय, चौबे, उपाध्याय, पाठक,  मिश्रा, शास्त्री, विद्यार्थी, शर्मा, शांडिल्य, भारद्वाज, वशिष्ठ, पराशर, व्यास, भूमिहार-ब्राह्मण, बंदोपाध्याय,चटर्जी, बनर्जी चक्रवर्ती, खत्री और खन्ना आदि में विभाजित हैं ।ब्राह्मणों में तमाम उपजातियां भी शामिल हैं जिसमें भट्ट ,गिरी, (गोसाई ), गौड़ और मृत्यु उपरांत कर्मकांड कराने वाले ब्राह्मण ( महापात्र) इत्यादि शामिल हैं। कुछ प्रजातीयों का भौगोलिक वर्गीकरण भी है। जैसे शाक्ल्यदीपी, सरयूपारी, कान्यकुब्ज। कुछ क्षेत्रों में लिखे जाने  वाले  सनाढ्य, पचौरी जैसे उपनाम, गोत्र और प्रवर भी ब्राह्मण समुदाय में शामिल हैं ।


इनमें 3•87 % भूमिहार (ब्राह्मण) भी है जिनमें त्यागी, राय, शाही, पांडेय, मिश्रा, तिवारी, द्विवेदी, कुमार, वत्स, भारद्वाज, शर्मा एवं सिंह आदि लिखने वाले लोग हैं लेकिन भूमिहारों के अत्यधिक उपनाम होने की वजह से कोई इस जाति का सटीक आकलन नहीं कर पाता। ब्राह्मण एवं भूमिहार की उत्पत्ति एवं संस्कार एक हैं। परशुराम भगवान दोनों के आराध्य हैं, इन दोनों में कभी कोई मतभेद नहीं रहा। कोई कारण नहीं होते हुए भी कई बार इनका राजनैतिक दृष्टिकोण अलग रहा है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए अब इन दोनों जातियों ने एक साथ रहने का मन बना लिया है। 


इस पुख़्ता तथ्यों के आधार पर इन दोनों जातियों ने अब ध्रुवीकरण की साझा रणनीति अपनायी है। उन्होंने संगठित होकर पुराने तथ्यों पर आधारित एक गणना की है। इस आधार पर जो तथ्य उभरकर सामने आए उसमें यह प्रमाणित हो रहा है कि उत्तर प्रदेश के कुल मतदाताओं का 15•8 प्रतिशत यानी 16 प्रतिशत या उससे से भी अधिक ब्राह्मण और 3•87 प्रतिशत भूमिहार मतदाता हैं। इस प्रकार किसी एक ख़ास जाति या वर्ग की बात की जाए तो अनुसूचित जाति के बाद सबसे बड़ा वर्ग ब्राह्मण-भूमिहार का है। 


सर्वे का मुख्य आधार जिलों और तहसीलों में उपस्थित चुनाव हेतु जनगणना एवं पल्स पोलियो अभियान के तहत पारिवारिक विवरण एवं अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के सर्वे को तथा 2016 में  उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या प्रतिशत को आधार माना गया जिसके आधार पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश , बुंदेलखंड में ब्राह्मणों की संख्या कम तथा अवध प्रांत एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण जनसंख्या घनत्व अधिक पाया गया, पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो

भूमिहार ब्राह्मणों का प्रतिशत 23-24 तक जाता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में वही पार्टी जीतती है और उसी पार्टी की सरकार होती है जिसको भूमिहार ब्राह्मण वर्ग का समर्थन हो, जैसे पहले कांग्रेस फिर बसपा, सपा और वर्तमान में भाजपा। 


इस प्रकार प्रदेश की लगभग पाँचवां हिस्सा ब्राह्मण है। इनमें 30% परास्नातक, 20% स्नातक 10% इंटरमीडिएट एवं 20% हाई स्कूल पास तथा साक्षर हैं परंतु 30% ब्राह्मण-भूमिहार भूमिहीन, निर्धन एवं गरीब हैं। उनका जीवन स्तर दलितों से भी बदतर है। 


इन जातियों में एक ख़ासियत यह है कि सभी समाज के लोग इनको प्रेम करते हैं तथा सबकी मदद के लिए सदैव तैयार रहते हैं, वैमनस्य इनके स्वभाव में नही है। इसी जाति से ताल्लुक रखने वाले नेता ए के शर्मा का स्पष्ट रुप से एक ही मूल मंत्र है - सबका साथ सबका विकास। इसलिए ब्राह्मण-भूमिहार के साथ वो अन्य जातियों के लिए भी आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। विशेष रूप से अनुसूचित जातियों के उपरांत अति पिछड़ी जातियों जैसे कि निषाद, गोड़, कुर्मी, मौर्य एवं राजभर नेताओं से उनके निकट के व्यक्तिगत सम्बंध विकसित हो गए हैं। सनातन संस्कृति एवं पूजा पद्धति में पूर्ण डूबे हुए होने के साथ साथ उनके स्वभाव में कमजोर वर्गों के प्रति संवेदनशीलता देखने को मिलती है।  


अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका कितना लाभ भाजपा ले पाती है क्योंकि ब्राह्मण और भूमिहार वर्ग को एके शर्मा के जरिये अपना मान सम्मान बचता दिख रहा है, इन वर्ग के लोगों का कहना है कि अबतक बहुत पिछलग्गू की भूमिका में रह लिए लेकिन अब हमें ऐसा नेता चाहिए जो हमारे मान सम्मान के लिए खड़ा हो सके।


सौमिक दुबे

स्वतन्त्र विचारक

यह तो होना ही था ! विधानसभा चुनाव के सेमीफाइनल में भाजपा का लहराया परचम / अशोक मधुप


चुनाव शुरू होने से ही कुछ लोग इसे राजनैतिक रंग देने में लगे थे। वे इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे। भाकियू के दिल्ली बार्डर पर चल रहे आंदोलन के मद्देनजर कुछ विश्लेषकों का कहना था कि इस चुनाव में भाजपा को भाकियू की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा।

उत्तर प्रदेश में बहु प्रतिक्षित जिला पंचायत चुनाव संपन्न हो गया। हर बार की तरह इस चुनाव में सत्ता बल और धनबल विजयी रहा। सिद्धांत और विचार धारा कूड़े में पड़ी नजर आईं। विचारधारा गौण हो गई। प्रदेश की 75 जिला पंचायत सीट में से 67 पर भाजपा विजयी रही। दो सीट पर उसके समर्थक दल का कब्जा रहा। सपा को सिर्फ पांच सीट मिली। एक सीट रालोद को गई। पश्चिमी इलाके में सपा- रालोद और भाकियू का गठबंधन कोई भी करिश्मा नहीं कर सका। अपने गढ़ मुजफ्फर नगर में भारतीय किसान यूनियन का प्रत्याशी मात्र चार वोट पाकर ही घर बैठ गया। रालोद-भाकियू के गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश की 14 सीट में से 13 पर भाजपा ने विजय पताका फहराई। 

चुनाव शुरू होने से ही कुछ लोग इसे राजनैतिक रंग देने में लगे थे। वे इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे। भाकियू के दिल्ली बार्डर पर चल रहे आंदोलन के मद्देनजर कुछ विश्लेषकों का कहना था कि इस चुनाव में भाजपा को भाकियू की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा। वह ये भूल गए कि ये चुनाव सत्ता का चुनाव है। सत्ता में जो दल होता है, उसके ही प्रत्याशी प्रायः विजयी होतें हैं। 2016 में समाजवादी पार्टी की सरकार में सपा के 26 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए थे। जबकि इस बार भाजपा के 21 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध बने। एक सपा का भी जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुना गया। सपा सरकार में 2016 के चुनाव में सपा के 63 जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए थे। इस बार भाजपा और उसके समर्थक दल के दो अध्यक्ष मिला कर कुल 69 चुने गए हैं।

बसपा ने तो पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। सपा- रालोद मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन भी इनके साथ थी। इसके बावजूद यह शुरूआत से ही बैकफुट पर रहे। इस चुनाव में आम जनता मतदान नहीं करती है बल्कि जनता से चुने गए सदस्य मतदान करते हैं। मीडिया रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि इनकी खुलकर बोली लगती है। निर्धारित राशि तै हो जाने पर सदस्य प्रत्याशी के साथ चले जाते हैं। इस बार सदस्य का रेट 15 से 20 लाख के आसपास रहा। विजेता को पांच- छह करोड़ के आसपास रूपया व्यय करना पड़ा।

चुनाव की विशेष बात यह रही कि इसमें जमकर क्रास वोटिंग हुई। बिजनौर जनपद में भाजपा के आठ सदस्य विजयी हुए थे। अन्य दल के इस प्रकार थे। सपा 20, रालोद चार भाकियू दो,असपा आठ , बसपा पांच अन्य छह। सपा,रालोद और भाकियू के दो सदस्य मिलाकर 26 सदस्य हो रह थे। लग रहा था कि सपा प्रत्याशी विजयी होगा। किंतु 26 की जगह सपा को 25 ही वोट मिले। भाजपा के साकेंद्र चौधरी 30 मत पाकर विजयी रहे। 

मुजफ्फरनगर में अकेले भाकियू ने अपना प्रत्याशी लड़ाया। यह भाकियू का गढ़ है। भाकियू को अपने गढ़ में ही बुरी तरह पराजय हाथ लगी। उसके प्रत्याशी सत्येंद्र बालियान को कुल चार मत मिले। इस सीट पर भाजपा के 13 सदस्य ही विजयी हुए थे। भाजपा इन तेरह की बदौलत तीस तक पंहुच गई। भाजपा प्रत्याशी 26 मत से विजयी रहा।आठ में से पांच मुस्लिम सदस्यों ने भी भाजपा प्रत़्याशी को वोट किया। नौ मतदाताओं ने मतदान नही किया। रालोद-भाकियू के गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश की 14 सीट में से 13 पर भाजपा ने विजय पताका फहराई। अकेले बागपत में ही रालोद का प्रत्याशी विजयी रहा।

चुनाव संपन्न हो गया । अगर इसे विधान सभा चुनाव का सेमीफाइनल माने तो भाजपा पूर्ण बहुमत से भी आगे निकल गई। वैसे इस चुनाव को विधान सभा चुनाव का सेमी फाइनल कहना गलत है। इतना जरुर है कि ये भाजपा के 67 और दो गठबंधन के कुल 69 जिला पंचायत अध्यक्ष विधान सभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों को विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। आगामी चुनाव में प्रत्याशी के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े होंगे।

- अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

विचारधाराओं के भंवरजाल में फंसे युवा /दिव्येन्दु राय


जैसे किसी लड़की की शादी में बुआ का लड़का आकर बहुत सारा काम कर देता है वही हाल चुनाव में कार्यकर्ताओं का होता है, शादी के बाद न तो कोई बुआ के बेटे को खोजता है और न ही विधायक, मन्त्री बना व्यक्ति कार्यकर्ता को.

क्या आपने देखा है किसी लड़की के पिता को अपने बहन के लड़के को शादी बाद खोजकर उसके भविष्य को सुरक्षित करने की कोशिश करते हुए? क्या आपने कभी देखा या सुना है किसी विधायक, मन्त्री को अपने चुनाव में काम किये हुए कार्यकर्ताओं को रोजगार अथवा काम देते हुए? जहां तक मुझे पता है ऐसा आपने शायद ही कभी सुना या देखा होगा लेकिन इसकी भी उम्मीद मुझे मात्र 0.1 फिसद ही है.


किसी आइडियोलॉजी को मानना अच्छी बात है लेकिन सम्बन्धित विचारधारा से जुड़े नेता चाहते हैं कि आप उस विचारधारा के प्रति इस कदर समर्पित हो जाईये कि उसके अलावा आपको कोई अन्य विचारधारा समानांतर लगे ही नहीं वह इसलिए ऐसा चाहते हैं ताकि आप उनके किसी काम पर चाह कर भी प्रश्नचिन्ह न उठा सकें. जैसे अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और किसी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बेरोजगार ने आत्महत्या कर ली तो कोई भाजपा से जुड़ा हुआ व्यक्ति इसमें सरकार की आलोचना नहीं करेगा वहीं अगर दिल्ली में अगर किसी बेरोजगार ने आत्महत्या कर ली तो आम आदमी पार्टी से जुड़ा हुआ व्यक्ति सरकार की आलोचना नहीं करेगा. इसलिए अगर आप बेरोजगार हैं तो आपकी आइडियोलॉजी रोजगार पाना होना चाहिए न कि सोशल साइट्स पर नेताओं और पार्टियों के लिए तू-तू, मैं-मैं करना होना चाहिए. राजनीतिक दल के नेता आपके घर कौन सी सब्जी बनेगी, आटा कैसे पिसायेगा उसकी चिन्ता नहीं करते बल्कि वह यह चाहते हैं कि उनसे जुड़े कार्यकर्ता उक्त नेता की, सम्बन्धित विचारधारा वाले दल की कमियों को छुपाएं तथा उनका बचाव करें.


युवाओं का समय के साथ विचारधारा बदल देना फिर भी ठीक है लेकिन विचारधारा के नाम पर भ्रमित कर देने वालों के साथ रहना बिल्कुल ठीक नहीं होता है, हाँ कुछ लोग यह जरूर कहेंगे कि कहाँ पहले थे अब कहाँ चले गए लेकिन वह न तो आपके घर पर सरसों का तेल पहुंचाने जाएंगे और न ही आपकी बाइक में पेट्रोल डलवायेंगे.


"कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि फ़लाना लड़का एकदम असामाजिक है, किसी से मतलब नहीं रखता लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि कुछ लड़के सामाजिक बनने के लिए नहीं बल्कि समाज को बदलने के लिए होते हैं और इसलिए ही समाज से दूर रहकर पढ़ाई करते हैं."


आजकल आप अभी कुछ लाइने लिखकर सोशल साइट्स पर कोई फ़ोटो पोस्ट करेंगे तो लोग आठ कदम आगे तक का सोच लेते हैं एवं अनुमान लगाकर जजमेंट देने में देर नहीं करते जबकि वह खुद अपने वोट के साथ ही न्याय नहीं कर पाते कि वह अपना वोट जिस व्यक्ति को दिए होते हैं क्या वह व्यक्ति ही सबसे योग्य था उक्त प्रत्याशियों में?


देश की पहली संसद में 9 फीसद सांसद किसी बड़े, राजनीतिक परिवार से जुड़े थे, वर्तमान समय की संसद में 40 वर्ष से कम उम्र के 98 फीसद सांसद किसी न किसी राजनैतिक व्यक्ति के रिश्तेदार हैं और उनकी लीगेसी को आगे बढ़ा रहे हैं.


अगर आपको लगता है कि आप किसी नेता का झण्डा ढोकर, जय जयकार करके नेता बन जाएंगे तो यह गलत है. किसी नेता को क्या आन पड़ी कि वह आपकी चिन्ता करे, अब भला देश के गृहमंत्री मेरी क्यों चिन्ता करेंगे कि दिव्येन्दु को 2022 में घोसी से प्रत्याशी बना दिया जाए या राज्यमंत्री बना दिया जाए. नेता आपकी चिन्ता तभी करते हैं जब आप उनके लिए या तो लाभदायक होते हैं या नुकसानदायक, लाभदायक होने की दशा में आपको साथ जोड़ा जाता है और नुकसानदायक होने की दशा में आपको मैनेज किया जाता है. राजनीति का वह दौर गया जब आपके संघर्ष और त्याग को मान दिया जाता था, वर्तमान युग में धन,जाति एवं बाहुबल को मान दिया जाता है.


युवा सही समय पर विचारधारा के घुप अंधेरे से बाहर नहीं निकल पाते तो एक वक्त बाद परिस्थितियों के चलते उनकी विचारधारा कमाने, खाने और परिवार पालने में सिमट कर रह जाती है. उन्हें अपनी गलती का एहसास तब होता है जब उनसे कम योग्य लोग विधायिका में अपनी ताकतों को दुरुपयोग करते दिखते हैं और उनकी बदौलत उनके परिजन, उनके रिश्तेदार आम लोगों से रौब में बात करते हैं. 


उस समय वही युवा जो कभी किसी नेता के लिए झण्डा ढोये होते हैं वह समाज से खुद को काट लेते हैं क्योंकि उनके ऊपर परिवार की बहुत जिम्मेदारियाँ आ गईं होती हैं और आय का स्रोत समिति होता है, उनके पास न इतना वक्त बचता है कि वह समाज को बदलने की सोच सकें और तो और कुछ ही सालों बाद वह नेता भी ठीक से नहीं पहचानता जो पहले हर बात पर पीठ ठोक शाबासी दिया होता है.

फिर भी जब आप कभी किसी मुसीबत में फंस कर उक्त नेता के पास अपनी गुहार लेकर जाते हैं तो वह पहले अपना राजनीतिक लाभ और हानि देखता है उसके बाद कई दिन आपको अपने पीछे घुमाता है फिर या तो टाल देता है या फिर किसी लाभ को देखकर आपके लिए एक फोन कॉल करके पैरवी कर देता है.


इसलिए वर्तमान समय में युवाओं को राजनीतिक दलों का झण्डा ढोने से पहले खुद के परिवार के उम्मीदों के झण्डे को ढोने की जरूरत है. किसी विचारधारा के लिए लड़ने से पहले खुद के और अपनों के ख़्वाबों के लिए लड़ने की जरूरत है, क्योंकि देशभक्ति देश के लिए इनकम टैक्स देकर की जाती है न कि सोशल साइट्स पर लिखकर और अपने परिजनों को दुखी कर, उनके सपनों को तोड़कर.


दिव्येन्दु राय

स्वतन्त्र टिप्पणीकार & राजनैतिक विश्लेषक

स्वाधीनता के 75 वर्ष एवं राष्ट्र​ निर्माण में कलाकारों की भूमिका



भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत, मुजफ्फरनगर जिला, नव सिद्धार्थ आर्ट ग्रुप दिल्ली, उत्कर्ष ललित कला अकादमी लखनऊ उत्तर प्रदेश,  शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में "स्वाधीनता के 75 वर्ष एवं राष्ट्र​ निर्माण में कलाकारों की भूमिका" विषयक नौ द्विवसीय कला उत्सव का आयोजन किया गया। कला उत्सव कार्यक्रम का उद्धघाटन मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी एवं सिंगापुर के अंतराष्ट्रीय सुविख्यात कलाकार श्री पी गनाना द्वारा डैमोंस्ट्रेशन श्रंखला का प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम में प्रज्ञा प्रवाह पश्चिमी उत्तरप्रदेश उत्तराखंड के क्षेत्रीय​ संयोजक माननीय श्री भगवती प्रसाद राघव का सानिध्य रहा। विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल भटनागर (एमिनेंट आर्टिस्ट, चंडीगड़) रहें।

कला उत्सव कार्यक्रम की अध्यक्षता धन्यवाद ज्ञापन प्रोफेसर वीरपाल सिंह (प्रांत अध्यक्ष भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा प्रवाह मेरठ ) द्वारा हुआ।कार्यक्रम का प्रारंभ कार्यक्रम संयोजक इंजीनियर अवनीश त्यागी (प्रांत संयोजक भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा परिषद मेरठ) ने किया। कार्यक्रम में अतिथियों का परिचय और मंच का संचालन डॉ रजनीश गौतम, प्रस्तावना डॉ वन्दना वर्मा, कार्यक्रम सह संयोजक डॉ नीतू वशिष्ट के द्वारा किया गया। कार्यक्रम का प्रारंभ सरस्वती वंदना के साथ प्रारंभ होकर वंदे मातरम् और कल्याण मंत्र के साथ समापन हुआ।

मुख्य वक्ता प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी ने स्वाधीनता के 75 वर्ष और कलाकारों के राष्ट्र निर्माण में भूमिका पर बोलते हुए कहा, कि मुझे यह जानकर अति हर्ष हुआ है, कि आज स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने में कलाकारों की जो भूमिका रही है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्वाधीनता आंदोलन में कलाकारों की जो भूमिका रही है, इस विषय को लेकर आज ये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इसके लिए आप सभी विद्वितजन बधाई के पात्र हैं। आप सभी शिक्षाविद, प्रबुद्ध जन, कलाकार और विधार्थी प्रशंसा के पात्र भी हैं। उन्होंने कहा, कि आज इस कला उत्सव कार्यशाला में व्याख्यान एवं डेमोस्ट्रेशन श्रृंखला  में मुझे आने का जो अवसर प्रदान किया गया है, उसके लिए मैं आप सभी शिक्षक एवं प्रबुद्ध जनों का आभारी हूं, और आपका धन्यवाद करता हूं । इसके साथ-साथ आप ने मुख्य अतिथि पी गनाना जी और विशाल भटनागरजी सहित कार्यकर्ताओं को भी धन्यवाद भी ज्ञापित किया। उन्होंने कहा, कि इस कोरोना काल ने हमें नव दुर्गा की पूजा से भी वंचित कर दिया गया था। परंतु आज 9 दिवसीय कला कार्यशाला, व्याख्यान और डेमोंस्ट्रेशन​ के द्वारा हमें पुनः इस तरह के कार्यक्रम में जुड़ने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यह भी हमारे बड़ी अति हर्ष की बात है। 

प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी ने कलाकारी की ओर इशारा करते हुए कहा, कि यह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश के कलाकारो ने अपना संपूर्ण सहयोग दिया और अपने-अपने कार्य के द्वारा ही स्वाधीनता प्राप्त करने में सफलता मिली। इसमें प्रत्येक क्षेत्र के कलाकारो ने अपना भरपूर सहयोग दिया। उसमें भले ही वह कोई चित्रकार रहा हो, मूर्तिकार रहा हो, कवि हो, नाटककार हो, और अभिनेता भी रहे हो, इसमें कोई भी हो उन्होंने इसमें अपना-अपना सहयोग दिया है। जब हमारे देश में ब्रिटिश शासन था, तब हमारे देश का जो इतिहास रहा था, उसको तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया गया था। उसे कुछ भ्रामक तरीके से तैयार करके  हमारे सामने प्रस्तुत किया गया। जिससे हमारे देश की जनता को हमारे देश के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त ही नहीं हो सकी थी। आज उससे भिन्न तरह के व्याख्यान और डेमोस्ट्रेशन प्रोग्राम में आने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे ऐसा लग रहा है, कि अब हमारे देश का जो इतिहास है वह पूर्ण रुप से सभी जनों तक धीरे-धीरे पहुंच जाएगा। क्योंकि इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रबुद्ध जन दूर-दूर से जुड़े हुए हैं, साथ ही छात्र-छात्राएं भी जुड़ी हुई है। 

उन्होंने सन् अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के ऊपर प्रकाश डालते हुए बताया, कि यह क्रांति मेरठ से ही भारत देश के स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इसके पश्चात यह पूरे देश में फैल गई थी। उन्होंने आगे कहा, कि स्वतंत्रता आंदोलन कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं था। यह तो एक विचारधारा थी। एक भाव था, देश के प्रति! किंतु कुछ लोगों को तो यह एक राजनैतिक और केवल राजनीतिक मुद्दे के रूप में दिखाई देता है। जैसे वह एक राजनीतिक आंदोलन था। जिसमें गरम दल और नरम दल नाम के दो दल होते थे। जबकि स्वाधीनता आंदोलन एक वैचारिक धारा थी, जो देश प्रेमियों ने अपने देश की स्वाधीनता के लिए एक मुहिम शुरू की थी। परंतु हमारे लिए दुर्भाग्य की बात यह है, कि हमारे देश के इतिहास को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है।

उन्होंने क्रांतिकारियों महान नायकों के विषय में बताया, कि रविंद्र नाथ टैगोर जैसे कलाकार  स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे। क्या उन्होंने स्वतंत्रता के लिए अपना योगदान नहीं किया? रविंद्र नाथ टैगोर नोबेल पुरस्कार विजेता और एक  महान व्यक्ति थे। उन्होंने बहुत सारी कविताएं, चित्रकारी, अभिनय, नाटक आदि राष्ट्र को दिए। वह सब प्रकार की कलाओं में पारंगत थे। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में अपना पूरा-पूरा महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई सारे लेख लिखे थे, अनेक कविताएं भी लिखी थी।

उन्होंने आगे बताया, कि यदि किसी देश की इतिहास और संस्कृति को खत्म करना हो, तो उसके तथ्यों को नष्ट कर देना चाहिए। जिससे वह देश ही खत्म हो जाता है। यही रणनीति अंग्रेज ब्रिटिश सरकार ने अपनाई थी! इस बात पर ध्यान महापुरुष का गया, और उन बुद्धिजीवियों ने इस मुहिम में अपना कदम आगे बढ़ाया और भारत मां की लाज बचाने के लिए स्वाधीनता प्राप्ति की ओर चल पड़े। उन कलाकारों उन प्रबुद्ध जनों को मेरा कोटि-कोटि सादर नमन है।

उन्होंने स्वामी विवेकानंद का जिक्र करते हुए बताया, कि स्वामी विवेकानंद किस प्रकार से अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धावान थे। जब शिकागो में उनका भाषण हुआ था। तब उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी को ही चुना था। जबकि वह कई भाषाओं के विद्वान रहे थे। आपने भारत देश के गौरवशाली इतिहास की ओर ध्यान देते हुए बताया, कि जहां पर गीता, पुराण, वेद शास्त्रो की रचना हुई है। उन्होंने बताया, कि यदि जनता को कुछ बताना हो, तो उसका केवल और केवल एक ही माध्यम हो सकता है और वह है कला। कला से लोग जल्दी प्रभावित होते हैं और उसका प्रभाव भी जल्दी ही पड़ता है। क्योंकि प्राचीन काल से ही मानव संप्रेषण का सबसे बढ़िया साधन कला ही रही है। जिससे कि यहां के प्रबुद्ध जनों को और छात्र छात्राओं को अपने भारत के गौरवमय इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त हो। आपने कला के साथ-साथ में नाटकों का कला के रूप में भी व्याख्यान किया है। उन्होंने बताया, कि उस समय के नाटकों का बहुत ही महत्व रहता था, और नाटकों के द्वारा ही विभिन्न कहानियों को दर्शाया जाता था। जिससे समाज को एक चेतना एक अनुशासन और एक प्रेरणा मिलती रही थी। उन्होंने टोली माधवराव पेशवा के ऊपर बनाए गए नाटक गिरीश चंद्र घोष के नाटक बाय नारायण जैसे नील दर्पण आदि नाटकों का जिक्र किया।  उन्होंने बताया, कि किस प्रकार से नाटक कला मतलब अभिनय कला से लोगों को प्रभावित किया जाता था, और किस प्रकार से देश के जनता को प्रभावित किया जा सकता है। किस प्रकार से सिखाया जा सकता है। हमें अपने देश के गौरव में इतिहास को जानना होगा। उसको पहचानना होगा और अपने देश की संस्कृति को भी।  इसी के साथ उन्होंने  सबको धन्यवाद और शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ पी. गनाना ने कला के विभिन्न रूपों में डैमोंस्ट्रेशन दिखाया। उन्होंने कहा,कि मुझे यह जानकर अति  हर्ष हुआ है कि भारत में आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर 9 दिवसीय कला कार्यशाला , व्याख्यान एवं डेमोंसट्रेशन श्रृंखला  का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने इसके लिए सभी को धन्यवाद दिया। इस कार्यक्रम में मुझे मुख्य अतिथि के रुप में बुलाया, यह मेरे लिए बड़ा ही गर्व और हर्ष का विषय है। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कलाकारों महत्वपूर्ण योगदान विषय पर विस्तृत रूप में चर्चा की। उन्होंने कहा, कि भारतीय आंदोलन अनेक कलाकारों ने अपनी कविताओं अपने चित्रों और अपने लेखों के द्वारा इस स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय सहयोग किया था। जैसा, कि रविंद्र नाथ का जिक्र आता है, तब रविंद्र नाथ टैगोर बहुत ही अच्छे कवि, विशेषज्ञ ,चित्रकार, अभिनेता तथा  कई बहुमुखी प्रतिभा लिए हुए थे। उन्होंने इनके साथ साथ नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज, अमृता शेरगिल, राजा रवि वर्मा, सतीश गुजराल, रविंद्र रेड्डी और बंगाल शैली के अन्य कलाकारों का जिक्र करते हुए बताया, कि भारतीय कला सिंगापुर मलेशिया इंडोनेशिया एवं अन्य देशों में किस प्रकार से फल-फूल रही है, किस प्रकार से बाजार में इसकी मांग बढ़ रही है। उन्होंने आगे बताया, कि सिंगापुर, मलेशिया और इंडोनेशिया में भारतीय चित्रों  के स्थानों पर संग्रहकर्ता है। जिन्होंने आज भी अपने संग्रह में भारतीय चित्रकारों के चित्रों को संजोकर रखा हुआ है और आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय चित्रो की मांग बढ़ रही है। भारतीय चित्रों ने आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेजोड़ धाक जमा रखी हुई है। जिनकी खरीदारी​ भी दिनों​ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसके साथ-साथ​ ही उन्होंने बंगाल की कला के बारे में बताया, बंगाल कला का जो रेखाचित्र था। वह पूर्ण रूप से भारतीय ही है। संपूर्ण भारतीयता का लुक उसमे दिखाई भी देता है। कई स्थानों पर भी बंगाल शैली के चित्रों का संग्रह प्राप्त होता है। जो बहुत ही सुंदर है। सिंगापुर के प्रधानमंत्री के विषय में भी बताते हुए उन्होंने कहा, कि प्रतिवर्ष वह लोग भारतीय चित्रों के मेले और प्रदर्शनियो का आयोजन करते रहते हैं। जिनमें भारतीय कला को प्रोत्साहन दिया जाता है। आपने बताया, कि कलाकारों को अपनी कला को विकसित करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। किन  सिद्धांतों को अपनी कला में उतारना चाहिए। इसके विषय में विस्तृत व्याख्या भी दी। उन्होंने भारतीय कलाकार और कला की प्रशंसा अनेक संदर्भ और व्याख्यान के द्वारा दी।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल भटनागर ने कहा, कि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है, कि जिला मुजफ्फरनगर के महाविद्यालय आपस में संयुक्त होकर इस कला कार्यशाला, व्याख्यान और डेमोंसट्रेशन का आयोजन कर रहे हैं, और इनमें भारत की विभिन्न कला संस्थाओं का भी योगदान मिल रहा है उन्होंने सभी को साधुवाद किया, और आभार व्यक्त करते हुए सबको बधाई दी।  उन्होंने कहा, कि यह नौ दिवसीय कला कार्यशाला उन सभी लोगों के लिए बहुत ही लाभप्रद होगी जो कला के क्षेत्र में कुछ ना कुछ कार्य कर रहे हैं, और निरंतर उसमें अपने प्रयोग भी कर रहे हैं उनमें चाहे कोई शिक्षक हो या कोई छात्र हो। इस कार्यशाला का लाभ सभी को प्राप्त होने वाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि इसमें समाज के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति जुड़े हुए हैं, और इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सभी अपना अपना प्रयास कर रहे हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के बाद कलाकारों की क्या भूमिका रही है, इस विषय पर उन्होंने विस्तृत व्याख्या रखी, और कहा,कि आजकल हमारा बालक वर्ग या कलाकार किस दिशा में जा रहा है। आज की कला किस दिशा में जा रही है, इस विषय पर हमें चिंतन और मनन करना ही होगा। इसके लिए यह कला कार्यशाला बहुत ही महत्वपूर्ण है। जिसमें इन सभी तथ्यों का विचार मंथन किया जा सकता है, क्योंकि यहां कार्यक्रम बहुत ही महत्वपूर्ण संस्थानों से जुड़ा हुआ है। जो बच्चों को सही मार्गदर्शन एवं सही दिशा प्रदान करेगा। इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। जिससे, कि उन्हें इस चीज का बोध हो जाए, कि वह किस दिशा में जा रहे हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है, कि हमारे इतिहास को तोड़ मरोड़ कर हमारे सामने पेश किया जा रहा है। हमारे वास्तविक इतिहास को छिपा दिया गया है, जो कि मूल रूप में नहीं रहा, और समाज को भ्रामक और भ्रांति से पूर्ण ज्ञान दिया जाता रहा है। 

उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कला की प्रासंगिकता पर कहा, कि स्वाधीनता की प्राप्ति में कलाकारों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है, कला के रूप में रविंद्र नाथ टैगोर जैसे अनेक महान कलाकार आते हैं, जिन्होंने शांति निकेतन जैसे संस्थानों की स्थापना की थी। जिसमें रामकिंकर वेज, देवी प्रसाद राय, चौधरी नंदलाल बोस और अन्य अन्य कई  प्रसिद्ध आर्टिस्ट वहीं से होकर संपूर्ण देश में अपनी कला को फैलाया और समाज को शिक्षा भी दी है। कला समाज को शिक्षा देने वाली होती है, क्योंकि कला से सभी को प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि कला गलत संदेश देती है तो उसका समाज पर गलत प्रभाव जाता है, और यदि वह कला अर्थ पूर्ण है, सही है, तब उसका समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। हमारे कॉलेज और स्कूलों और हमारे जो विषय है इनमें हमारे देश की कला और संस्कृति को ही पढ़ाया जाना चाहिए ना कि अन्य देशों के जैसा। पाश्चात्य सभ्यता का जो पाठ्य क्रम है वह हमारे देश मे पढ़ाया जाता रहा है। वह भी हमारे देश के पाठ्यक्रम के साथ मिलाकर सीखाया भी जा रहा है। जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। यदि किसी देश की संस्कृति और कला को दबाना है, तब उसको वहां की जनता के समक्ष ना लाया जाए। उसे वहां की संस्कृति और सभ्यता नष्ट हो जाएगी। इस प्रकार की रणनीति पहले से ही भारतीय समाज में खेली जा चुकी है।

विशिष्ट अतिथि श्री विशाल भटनागर जी आगे कहते हैं, कि मैंने अपना भित्ति चित्रण और  मूर्तिकला में कई प्रकार की मूर्तियां और पेंटिंग्स बनाई हुई है। जिनका विषय केवल और केवल भारतीय चित्रकला ही रही है। उन्होंने अपने चित्रों में भारतीय प्रतीक चिन्हों का प्रयोग सर्वाधिक किया है, यहां प्रथम बार इस बात की पुष्टि भी की है। उन्होंने अपने कुछ कार्यों के फोटोग्राफ्स को सभी के समक्ष प्रस्तुत किया। जिनमें यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि विशाल भटनागर की  कला पूर्ण रूप से भारतीय प्रतीक चिन्हों पर आधारित है। उन्होंने हमेशा अनेक कार्यशालाओं में यह बात कहते रहे हैं, कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में जरूर अपनी कलाकृतियों को लेकर जाना चाहिए। परंतु अपने देश की मूल भावना अपने देश की मूलकृतियों को अपनी कला को कभी भी भूलना नहीं चाहिए। हम संप्रेषण करने के लिए दूसरे देश की भाषाओं को सीख जरूर सकते हैं, लेकिन अपने देश की भाषा में उसको किस प्रकार से प्रयोग करना है, किस प्रकार से उसका व्यवहार में लाना है। अपने कला में यह भी हमें सीखना होगा ना कि दूसरे देशों की सभ्यता की कलाओ को अपनी कला में तोड़ मरोड़ कर पेश करना। उन्होंने बच्चों को चित्रकला और मूर्तिकला के विषय में भी विस्तृत जानकारी दी।

कार्यक्रम के अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर बीरपाल सिंह ने सभी आगंतुकों, कलाकारों, भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा प्रवाह के कार्यकर्ताओ​, समाज के प्रबुद्ध जनों, विधार्थियों का धन्यवाद दिया, उन्होंने कहा,कि यह अनुभव हमारे किये एक नई प्रेरणा लेकर आया है, क्योंकि मुजफ्फरनगर इकाई के द्वारा यह कार्यक्रम आयोजित करने के बाद आज मुझे भी कला के विषय मे कुछ सीखने को मिला है, आशा है, कि इससे सभी को बहुत प्रेरणा मिली होगी। इसके साथ ही आपने मुख्य वक्ता, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि सहित सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओ के विषय के सार को उपयोगी बताया। सभी कार्यकर्ताओं, कलाकारों, शिक्षाविदों, विधार्थियों एवं आयोजनकर्ताओं​ को शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम में प्रमुख रूप से भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत, प्रज्ञा परिषद ब्रज, देवभूमि विचार मंच के कार्यकर्ताओं, सहयोगी संस्थाओं, कलाकारों, प्रबुद्ध जनों के साथ-साथ मुजफ्फरनगर जिले के प्रमुख महाविद्यालयों के शिक्षकगण, प्रतिभागी, विधार्थी रहे। हैं।  कार्यक्रम में भारतीय प्रज्ञान परिषद के प्रांत संयोजक अवनीश त्यागी, प्रज्ञा परिषद अध्यक्ष डॉ प्रवीण तिवारी, संयोजक प्रोफेसर वी.के. सारस्वत, देवभूमि विचार मंच के अध्यक्ष डॉ चैतन्य भंडारी, संयोजिका डॉ अंजलि वर्मा, हस्तिनापुर संदेश पत्रिका के संपादक डॉ सूर्य प्रकाश अग्रवाल, प्रांत शोध संयोजिका डॉ शीला टावरीजी, सहसंयोजक डॉ देवेश, अनुराग विजय अग्रवाल, डॉ एस सी वार्ष्णेय, डॉ महेश दिवाकर, डॉ नितिन कुमार, डॉ ऋचा जैन , डॉक्टर अमित कुमार, श्री नीरज  मौर्य, श्री भास्कर द्विवेदी मीडिया, श्री कुलदीप कुमार, इंजीनियर पंकज कुमार, डॉ जी. आर.गुप्ता, डॉ अलका तिवारी, डॉ वंदना, सविता वर्मा, डॉ श्री राम शर्मा, डॉ दिनेश शर्मा, डॉ के.के. शर्मा, मीनाक्षी, डॉ अमिता, डॉ वकुल बंसल, योगेश शर्मा, डॉ अमित अवस्थी, डॉ अनिल जैसवाल, डॉ योगेश त्यागी, डॉ भूपेंद्र सिंह आदि उपस्थित रहें।

- अवनीश त्यागी, प्रांत संयोजक एवं कार्यक्रम संयोजक

भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत

पं. पद्मसिंह शर्मा और ‘भारतोदय’ / अमन कुमार ‘त्यागी’





पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म सन् 1873 ई. दिन रविवार फाल्गुन सुदी 12 संवत् 1933 वि. को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टेशन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नंगला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके एक छोटे भाई थे जिनका नाम था श्री रिसाल सिंह। वे 1931 ई. से पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। पं. पद्मसिंह शर्मा की तीन संतान थीं। इनमें सबसे बड़ी पुत्री थी आनंदी देवी, उनसे छोटे पुत्र का नाम श्री काशीनाथ था तथा सबसे छोटे पुत्र रामनाथ शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा के पिता आर्य समाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रति उनकी अत्यंत श्रद्धा थी। इसी कारण उनकी रुचि विशेष रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया। जब ये 10-11 वर्ष के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पंडित अध्यापकों से संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी, और रघुवंश आदि का अध्ययन किया तथा एक मौलवी साहब से उर्दू व फारसी की भी शिक्षा ली। सन् 1894 ई. में कुछ दिन स्वर्गीय भीमसेन शर्मा इटावा निवासी की प्रयागस्थिति पाठशला में अष्टाध्यायी पढ़ी। उसके बाद काशी जाकर अध्ययन किया। पुनः मुरादाबाद, लाहौर, जालंधर, ताजपुर (बिजनौर) आदि स्थानों पर भी अध्ययन किया। अध्ययन समाप्ति के पश्चात् सन् 1904 ई. में गुरुकुल काँगड़ी में कुछ दिन अध्यापन कार्य किया। उन दिनों वहाँ पं. भीमसेन और आचार्य पं. गंगादत्त भी थे। उसी समय महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) ने पं. रुद्रदत्त जी के संपादकत्व में हरिद्वार से सत्यवादी साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। उस समय पं. पद्मसिंह शर्मा भी उनके संपादकीय विभाग में थे। इनका संपादन एवं लेखन का प्रारंभ यहीं से हुआ। इसके बाद तो शर्मा जी का जीवन लेखन, संपादन एवं अध्यापन आदि में ही व्यतीत हुआ। प्रारंभ में ‘सत्यवादी’ में ही कई लेख लिखे। इसके बाद सन् 1908 के प्रारंभ में जब आचार्य गंगादत्त गुरुकुल काँगड़ी छोड़कर ऋषिकेश में रह रहे थे तो शर्मा जी ‘परापेकारी’ (मासिक) पत्रिका के ‘संपादक’ होकर अजमेर वैदिक यंत्रालय में गए। वहाँ पर इन्होंने ‘परोपकारी’ के साथ ही कुछ दिन तक ‘अनाथ रक्षणम्’ का भी संपादन किया। सन् 1909 ई. में इनका आगमन ज्वालापुर महाविद्यालय में हुआ। यहाँ इन्होंने ‘भारतोदय’ (महाविद्यालय का मुखपत्र, मासिक) का सम्पादन एवं साथ ही अध्ययन कार्य भी किया। सन् 1911 ई. में इन्होंने महाविद्यालय की प्रबंध समिति के मंत्री पद पर भी कार्य किया। इस प्रकार महाविद्यालय की अविरल सेवा करते रहे। इनके संपादकत्व में ‘भारतोदय’ पत्रिका ने खूब ख्याति प्राप्त की। सन् 1927 में इनके पिता जी का देहांत हो गया। इस कारण इन्हें महाविद्यालय छोड़ घर आना पड़ा।

महाविद्यालय छोड़ने के बाद श्रीयुत् शिवप्रसाद गुप्त के अनुरोध पर ये ज्ञान मंडल में गए।सन् 1920 को मुरादाबाद में संयुक्त प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति बने। इसी वर्ष इनकी माता जी का देहान्त हो गया था। सन् 1922 ई. में इन्हें ‘बिहारी सतसई’ पर मंगलाप्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1928 में इन्होंने अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का मुजफ्फरपुर (बिहार) में सभापतित्व किया। इसी वर्ष इन्होंने गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर पद पर भी कार्य किया।

सन् 1911 ई. में ‘पद्मपराग’ और ‘प्रबंध मंजरी’ का प्रकाशन हुआ। एक बार ये संग्रहणी रोग से ग्रस्त हो गए तो इन्हें हरदुआगंज लाया गया, साथ में इनके पुत्र काशीनाथ शर्मा भी थे। जब वहाँ पर चिकित्सा से कोई लाभ न हुआ तो इन्हें मुरादाबाद लाया गया। वहाँ डा.ॅ गंगोली पीयूषपाणी की चिकित्सा करायी गई। किंतु ऐसी अवस्था में भी अविरत रूप से इन्होंने साहित्यिक सेवा की। उस समय भी ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जिसमें ये दस-पंद्रह चिट्ठियाँ अपने मित्रों को न लिखते हों (उस समय सेवा के लिए कवि ‘शंकर’ (पं. नाथूराम शर्मा के पुत्र) इनके पास थे) और इनके पास भी बड़े-बड़े साहित्यकारों की चिट्ठियां रोज आती थीं। उनका उत्तर ये अपनी भाषा में ही दिलवाते थे। डेढ़ मास तक इनकी चिकित्सा चलती रही। कोई लाभ न होने पर इन्होंने महाविद्यालय ज्वालापुर में आने की इच्छा प्रकट की ओर कहा-‘चलो महाविद्यालय चलो; मरना तो है ही, उसी पुण्य भूमि में प्राण त्यागूँगा, गंगा की गोद में।’ अतः स्पष्ट है महाविद्यालय के प्रति उनमें आत्मीयता एवं श्रद्धा का भाव था। उन्हें महाविद्यालय लाया गया; साथ में पं. भीमसेन शर्मा भी थे। उस समय महाविद्यालय में श्री विश्वनाथ मुख्याधिष्ठाता थे। यहाँ आने पर पं. हरिशंकर शर्मा वैद्यराज की पहली पुड़िया से ही इन्हें बहुत लाभ हुआ और ये बीस-बाईस दिन में ही पूर्ण स्वस्थ हो गए।

पं. पद्मसिंह शर्मा को पाँच बातें बहुत पसंद थी- 1. स्वाध्याय,  2. नवीन लेखकों को प्रोत्साहन,  3. साहित्यिकों से मिलना-जुलना,  4. अतिथि सत्कार,  5. मित्रमंडली के साथ यात्रा। वे साहित्यिक यात्रा बहुत करते थे। अपनी मृत्यु से पूर्व भी उनका विचार श्रावण में ब्रज की यात्रा करने का था। उनका कहना था-‘भाई अब की बार श्रावण में ब्रज की यात्रा करनी चाहिए। आगरे के मिश्र भी साथ हों, कलकत्ते से बनारसीदास जी तथा श्रीराम जी को भी बुलाया जाए। किंतु इस साहित्यिक यात्रा से पूर्व ही वे जीवन की अंतिम यात्रा पर निकल पड़े।

कविजी (पं. नाथूराम शर्मा) के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। कवि जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अनुराग रत्न’ लिखी और उसका समर्पण काव्य कानन केसरी पं. पद्मसिंह को ही किया जबकि एक सज्जन उन्हें इसके लिए पाँच हजार रुपए देने को तैयार थे। उन सज्जन के कहने पर उनका कहना था कि-मैं अपना प्रचुर परिश्रम एक कलाविद को ही अर्पण करूँगा और मेरी राय में पं. पद्मसिंह शर्मा इसके लिए सर्वश्रेष्ठ हैं।

हिंदी जगत में ‘भारतोदय’

‘भारतोदय’ का प्रारंभ सन् 1909 ई. (ज्येष्ठ शुक्ल सं. 1966) में हुआ था। इसके संपादक, पद्मसिंह शर्मा और सहायक संपादक पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ थे। इसे पं. शंकरदत्त शर्मा ने अपने प्रेस ‘धर्मदिवाकर प्रेस’ मुरादाबाद में छापा और पं. भीमसेन शर्मा ने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से प्रकाशित किया। इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपए तथा विद्यार्थियों के लिए एक रुपया था। यह गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर का ‘मासिक पत्र’ घोषित किया गया।

पत्रिका के आवरण पर सबसे ऊपर सूचना दी गई थी कि ‘‘अगली संख्या में कविवर ‘शंकर’ की मज़ेदार कविता ‘अंधेर खाता’ छपेगी’’ तत्पश्चात एक आकर्षक बार्डर और फिर ।।ओ3म।। के बाद आकर्षक साज-सज्जा के साथ लिखा गया था ‘भारतोदय’। पत्रिका के शीर्षक के नीचे ध्येय स्पष्ट किया गया था-

‘‘निशम्यतां लेखललाम संचय, प्रकाशने येन कृतोऽतिनिश्चयः।

गृहीतसद्धर्मविशेषसंशय, श्वकास्तिसोयंभुवि ‘भारतोदयः’’।।

‘भारतोदय’ के नियम इस प्रकार बनाए गए -

1. यह पत्र प्रतिमास गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से प्रकाशित होता है।

2. उसका वार्षिक मूल्य सर्वसाधारण से डेढ़ रुपए लिया जाएगा। विद्यार्थियोें को एक रुपया में और महाविद्यालय के सभासदों को मुफ्त, पुस्तकालयों और असमर्थ विद्यारसिकों को डाकव्यय लेकर।

3. पत्र का मुख्य उद्देश्य महाविद्यालय ज्वालापुर को लोकप्रिय बनाना तथा तत्संबंधी समाचारों का प्रकाशित करना होगा।  इसमें धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा संबंधी तथा लोकोपयोगी लेख रहा करेंगे, हिंदी साहित्य का सुधार भी इसका लक्ष्य होगा। किसी मत, जाति या व्यक्ति पर कोई असभ्य, अरुंतुद या कलहात्मक लेख इसमें प्रकाशित न होंगे।

4. बाहर से आये लेखों में काट छांट और न्यूनाधिक करने का पूरा अधिकार संपादक को रहेगा।

5. समालोचना की पुस्तकें, बदले के पत्र, लेख, संपादक के नाम आने चाहिएँ। और पत्र न पहुंचने की सूचनाएं, ग्राहक होने की दरख्वास्तें, मूल्य आदि, प्रकाशक अथवा प्रबंधकर्ता ‘भारतोदय’ के नाम।

6. पत्र में किसी प्रकार के असभ्य और धोखा देनेवाले विज्ञापन नहीं छपेंगे न तकसीम होंगे, ऐसे महाशयों को यह बात ध्यान में रखकर प्रार्थना करनी चाहिए। सब प्रकार का पत्रव्यवहार महाविद्यालय ज्वालापुर जिला सहारनपुर, इस पते पर होना चाहिए।

‘भारतोदय’ के प्रथम अंक के पृष्ठ संख्या 33 पर ‘‘भारतोदय की उदयकथा’’ शीर्षक से भी जानकारी दी गई है-

महाविद्यालय के संबंध में एक पत्र की आवश्यकता का अनुभव करके कमेटी के एक विशेष अधिवेशन में निश्चित हुआ कि विद्यालय की ओर से एक मासिक पत्र निकाला जाय जिसका मुख्य उद्देश्य विद्यालय को लोकप्रिय बनाना और तत्संबंधी समाचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचाकर हितसाधन की चेष्टा तथा तद्र्थ सहाय्य प्राप्ति का उद्योग हो। इसके अतिरिक्त मतसंबंधी वितंडावादों से बचकर धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा विषय पर भी उस में लिखा जाया करे, हिंदी साहित्य की पूर्ति और सुधार भी उस का प्रधान लक्ष्य हो। इत्यादि प्रयोजनों को सामने रखकर ‘भारतोदय’ का उदय हुआ है। जैसा कि पत्रों में सूचना दी गई थी, 1 म (प्रतिपदा), वैशाख से पत्र निकालने का विचार था, परंतु कई अनिवार्य विघ्नों से पत्र प्रतिज्ञात समय पर न निकल सका। जिसकारण अनेक भारतोदयाभिलाषी, सज्जनों ने बड़े उत्कंठा और उत्साह भरे शब्दों में पत्र प्रकाशन के लिए अनुरोध किया और इच्छा प्रकट की जिससे प्रकाशकों का उत्साह द्विगुणित हो गया। पत्र को रोचक और उपयुक्त बनाने का यथाशक्ति प्रयत्न किया जाएगा। प्रसिद्ध विद्वान और कवियों के लेख इसमें रहा करेंगे। बहुत से विद्वानों ने अपनी लेखमालिका द्वारा पत्र को अलंकृत करने का प्रण कर लिया है, जिनमें से दो चार के नाम प्रकाशित किये जाते हैं। यथा-श्रीयुत रावबहादुर मास्टर आत्मारामजी। श्रीमान् कविवर पण्डित नाथूराम शंकर शर्मा। श्रीयुक्त प्रोफेसर पूर्ण सिंहजी इंपीरियल फारेस्ट केमिस्ट। श्री बा.गंगा प्रसाद जी बी.ए., श्री बा. आशाराम जी बी.ए., श्री पं. रामनारायण मिश्र बी.ए., श्री पं. रामचन्द्र शर्मा इंजीनियर, वैद्यराज श्रीकल्याण सिंह जी, श्रीस्वामी मंगलदेव जी संन्यासी, इत्यादि।

पत्र का मूल्य बहुत ही कम। नाममात्र डेढ़ रुपए रखा गया है, इस पर विद्यार्थियों को एक में ही दिया जायगा, और विद्यालय कमेटी के मेम्बर मुफ्त पावेंगे। ऐसी दशा में ‘भारतोदयाभिलाषी’ महाशयों का कर्तव्य है कि वे स्वयं इसके ग्राहक बनें और दूसरों को बनावें, जिन सज्जनों के यहाँ अतिथि के रूप में ‘‘भारतोदय’’ पहुँचे, आशा है कि वे अपनी आतिथेयता का परिचय देंगे और इसे विमुख और निराश न लौटाएंगे क्योंकि:-

 ‘‘अतिथिर्यस्य भग्नाशो, गृहात्प्रतिनिवर्तते।

 स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा, पुण्यमादाय गच्छति।।’’

भारतोदय का विषयवार अनुक्रम इस प्रकार था-

1. वेदमन्त्रार्थप्रकाश.........कृवेदतीर्थ                                                                 1

2. भारतोदय (कविता)......श्री पं. नाथूराम शंकर शर्मा                                         4

3. सुखवाद.........श्री मास्टर गंगाप्रसाद बी.ए.                                                     9

4. महिलामंडल.........एक ब्राह्मण                                                                   14

5. भ्रातृभाव......सहायक संपादक                                                                     18

6. प्रकृतिस्तवः (संस्कृत कविता) ...... श्री पं. भीमसेन शर्मा                               21

7. मेसमेरिज़्म और संध्या...... रा.ब.मा. आतमाराम जी                                    22

8. महाविद्यालय समारंभ.........                                                                     25

9. म.वि. समाचार, लोकवृत्त इत्यादि............                                                  34

लोकवृत्त के अंतर्गत जो समाचार प्रथम अंक में प्रकाशित किएगए थे, उनमें- ’देशभक्त.. श्री अरविंद घोष, कवि अध्यापक और बैरिस्टर (प्रो. इक़बाल संबंधी), अमीर की उदारता (अमीर काबुल के प्राणहरण की साज़िश संबंधी समाचार), फ़ारस और टर्की (दोनों राज्यों में खूनखराबी के बाद शांति संबंधी समाचार), जल प्रलय (दक्षिण में 7-8 मई को 48 घंटे के अंदर 23 इंच पानी की बरसात से आई जलप्रलय संबंधी समाचार हैदराबाद से प्राप्त हुआ था), सिंहल द्वीप (सिलोन) में विश्वविद्यालय स्थापना का समाचार आदि समाचारों के अतिरिक्त अनेक समाचार भी प्रकाशित किए जाते थे।

-ता. 11 मई की अमृत बाज़ार पत्रिका में किसी मुम्बई के व्यापारी महोदय के टाइम्स आफ इंडिया में लिखे हुए लेख का सारांश छपा है। उससे ज्ञात होता है कि अहर्निश स्वदेशी माल की ओर व्यापारियों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। यह ज्ञात हुआ है कि पूर्व वर्ष की अपेक्षा मुम्बई में डेढ़ लक्ष कपास के गट्ठे अधिक आए। जापान ने 290000 गट्ठे मँगाए। इससे बढ़कर स्वदेशी की कृतकार्यता का क्या प्रमाण होगा कि 12 वर्ष पूर्व स्वदेशी माल पर टैक्स द्वारा ग्यारह लाख प्राप्त हुए थे। आज उसी पर सरकारी आय 33 लक्ष हो गई है।

- अमेरिका में बिनौलों से घी बनाने के पचासों कारखाने हैं। अब समाचार पत्रों में चर्चा है कि बम्बई में भी ऐसा कारखाना खुलने वाला है। (आशा है दुग्धद्रोही ला. देवीदास जी आर्य यह सुनकर बहुत खुश होंगे)। भारतवर्ष का करोड़ों मन घी परदेश चला जाता है। अब वह दिन आने वाला है जब बिनौलों का घी मिलेगा, अमेरिका वालों की खूब बनेगी। स्वदेशी के प्रेमी उद्योग करें कि भारत का घी भारत ही में रहे। परमात्मा इस नवीन घृत से बचावे।।

- पाश्चात्य विद्वानों के बुद्धिवैशद्य को देखकर आह्लाद हुए बिना नहीं रहता, पेरिस में प्रसिद्ध अनुभवी ज्योतिशास्त्र विशारदों की एक सभा होने वाली है जिसमें आकाश के प्रत्येक भाग का चित्र खींचा जावेगा। आकाश के 22054 विभाग किए गए हैं। प्रत्येक भाग का पृथक् पृथक् चित्र रहेगा, तारे, उनकी गति व उनका स्थिति स्थान आदि का भी अद्भुत दृश्य रहेगा। ग्रीनिच की वेधशाला की ओर से इसी विषय पर दो अद्भुत ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं जिनमें 19000 तारों का सचित्र वर्णन है। इस विषय में अन्वेषण करने के लिए अन्य वेधशालाएं भी यत्न कर रही हैं।

- एक ज्योतिर्विद् का कथन है कि ये इतने असंख्य तारागण क्यों बनाए गए। हमारे प्रकाश के लिए तो इन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जितना चंद्रमा है उससे वह कुछ और बड़ा हो तो रात्रि का काम और भी अच्छा चल सकता है। हमको वृथा संदेह में डालने के लिए कहें, तो ईश्वर का इस में क्या प्रयोजन है। इससे विदिता होता है कि तारे भी सूर्यवत् स्वतंत्र प्रकाश के गोलक हैं। और न जाने क्या क्या है।

- मिलौनी नामक विद्वान् का कथन है कि चंद्रमा की किरणों में भी उष्णता का कुछ अंश होता है। वेनिस, ल्फोरेन्स व पदना के वनस्पतिगृह में कई विद्वान ने इस विषय में बहुत कुछ अनुभव करके देखा है (कहीं यह विद्वान शकुंतला के दुष्यंत तो नहीं! उन्होंने भी चंद्रमा से अग्नि झड़ते देखी थी)

- रंगून के समाचार से विदित होता है दो जर्मन विद्वान पथिक मेकांग नदी के स्रोत की खोज लगाने के लिए जा रहे थे, मार्ग में किसी दुष्ट ने उनको मार दिया। वस्तुतः पाश्चात्य विद्वान ‘‘नाह्मस्मीति साहसम्’’ इस तत्व पर चलने वाले हैं। इसीलिए प्रत्येक कार्य में ऋद्धि व सिद्धि इनके सन्मुख हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं। इन दो महानुभावों का नाम ब्रनहेबर व हरस्क्मिट्ज है। ‘‘लिखे जब तक जिए सफरनामे, चल दिए हाथ में कलम थामे।’’

- मिस्टर एफ़. ड्यूक चीफ सेक्रेटरी बंगाल गवर्मेन्ट ने एक प्रसिद्ध पत्रक निकाला है जिसमें पुलिस को दंगे फिसाद के मौके पर बंदूकें कैसी दाग़नी चाहिए और फिसादी लोगों पर रोब डालने के लिये क्या करना चाहिए इसका वर्णन किया है। अब तक सिर्फ डराने के लिए खाली बंदूकें छोड़ी जाती थीं अब सचमुच भरी हुई छोड़ी जावेंगे।

- लोकमान्य श्रीयुत तिलक भगवद्गीता पर कुछ लिख रहे हैं। गीता के भाग्य खुले। देखें यह महापुरुष गीता पर क्या लिखते हैं। आपके दो सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘‘द आर्कटिकहोम इन द वेदाज़’’(1903), ‘ओरिअन’(1893) देखने योग्य हैं-अगाध पांडित्य का प्रमाण हैं। आपका गीता भाष्य भी उज्ज्वल गुणों से उज्ज्वल होगा।

- बड़ोदा राज्य में प्राथमिक शिक्षा बिना शुल्कादि लिए ही दी जाती है। भारतवर्ष में यह एक ही स्टेट है जहाँ यह प्रबंध हुआ है। इस विषय में सरकार सोचते ही सोचते रह गई। आज तक कुछ न कर सकी बड़ौदा महाराज ने इस प्रथा का प्रारंभ ही कर डाला।

आर्य ‘सामाजिक समाचार’ भी अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित किए गए-

- गुरुकुल महाविद्यालय के उत्सव से लौटते हुए पं. गणपति शर्मा जी ने दो व्याख्यान सहारनपुर में अत्यंत प्रभावशाली दिए। फिर वहाँ से दिल्ली पहुँचे, और वहाँ एक सप्ताह व्याख्यानों की धूम मचा दी, दिल्ली वासियों पर उनका बहुत प्रभाव पड़ा।

- अप्रैल में गुरुकुल गुुजरांवाला का वार्षिकोत्सव बड़ी रौनक से हुआ। धर्मचर्चा में भिन्न भिन्न मतवादी सम्मिलित हुए थे, अच्छा आनंद रहा, म.वि. से श्री पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ भी पधारे थे। गुरुकुल गुजरांवाला में इस समय 57 ब्रह्मचारी प्रविष्ट हैं। 3200 के करीब धन एकत्र हुआ। श्रीमान ला. रलारामजी का पुरुषार्थ प्रशंसनीय है।

- उसके पीछे आर्य समाज गुजरात (पंजाब) का उत्सव भी सानंद समाप्त हुआ। हमारे मुख्याधिष्ठाता श्री पं. नरदेव जी वहाँ भी पधारे थे।

- 28.05.09 से 1-6 तक दिल्ली सदर आर्य समाज का उत्सव बड़े समारोह से होगा, 3 दिन धर्मचर्चा के लिए रक्खे हैं। उस पर श्री पं. गणपति शर्मा जी, श्री पं. भीमसेन जी और श्री पं. नरदेव जी शास्त्री आदि अनेक विद्वान पधारेंगे।

अंत में ‘निवेदन’ किया गया

जिन सज्जनों ने ‘भारतोदय’ में समालोचना के लिए पुस्तकें भेजी हैं उनसे प्रार्थना है कि अगली संख्या में समालोचना निकलेगी, तब तक संतोष रखें। जिन सहयोगियों की सेवा में ‘भारतोदय’ पहुँचे, उनसे विनय है कि इसके बदले में अपने अमूल्य पत्र भेजकर अनुगृहीत करें। ‘भारतोदय’ को प्रथम अंक के बाद रजिस्ट्रेशन नं. । 476 प्राप्त हो गया। अगले अंक में यह नंबर प्रकाशित किया गया।

‘भारतोदय’का संघर्ष 

‘भारतोदय’ सा.प.(साप्ताहिक प्रकाशन) वर्ष 1 पुनर्जन्म में प्रकाशित इस लेख से पता चलता है-भारतोदय-इस नाम में कितनी जादू भरी है, यह नाम चित्त को जितना आह्लाद् देता है, इस नाम से रह रहकर जिन जिन बातों की याद आती है और याद कर कर जिस तरह जी भर आता है वह सब अनुभव करने की बातें हैं और प्रत्येक भारतवासी स्वयं अनुभव कर ही रहा है। शब्दों से मानसिक स्थिति का घणान अशक्य है। पर भारतोदय शब्द के अर्थ को प्राप्त करने के मार्ग में जो विकट घाटियाँ हैं उनको पार करते करते कभी कभी जो निराशा छा जाती है, वह भी अवर्णनीय है। पर सच्चे यात्री को यह निराशा स्वल्पकाल तक ही घेर सकती है। जिसकी दृष्टि उद्दिष्ट स्थल पर लगी हुई है वह कब कठिनाइयों की परवाह करता है? वह कब चैन लेता है? वह अपनों की हँसी मज़ाक भी सहता है, दूसरों की मनमानी भी सहता है, और पार हो ही जाता है। जब घाटी पर चढ़कर नीचे देखने लगता है तब पहले हँसने वाले लज्जा के मारे अपनी गर्दन झुका कर खड़े रहते हैं। ऐसे वीर पुंगव का आदर करने लगते हैं, उसके पीछे चलना सीखते हैं। जो दशा असली भारतोदय के सम्मुख है वही दशा कागज़ी भारतोदय के सम्मुख है। यह किस प्रकार मासिक रूप में निकला, फिर साप्ताहिक हुआ, फिर कटारपुर के दंगल के समय घबराकर पूर्व प्रकाशक ने किस प्रकार बिना सूचना दिए ही घर बैठे डिक्लेरेशन ख़ारिज कराया, किस प्रकार अनेक विपत्तियों से महाविद्यालय की व संचालकों की जान बची, किस प्रकार फिर उद्योग हुआ और प्रथम बार 1000 रुपए की व द्वितीयवार 2000 की जमानत माँगी गई। इन सब बातों के लिखने की आवश्यकता नहीं। हम चाहते, तो भारत भर में इस बात का हल्ला मचा देते पर महाविद्यालय के संचालक चुपचाप काम करना ही अधिक पसंद करते रहे इस विश्वास पर कि कभी तो इन कठिनाइयों का अंत होगा। सुदीर्घ परिश्रम के पश्चात् अब कहीं जाकर मुरादाबाद के कलेक्टर ने बिना जमानत ‘‘भारतोदय’’ के प्रकाशन की आज्ञा दी है और इसीलिए अब यह आपकी सेवा में फिर पहुँच रहा है। इसको अपनाइए, इसको पुचकारिए, इसकी सहायता कीजिए, इसका उत्साह बढ़ाइए। इसकी अनुपस्थिति में महाविद्यालयों में भी युगांतर उपस्थित हो गया था। उस युगांतर की राम कहानी लिखने का यह प्रसंग नहीं है। उनको याद कर जी भर आता है। जिन्होंने भुगता वही जान सकते हैं कि युगांतर था, कि बला थी, महाविद्यालय के जीवन का प्रश्न था, कि मरण का। भगवान की कृपा से युगांतर आया व गया। बलाएं आईं और गईं आगे की राम जाने। अब तक राम जी ने ही रक्षा की है। ‘चढ़ जा राम भली करेंगे’-यही तत्व संचालकों के सम्मुख है। भारतोदय की पुरानी नीति उस समय की उन उन परस्थितियों के कारण ‘स्वात्म-रक्षा’ थी। क्योंकि चहुँ ओर की मारधाड़ और जटिल तथा क्रूर संघटनों में उस नीति के बिना ‘महाविद्यालय’ की रक्षा होना असंभव था। अब समय बदल गया, शत्रु तथा मित्रों के दृष्टिकोण भी बदल गए, इसलिए भारतोदय में आगे बेहूदा खंडन-मंडन को स्थान न मिलेगा। रागद्वेषात्मक लेख रद्दी की टोकरियों में फेंक दिए जाएंगे। समय की गति के अनुसार जिससे भी भारतोदय होगा उन सब कार्यों में सहायक होना भारतोदय की नीति रहेगी। प्रमुख भाग निःशुल्क प्राचीन शिक्षा का रहेगा।

कुल मिलाकर ‘भारतोदय’ का प्रारंभ हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत में महत्वपूर्ण घटना है। पत्रिका में हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी शब्दों से कोई परहेज नहीं रखा गया है, न ही पत्रिका के पाठक को।

संदर्भ

1. भारतोदय का प्रथम अंक

2. भारतोदय साप्ताहिक का पुनर्जन्मांक

3. गुरुकुल महाविद्यालय की स्मारिका (हीरक जयंती)

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘धूप के अक्षर’ का लोकार्पण

हैदराबाद,  दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (उच्च शिक्षा और शोध संस्थान) तथा ‘साहित्य मंथन’ के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 4 जुलाई (सोमवार) को द...