श्री युगलकिशोर शुक्ल हिंदी के ‘आदिसंपादक’ थे और उनके द्वारा संपादित ‘उदंत मार्तंड’ हिंदी का पहला साप्ताहिक पत्र था। हिंदी-पत्रकारिता के इतिहास में शुक्लजी और उनके ‘उदंत मार्तंड’ का नाम अपना सर्वथा विशिष्ट महत्व रखता है। इसके प्रकाशन के समय श्री श्यामसुंदर सेन द्वारा संपादित प्रसिद्ध वैभाषिक दैनिक पत्र ‘समाचार सुधा वर्षण’ के 17 जून, 1826 के अंक में जो सूचना ‘नागरी का समाचार पत्र’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी, उससे हमारे इस कथन की पुष्टि होती है। वह सूचना इस प्रकार थी-‘‘ हाल में इस कलकत्ता नगर से ‘उदंत मार्तंड’ नामक एक नागरी का नूतन समाचार पत्र प्रकाशित हुआ है, इससे हमारे अहल्लाउद की सीमा नहीं है। क्योकि समाचार पत्र द्वारा दूसरा संपत्ति संबंधीय और नाना दिशाओं के देशो के राजसंपर्कीय वृतांत प्रकाशित हुआ करते है, जिनके जानने से अवश्य ही उपकार होता है।’’ इस पत्र का पहला अंक 30 मई, सन् 1826 को प्रकाशित हुआ था और इसका प्रकाशन श्री शुक्ल ने ‘हिंदुस्तानियों के हित हेतु’ अपने ही प्रयास से सर्वदा साधनहीन अवस्था में अकेले ही किया था। इस पत्र पर जो हिंदी-पद्य छपा करते थे, वे इस प्रकार होते थे।
दिनकर कर प्रगटत, ‘दिनहि’ यह प्रकाश अठयाम।
ऐसी रवि अब उग्यो नहिं, जोहि तेहि सुख को धाम।।
उत कमलनि विगसित करत, बढ़त चाव चित वाम।
लेत नाम या पत्र को, होत हर्ष अरू काम।।
अपने उद्ेश्यों पर प्रकाश डालते हुए, शुक्ल जी ने जो भाव इस पत्र के प्रथम अंक के संपादकीय लेख में प्रकट किये थे, उनसे यह भलीभाॅति विदित हो जाता है कि उनके मन में अंगेजों की कूटनीति और अंगे्रजी भाषा के बढ़ते हुए प्रभाव के प्रति कितनी गहन पीड़ा थी। यद्यपि आप कलकत्ता की दीवानी कचहरी में ‘प्रोसीडिंग रीडर’ थे, परंतु आपके मन में अंग्रेजों के बढ़ते हुए अत्याचारों के प्रति गहन असंतोष बढ़ता जा रहा था। अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण श्री शुक्ल ने ‘उदंत मार्तंड’ अब पहले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अंगे्रजी जो पारसी ओ ओ पढ़ने वालों को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ और समझ लेवें जो पराई अपेक्षा न करें जो अपने भाषे की उपज न छोड़े। इसलिए बड़े दयावान करूणा ओ गुणनि के निधान सबके कल्याण के विषय गवर्नर जनरल की आयत से ऐसे साइत में चित्त लगायके एक प्रकार से यह नया ठाठ ठाठा। जो कोई प्रशस्त लोग इस खबर के कागज के लेने की इच्छा करें अपना नाम ओ ठिकाना भेजने से ही सतवारे के सतवारे यहां के रहने वाले घर बैठे और बाहर के रहने वाले डाकघर पर कागज पाया करेंगे।’’
शुक्ल जी की उक्त घोषणा से उनके उत्कट हिंदी-प्रेम का परिचय मिलता है। आप कई भाषाओं के जानकार थे और भाषा, नाम तथा व्याकरण आदि के बारे में समसामयिक बंगला पत्रों से भी टक्कर लिया करते थे। ‘उदंत मार्तंड’ का वार्षिक शुल्क उस समय केवल दो रूपया था। उसमें प्रकाशित खबरों तथा अन्य सामग्री को देखने से यह भली-भाँति विदित हो जाता है कि उन दिनों हिंदी-पत्रकारिता की नीव संघर्ष, त्याग, बलिदान और निर्भीकता पर रखी गयी थी। उसमें देशी-विदेशी तथा स्थानीय समाचारों के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्य आदि की टिप्पणियां एंव लेख भी प्रकाशित हुआ करते थे। साथ ही उसमें सरकारी अफसरों की नियुक्ति, पाक्षिक इश्तहार, जहाजों के आने-जाने का समय और कलकत्ता के बाजार-भाव भी रहा करते थे। कभी-कभी इस पत्र में ‘जोधपुर की खबर’ ‘भरतपुर की खबर’ लाहौरपति महाराज रंजीत सिंह की खबर’ भी छपा करती थी। इस पत्र के नियमित रूप से प्रकाशित करते रहने के लिए शुक्ल जी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। बहुत प्रयास करने पर भी जब इसकी ग्राहक संख्या में वृद्धि नहीं हुई तो उन्होंने ‘उदंत मार्तंड’ के एक संपादकीय में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये थे-‘‘शूद्र चाकरी आदि नीच काम करते है, और वैश्य अक्षर समूह सीखकर बही-खाता करते है, खत्री बजाजि आदि करते है, पढ़ते-लिखते नहीं, और ब्राह्मणों ने तो कलियुगी ब्राह्मण बनकर पठन-पाठन को तिलांजलि दे रखी है, फिर हिंदी का समाचार पत्र कौन पढ़े और खरीदे?’’
श्री शुक्लजी को यह पूर्ण विश्वास था कि उनके इस पत्र को सरकार तथा जनता का पूर्ण समर्थन और सहयोग प्राप्त होगा और यह निर्विघ्न चलता रहेगा, किंतु उनकी यह आशा पूर्ण नहीं हुई। परिणाम-स्वरूप अपने सीमित साधनों और स्वल्प सी पूंजी के बल पर लगभग डेढ़ वर्ष तक इसे निकालकर उसके 4 दिसंबर 1827 के अंक में ‘मार्तण्ड’ के अस्त होने की सूचना उन्होंने इस प्रकार हासिल कर दी।
आज दिवस लौ उगि चुक्यों मार्तण्ड उदन्त।
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त।।
‘उदंत मार्तंड’ को बंद कर देने के बाद जब-तब श्री शुक्ल के हृदय में छिपी हुई पत्रकारिता की भावना और जोर मारती रहती थी। परिणामस्वरूप वे चुप नहीं बैठे और उन्होंने फिर कुछ पैसा इकट्ठा करके सन् 1850 में ‘साम्यदंत मार्तंड’ नामक एक और पत्र प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। यह शुक्ल जी की जीवन्त पत्रकारिता का उज्ज्वल प्रतीक था। इससे उनकी अदम्य इच्छा-शक्ति तथा उत्कृष्ट उत्साह का परिचय मिलता है। किंतु दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा और पूँजी के अभाव में लगभग 2 वर्ष चलाकर इसे भी बंद कर देना पड़ा। यह शुक्ल जी जैसे कर्मठ व्यक्तित्व का ही साहस था कि बिना किसी प्रकार की शासकीय सहायता के इतने दिन तक उन्होंने उसे प्रकाशित करते रहने का उपक्रम रचा। क्योंकि उन दिनों कलकत्ता से फारसी में ‘जामे जहानुमा’ और बंगला में ‘समाचार दर्पण’ नामक जो पत्र प्रकाशित होते थे, उन्हें सरकार आर्थिक सहायता देती थी। यदि शुक्ल चाहते तो वे भी सरकार से सहायता लेकर अपने पत्र को सरलता से निर्विघ्न चला सकते थे, किंतु उनके स्वाभिमानी स्वभाव को ब्रिटिश नौकरशाह के सामने झुकना कदापि स्वीकार्य नहीं था। उनको जहाँ हिंदी वालों के लिए बंगला के पत्रों से जूझना पड़ा था, वहाँ हिंदी-हित कामना से प्रेरित होकर अकेले ही मारवाड़ी व्यवसायियांे और बंगालियों की समस्याओं का समाधान भी खोजना पड़ता था। आपने अकेले दम हिंदी-पत्रकारिता के उस द्वार का उद्घाटन किया था जिसके अक्षय आलोक में हिंदी-पत्रकारों की वह पीढ़ी तैयार हुई जिसने शासन की घनघोर उपेक्षाओं और अनेक प्रतिबंधों के होते हुए थी अपना पथ प्रशस्त किया है। आपका जन्म सन् 1788 में कानपुर में और निधन 1853 में कलकत्ता में हुआ था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें