उत्तर प्रदेश में बनते दिख रहे नए राजनीतिक समीकरण/सौमिक दुबे



उत्तर प्रदेश देश की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला एवं जनाकांक्षाओं का प्रदेश है। इस प्रदेश की एक सबसे बड़ी यह खासियत है कि यहां लोग जैसे सर आँखों पर बैठा सत्ता के शिखर पर पहुंचाते हैं वह जनआक्रोश में आकर सत्ता से बेदखल भी कर देते हैं। ऐसा मैं नहीं बल्कि सूबे का राजनीतिक इतिहास कह रहा, पिछले 20-25 वर्षों में नज़र डालें तो यहां कोई भी सरकार दुबारा रिपीट नहीं हुई है वापसी के लिए उन्हें लम्बा बनवास काटना पड़ा है।


इन सरकारों की वापसी न करने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण वजह भूमिहार और ब्राह्मणों का नाराज होना रहा है, 2005 में समाजवादी पार्टी की सरकार इन्हीं जातियों के बैसाखी के सहारे चल रही थी लेकिन तत्कालीन भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या ने इन जातियों का समाजवादी पार्टी से मोह भंग कर दिया फिर यह दोनों जातियां बसपा के साथ 2007 के चुनाव में नज़र आईं और बसपा ने शुरू में बकायदा सम्मान भी दिया लेकिन बामसेफ के लोगों के और बसपा के मुखिया के तानाशाही के चलते इन जातियों ने उस समय विकल्प के तौर पर सपा को चुना और समाजवादी पार्टी ने 1 दर्जन से भी अधिक भूमिहारों और ब्राह्मणों को मन्त्री बनाया।


लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के तरफ अत्यधिक झुकाव तथा सत्ता में एक जाति की अत्यधिक दख़ल के चलते यह लोग 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ खड़े नज़र आये और भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। वर्तमान समय में भाजपा से 7 भूमिहार एवं 58 ब्राह्मण विधायक हैं लेकिन यह जातियां इस सरकार में भी उपेक्षित नज़र आ रहीं हैं।


उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा क्षेत्रों में से कोई एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां इन जातियों का प्रभाव नहीं है, अकेले भूमिहार (त्यागी) जाति के मतदाता ही सूबे की तक़रीबन 126 विधानसभा क्षेत्रों में हराने तथा जिताने की क्षमता में हैं।

उत्तर प्रदेश का अगर जातिगत समीकरण देखा जाए तो दलित वर्ग के बाद सूबे में सर्वाधिक ब्राह्मण हैं जो तक़रीबन 15•8 फीसद एवं अगर इसमें 3•87 फीसद भूमिहार मतों को जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 20 फीसद के आस पास पहुँच जाता है तो की किसी की सरकार बनाने तथा गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए पर्याप्त है।



उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक वह दौर हुआ करता था जब 100-125 से ज्यादा भूमिहार ब्राह्मण विधायक हुआ करते थे, मात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही 17 से 18 भूमिहार विधायक बना करते थे एवं उत्तर प्रदेश में एक ही साथ 3-3 भूमिहार सांसद हुआ करते थे लेकिन बदलते वक्त के साथ राजनैतिक दलों ने इन जातियों से जनसहयोग, धनसहयोग एवं वोट तो ख़ूब लिया लेकिन बदले में जो मान सम्मान वापस देना चाहिए वह नहीं दिया।



वर्तमान समय में देश एवं प्रदेश में सर्वाधिक शोषित तथा पीड़ित कोई जाति है तो वह भूमिहार एवं ब्राह्मण हैं क्योंकि इन जातियों को न तो आरक्षण का लाभ मिला और न ही इन जातियों को इनकी जाति के नेताओं, अधिकारियों ने आर्थिक तौर पर सबल किया। वर्तमान समय में इस जाति के 60 फीसद से ज्यादे लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं एवं वर्तमान व्यवस्था को कोस रहे हैं।


अगर बात उत्तर प्रदेश की हो तो यहां पिछले कई सालों से ब्राह्मण और भूमिहार राजनैतिक एवं आर्थिक रूप से हाशिये पर जाते नज़र आ रहे हैं। किसी जमाने में कई बार ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे और हर बार कई दर्जन भूमिहार विधायक एवं मंत्री रहे। आज की स्थिति यह है कि ब्राह्मण और भूमिहार बहुल सीटों पर भी अन्य जाति के लोग चुनाव लड़ और जीत रहे हैं। उसी प्रकार नेतृत्व में भी इन दोनों जातियों की उपेच्छा होती देखी जा रही है, इतना ही नहीं बल्कि इनके साथ शारीरिक अपराध एवं अन्य अत्याचार की घटनाएँ भी रोज़ ब रोज़ हो रही हैं। सर्व विदित है कि सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्याएँ हाल में हुई हैं, इन जाति के अधिकारियों पर भी अन्याय और अत्याचार हुए हैं। ब्राह्मणों का कहना है कि इन घटनाओं एवं दुराचारों के पीछे शासन की शह और एक जाति विशेष का आक्रामक रवैया है। इस बात में काफ़ी तथ्य है ऐसा निष्पक्ष लोगों के द्वारा भी बताया जा रहा है।  


एके शर्मा के राजनीतिक रूप से सक्रिय होने से भूमिहार तथा ब्राह्मण वर्ग को एक उम्मीद की आस दिखी थी लेकिन सरकार में उनको सम्मान न मिलने से यह वर्ग बेहद नाराज़ है तथा इस वर्ग की नाराज़गी सरकार को भारी पड़ सकती है।


ब्राह्मण यह भी कहते हैं कि विभिन्न पार्टियों ने उनका सिर्फ़ उपयोग किया। किसी ने कुछ दिया नहीं, भूमिहार उससे भी ज़्यादा नाराज़ हैं क्योंकि भूमिहारों का कहना है कि एक बार उन्हें मनोज सिन्हा के नाम पर अपमानित किया गया और अब अरविन्द शर्मा के नाम पर अपमानित किया जा रहा। भूमिहारों का कहना है कि हम न तो अपराधी हैं और न ही ठेकेदार हैं इसलिए हमें सत्ता के संरक्षण की कतई जरूरत नहीं है लेकिन ऐसे ही हमारे जाति के नेताओं का अपमान हुआ तो हम भी तख्ता पलट करना जानते हैं।

भूमिहार खेती के आधार पर स्वयं सक्षम है इसलिए सरकार से उनकी सीधी उमीदें कम हैं लेकिन सम्मान की भूख तो है ही। ये दोनों जातियाँ यह भी कह रही हैं कि पिछले दो-तीन दशकों में उनकी नेतागीरी कमजोर रही है। इसलिए नए नेता की तलाश थी जो ए के शर्मा के आने से सफल हो गयी लेकिन उनका यह अफ़सोस है कि उनकी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद अभी तक वो लोग विभाजनकारी राजनीति का शिकार होते रहे हैं। 


ब्राह्मण कहते हैं कि सन् 2016 में तत्कालीन मुख्य सचिव उत्तर प्रदेश सरकार श्री आलोक रंजन की अध्यक्षता में राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश में एक आंतरिक शासकीय सर्वे करवाया था जिसको सार्वजनिक नहीं किया गया। लेकिन 2017 विधानसभा चुनाव इसी गणना के आँकड़ों का उपयोग करके लड़े गए। उसी समय अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय  अध्यक्ष द्वारा 75 जिलों के ब्लॉक एवं गांव में निवास करने वाले ब्राह्मण समाज की सूची तत्कालीन सरकार से माँगी गयी थी। 


उस सर्वे में  यह पाया गया कि ब्राह्मण समाज विभिन्न क्षेत्रों में प्रजाति और गोत्र के अनुसार विभाजित है। जो कि मुख्य रूप से शुक्ला, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, दुबे, तिवारी, पांडेय, चौबे, उपाध्याय, पाठक,  मिश्रा, शास्त्री, विद्यार्थी, शर्मा, शांडिल्य, भारद्वाज, वशिष्ठ, पराशर, व्यास, भूमिहार-ब्राह्मण, बंदोपाध्याय,चटर्जी, बनर्जी चक्रवर्ती, खत्री और खन्ना आदि में विभाजित हैं ।ब्राह्मणों में तमाम उपजातियां भी शामिल हैं जिसमें भट्ट ,गिरी, (गोसाई ), गौड़ और मृत्यु उपरांत कर्मकांड कराने वाले ब्राह्मण ( महापात्र) इत्यादि शामिल हैं। कुछ प्रजातीयों का भौगोलिक वर्गीकरण भी है। जैसे शाक्ल्यदीपी, सरयूपारी, कान्यकुब्ज। कुछ क्षेत्रों में लिखे जाने  वाले  सनाढ्य, पचौरी जैसे उपनाम, गोत्र और प्रवर भी ब्राह्मण समुदाय में शामिल हैं ।


इनमें 3•87 % भूमिहार (ब्राह्मण) भी है जिनमें त्यागी, राय, शाही, पांडेय, मिश्रा, तिवारी, द्विवेदी, कुमार, वत्स, भारद्वाज, शर्मा एवं सिंह आदि लिखने वाले लोग हैं लेकिन भूमिहारों के अत्यधिक उपनाम होने की वजह से कोई इस जाति का सटीक आकलन नहीं कर पाता। ब्राह्मण एवं भूमिहार की उत्पत्ति एवं संस्कार एक हैं। परशुराम भगवान दोनों के आराध्य हैं, इन दोनों में कभी कोई मतभेद नहीं रहा। कोई कारण नहीं होते हुए भी कई बार इनका राजनैतिक दृष्टिकोण अलग रहा है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए अब इन दोनों जातियों ने एक साथ रहने का मन बना लिया है। 


इस पुख़्ता तथ्यों के आधार पर इन दोनों जातियों ने अब ध्रुवीकरण की साझा रणनीति अपनायी है। उन्होंने संगठित होकर पुराने तथ्यों पर आधारित एक गणना की है। इस आधार पर जो तथ्य उभरकर सामने आए उसमें यह प्रमाणित हो रहा है कि उत्तर प्रदेश के कुल मतदाताओं का 15•8 प्रतिशत यानी 16 प्रतिशत या उससे से भी अधिक ब्राह्मण और 3•87 प्रतिशत भूमिहार मतदाता हैं। इस प्रकार किसी एक ख़ास जाति या वर्ग की बात की जाए तो अनुसूचित जाति के बाद सबसे बड़ा वर्ग ब्राह्मण-भूमिहार का है। 


सर्वे का मुख्य आधार जिलों और तहसीलों में उपस्थित चुनाव हेतु जनगणना एवं पल्स पोलियो अभियान के तहत पारिवारिक विवरण एवं अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के सर्वे को तथा 2016 में  उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या प्रतिशत को आधार माना गया जिसके आधार पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश , बुंदेलखंड में ब्राह्मणों की संख्या कम तथा अवध प्रांत एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण जनसंख्या घनत्व अधिक पाया गया, पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो

भूमिहार ब्राह्मणों का प्रतिशत 23-24 तक जाता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में वही पार्टी जीतती है और उसी पार्टी की सरकार होती है जिसको भूमिहार ब्राह्मण वर्ग का समर्थन हो, जैसे पहले कांग्रेस फिर बसपा, सपा और वर्तमान में भाजपा। 


इस प्रकार प्रदेश की लगभग पाँचवां हिस्सा ब्राह्मण है। इनमें 30% परास्नातक, 20% स्नातक 10% इंटरमीडिएट एवं 20% हाई स्कूल पास तथा साक्षर हैं परंतु 30% ब्राह्मण-भूमिहार भूमिहीन, निर्धन एवं गरीब हैं। उनका जीवन स्तर दलितों से भी बदतर है। 


इन जातियों में एक ख़ासियत यह है कि सभी समाज के लोग इनको प्रेम करते हैं तथा सबकी मदद के लिए सदैव तैयार रहते हैं, वैमनस्य इनके स्वभाव में नही है। इसी जाति से ताल्लुक रखने वाले नेता ए के शर्मा का स्पष्ट रुप से एक ही मूल मंत्र है - सबका साथ सबका विकास। इसलिए ब्राह्मण-भूमिहार के साथ वो अन्य जातियों के लिए भी आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। विशेष रूप से अनुसूचित जातियों के उपरांत अति पिछड़ी जातियों जैसे कि निषाद, गोड़, कुर्मी, मौर्य एवं राजभर नेताओं से उनके निकट के व्यक्तिगत सम्बंध विकसित हो गए हैं। सनातन संस्कृति एवं पूजा पद्धति में पूर्ण डूबे हुए होने के साथ साथ उनके स्वभाव में कमजोर वर्गों के प्रति संवेदनशीलता देखने को मिलती है।  


अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका कितना लाभ भाजपा ले पाती है क्योंकि ब्राह्मण और भूमिहार वर्ग को एके शर्मा के जरिये अपना मान सम्मान बचता दिख रहा है, इन वर्ग के लोगों का कहना है कि अबतक बहुत पिछलग्गू की भूमिका में रह लिए लेकिन अब हमें ऐसा नेता चाहिए जो हमारे मान सम्मान के लिए खड़ा हो सके।


सौमिक दुबे

स्वतन्त्र विचारक

यह तो होना ही था ! विधानसभा चुनाव के सेमीफाइनल में भाजपा का लहराया परचम / अशोक मधुप


चुनाव शुरू होने से ही कुछ लोग इसे राजनैतिक रंग देने में लगे थे। वे इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे। भाकियू के दिल्ली बार्डर पर चल रहे आंदोलन के मद्देनजर कुछ विश्लेषकों का कहना था कि इस चुनाव में भाजपा को भाकियू की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा।

उत्तर प्रदेश में बहु प्रतिक्षित जिला पंचायत चुनाव संपन्न हो गया। हर बार की तरह इस चुनाव में सत्ता बल और धनबल विजयी रहा। सिद्धांत और विचार धारा कूड़े में पड़ी नजर आईं। विचारधारा गौण हो गई। प्रदेश की 75 जिला पंचायत सीट में से 67 पर भाजपा विजयी रही। दो सीट पर उसके समर्थक दल का कब्जा रहा। सपा को सिर्फ पांच सीट मिली। एक सीट रालोद को गई। पश्चिमी इलाके में सपा- रालोद और भाकियू का गठबंधन कोई भी करिश्मा नहीं कर सका। अपने गढ़ मुजफ्फर नगर में भारतीय किसान यूनियन का प्रत्याशी मात्र चार वोट पाकर ही घर बैठ गया। रालोद-भाकियू के गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश की 14 सीट में से 13 पर भाजपा ने विजय पताका फहराई। 

चुनाव शुरू होने से ही कुछ लोग इसे राजनैतिक रंग देने में लगे थे। वे इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहे थे। भाकियू के दिल्ली बार्डर पर चल रहे आंदोलन के मद्देनजर कुछ विश्लेषकों का कहना था कि इस चुनाव में भाजपा को भाकियू की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा। वह ये भूल गए कि ये चुनाव सत्ता का चुनाव है। सत्ता में जो दल होता है, उसके ही प्रत्याशी प्रायः विजयी होतें हैं। 2016 में समाजवादी पार्टी की सरकार में सपा के 26 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए थे। जबकि इस बार भाजपा के 21 जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध बने। एक सपा का भी जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुना गया। सपा सरकार में 2016 के चुनाव में सपा के 63 जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए थे। इस बार भाजपा और उसके समर्थक दल के दो अध्यक्ष मिला कर कुल 69 चुने गए हैं।

बसपा ने तो पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। सपा- रालोद मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन भी इनके साथ थी। इसके बावजूद यह शुरूआत से ही बैकफुट पर रहे। इस चुनाव में आम जनता मतदान नहीं करती है बल्कि जनता से चुने गए सदस्य मतदान करते हैं। मीडिया रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि इनकी खुलकर बोली लगती है। निर्धारित राशि तै हो जाने पर सदस्य प्रत्याशी के साथ चले जाते हैं। इस बार सदस्य का रेट 15 से 20 लाख के आसपास रहा। विजेता को पांच- छह करोड़ के आसपास रूपया व्यय करना पड़ा।

चुनाव की विशेष बात यह रही कि इसमें जमकर क्रास वोटिंग हुई। बिजनौर जनपद में भाजपा के आठ सदस्य विजयी हुए थे। अन्य दल के इस प्रकार थे। सपा 20, रालोद चार भाकियू दो,असपा आठ , बसपा पांच अन्य छह। सपा,रालोद और भाकियू के दो सदस्य मिलाकर 26 सदस्य हो रह थे। लग रहा था कि सपा प्रत्याशी विजयी होगा। किंतु 26 की जगह सपा को 25 ही वोट मिले। भाजपा के साकेंद्र चौधरी 30 मत पाकर विजयी रहे। 

मुजफ्फरनगर में अकेले भाकियू ने अपना प्रत्याशी लड़ाया। यह भाकियू का गढ़ है। भाकियू को अपने गढ़ में ही बुरी तरह पराजय हाथ लगी। उसके प्रत्याशी सत्येंद्र बालियान को कुल चार मत मिले। इस सीट पर भाजपा के 13 सदस्य ही विजयी हुए थे। भाजपा इन तेरह की बदौलत तीस तक पंहुच गई। भाजपा प्रत्याशी 26 मत से विजयी रहा।आठ में से पांच मुस्लिम सदस्यों ने भी भाजपा प्रत़्याशी को वोट किया। नौ मतदाताओं ने मतदान नही किया। रालोद-भाकियू के गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश की 14 सीट में से 13 पर भाजपा ने विजय पताका फहराई। अकेले बागपत में ही रालोद का प्रत्याशी विजयी रहा।

चुनाव संपन्न हो गया । अगर इसे विधान सभा चुनाव का सेमीफाइनल माने तो भाजपा पूर्ण बहुमत से भी आगे निकल गई। वैसे इस चुनाव को विधान सभा चुनाव का सेमी फाइनल कहना गलत है। इतना जरुर है कि ये भाजपा के 67 और दो गठबंधन के कुल 69 जिला पंचायत अध्यक्ष विधान सभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों को विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। आगामी चुनाव में प्रत्याशी के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े होंगे।

- अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

विचारधाराओं के भंवरजाल में फंसे युवा /दिव्येन्दु राय


जैसे किसी लड़की की शादी में बुआ का लड़का आकर बहुत सारा काम कर देता है वही हाल चुनाव में कार्यकर्ताओं का होता है, शादी के बाद न तो कोई बुआ के बेटे को खोजता है और न ही विधायक, मन्त्री बना व्यक्ति कार्यकर्ता को.

क्या आपने देखा है किसी लड़की के पिता को अपने बहन के लड़के को शादी बाद खोजकर उसके भविष्य को सुरक्षित करने की कोशिश करते हुए? क्या आपने कभी देखा या सुना है किसी विधायक, मन्त्री को अपने चुनाव में काम किये हुए कार्यकर्ताओं को रोजगार अथवा काम देते हुए? जहां तक मुझे पता है ऐसा आपने शायद ही कभी सुना या देखा होगा लेकिन इसकी भी उम्मीद मुझे मात्र 0.1 फिसद ही है.


किसी आइडियोलॉजी को मानना अच्छी बात है लेकिन सम्बन्धित विचारधारा से जुड़े नेता चाहते हैं कि आप उस विचारधारा के प्रति इस कदर समर्पित हो जाईये कि उसके अलावा आपको कोई अन्य विचारधारा समानांतर लगे ही नहीं वह इसलिए ऐसा चाहते हैं ताकि आप उनके किसी काम पर चाह कर भी प्रश्नचिन्ह न उठा सकें. जैसे अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और किसी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बेरोजगार ने आत्महत्या कर ली तो कोई भाजपा से जुड़ा हुआ व्यक्ति इसमें सरकार की आलोचना नहीं करेगा वहीं अगर दिल्ली में अगर किसी बेरोजगार ने आत्महत्या कर ली तो आम आदमी पार्टी से जुड़ा हुआ व्यक्ति सरकार की आलोचना नहीं करेगा. इसलिए अगर आप बेरोजगार हैं तो आपकी आइडियोलॉजी रोजगार पाना होना चाहिए न कि सोशल साइट्स पर नेताओं और पार्टियों के लिए तू-तू, मैं-मैं करना होना चाहिए. राजनीतिक दल के नेता आपके घर कौन सी सब्जी बनेगी, आटा कैसे पिसायेगा उसकी चिन्ता नहीं करते बल्कि वह यह चाहते हैं कि उनसे जुड़े कार्यकर्ता उक्त नेता की, सम्बन्धित विचारधारा वाले दल की कमियों को छुपाएं तथा उनका बचाव करें.


युवाओं का समय के साथ विचारधारा बदल देना फिर भी ठीक है लेकिन विचारधारा के नाम पर भ्रमित कर देने वालों के साथ रहना बिल्कुल ठीक नहीं होता है, हाँ कुछ लोग यह जरूर कहेंगे कि कहाँ पहले थे अब कहाँ चले गए लेकिन वह न तो आपके घर पर सरसों का तेल पहुंचाने जाएंगे और न ही आपकी बाइक में पेट्रोल डलवायेंगे.


"कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि फ़लाना लड़का एकदम असामाजिक है, किसी से मतलब नहीं रखता लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि कुछ लड़के सामाजिक बनने के लिए नहीं बल्कि समाज को बदलने के लिए होते हैं और इसलिए ही समाज से दूर रहकर पढ़ाई करते हैं."


आजकल आप अभी कुछ लाइने लिखकर सोशल साइट्स पर कोई फ़ोटो पोस्ट करेंगे तो लोग आठ कदम आगे तक का सोच लेते हैं एवं अनुमान लगाकर जजमेंट देने में देर नहीं करते जबकि वह खुद अपने वोट के साथ ही न्याय नहीं कर पाते कि वह अपना वोट जिस व्यक्ति को दिए होते हैं क्या वह व्यक्ति ही सबसे योग्य था उक्त प्रत्याशियों में?


देश की पहली संसद में 9 फीसद सांसद किसी बड़े, राजनीतिक परिवार से जुड़े थे, वर्तमान समय की संसद में 40 वर्ष से कम उम्र के 98 फीसद सांसद किसी न किसी राजनैतिक व्यक्ति के रिश्तेदार हैं और उनकी लीगेसी को आगे बढ़ा रहे हैं.


अगर आपको लगता है कि आप किसी नेता का झण्डा ढोकर, जय जयकार करके नेता बन जाएंगे तो यह गलत है. किसी नेता को क्या आन पड़ी कि वह आपकी चिन्ता करे, अब भला देश के गृहमंत्री मेरी क्यों चिन्ता करेंगे कि दिव्येन्दु को 2022 में घोसी से प्रत्याशी बना दिया जाए या राज्यमंत्री बना दिया जाए. नेता आपकी चिन्ता तभी करते हैं जब आप उनके लिए या तो लाभदायक होते हैं या नुकसानदायक, लाभदायक होने की दशा में आपको साथ जोड़ा जाता है और नुकसानदायक होने की दशा में आपको मैनेज किया जाता है. राजनीति का वह दौर गया जब आपके संघर्ष और त्याग को मान दिया जाता था, वर्तमान युग में धन,जाति एवं बाहुबल को मान दिया जाता है.


युवा सही समय पर विचारधारा के घुप अंधेरे से बाहर नहीं निकल पाते तो एक वक्त बाद परिस्थितियों के चलते उनकी विचारधारा कमाने, खाने और परिवार पालने में सिमट कर रह जाती है. उन्हें अपनी गलती का एहसास तब होता है जब उनसे कम योग्य लोग विधायिका में अपनी ताकतों को दुरुपयोग करते दिखते हैं और उनकी बदौलत उनके परिजन, उनके रिश्तेदार आम लोगों से रौब में बात करते हैं. 


उस समय वही युवा जो कभी किसी नेता के लिए झण्डा ढोये होते हैं वह समाज से खुद को काट लेते हैं क्योंकि उनके ऊपर परिवार की बहुत जिम्मेदारियाँ आ गईं होती हैं और आय का स्रोत समिति होता है, उनके पास न इतना वक्त बचता है कि वह समाज को बदलने की सोच सकें और तो और कुछ ही सालों बाद वह नेता भी ठीक से नहीं पहचानता जो पहले हर बात पर पीठ ठोक शाबासी दिया होता है.

फिर भी जब आप कभी किसी मुसीबत में फंस कर उक्त नेता के पास अपनी गुहार लेकर जाते हैं तो वह पहले अपना राजनीतिक लाभ और हानि देखता है उसके बाद कई दिन आपको अपने पीछे घुमाता है फिर या तो टाल देता है या फिर किसी लाभ को देखकर आपके लिए एक फोन कॉल करके पैरवी कर देता है.


इसलिए वर्तमान समय में युवाओं को राजनीतिक दलों का झण्डा ढोने से पहले खुद के परिवार के उम्मीदों के झण्डे को ढोने की जरूरत है. किसी विचारधारा के लिए लड़ने से पहले खुद के और अपनों के ख़्वाबों के लिए लड़ने की जरूरत है, क्योंकि देशभक्ति देश के लिए इनकम टैक्स देकर की जाती है न कि सोशल साइट्स पर लिखकर और अपने परिजनों को दुखी कर, उनके सपनों को तोड़कर.


दिव्येन्दु राय

स्वतन्त्र टिप्पणीकार & राजनैतिक विश्लेषक

स्वाधीनता के 75 वर्ष एवं राष्ट्र​ निर्माण में कलाकारों की भूमिका



भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत, मुजफ्फरनगर जिला, नव सिद्धार्थ आर्ट ग्रुप दिल्ली, उत्कर्ष ललित कला अकादमी लखनऊ उत्तर प्रदेश,  शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में "स्वाधीनता के 75 वर्ष एवं राष्ट्र​ निर्माण में कलाकारों की भूमिका" विषयक नौ द्विवसीय कला उत्सव का आयोजन किया गया। कला उत्सव कार्यक्रम का उद्धघाटन मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी एवं सिंगापुर के अंतराष्ट्रीय सुविख्यात कलाकार श्री पी गनाना द्वारा डैमोंस्ट्रेशन श्रंखला का प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम में प्रज्ञा प्रवाह पश्चिमी उत्तरप्रदेश उत्तराखंड के क्षेत्रीय​ संयोजक माननीय श्री भगवती प्रसाद राघव का सानिध्य रहा। विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल भटनागर (एमिनेंट आर्टिस्ट, चंडीगड़) रहें।

कला उत्सव कार्यक्रम की अध्यक्षता धन्यवाद ज्ञापन प्रोफेसर वीरपाल सिंह (प्रांत अध्यक्ष भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा प्रवाह मेरठ ) द्वारा हुआ।कार्यक्रम का प्रारंभ कार्यक्रम संयोजक इंजीनियर अवनीश त्यागी (प्रांत संयोजक भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा परिषद मेरठ) ने किया। कार्यक्रम में अतिथियों का परिचय और मंच का संचालन डॉ रजनीश गौतम, प्रस्तावना डॉ वन्दना वर्मा, कार्यक्रम सह संयोजक डॉ नीतू वशिष्ट के द्वारा किया गया। कार्यक्रम का प्रारंभ सरस्वती वंदना के साथ प्रारंभ होकर वंदे मातरम् और कल्याण मंत्र के साथ समापन हुआ।

मुख्य वक्ता प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी ने स्वाधीनता के 75 वर्ष और कलाकारों के राष्ट्र निर्माण में भूमिका पर बोलते हुए कहा, कि मुझे यह जानकर अति हर्ष हुआ है, कि आज स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने में कलाकारों की जो भूमिका रही है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्वाधीनता आंदोलन में कलाकारों की जो भूमिका रही है, इस विषय को लेकर आज ये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इसके लिए आप सभी विद्वितजन बधाई के पात्र हैं। आप सभी शिक्षाविद, प्रबुद्ध जन, कलाकार और विधार्थी प्रशंसा के पात्र भी हैं। उन्होंने कहा, कि आज इस कला उत्सव कार्यशाला में व्याख्यान एवं डेमोस्ट्रेशन श्रृंखला  में मुझे आने का जो अवसर प्रदान किया गया है, उसके लिए मैं आप सभी शिक्षक एवं प्रबुद्ध जनों का आभारी हूं, और आपका धन्यवाद करता हूं । इसके साथ-साथ आप ने मुख्य अतिथि पी गनाना जी और विशाल भटनागरजी सहित कार्यकर्ताओं को भी धन्यवाद भी ज्ञापित किया। उन्होंने कहा, कि इस कोरोना काल ने हमें नव दुर्गा की पूजा से भी वंचित कर दिया गया था। परंतु आज 9 दिवसीय कला कार्यशाला, व्याख्यान और डेमोंस्ट्रेशन​ के द्वारा हमें पुनः इस तरह के कार्यक्रम में जुड़ने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यह भी हमारे बड़ी अति हर्ष की बात है। 

प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक माननीय जे. नंदकुमार जी ने कलाकारी की ओर इशारा करते हुए कहा, कि यह स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश के कलाकारो ने अपना संपूर्ण सहयोग दिया और अपने-अपने कार्य के द्वारा ही स्वाधीनता प्राप्त करने में सफलता मिली। इसमें प्रत्येक क्षेत्र के कलाकारो ने अपना भरपूर सहयोग दिया। उसमें भले ही वह कोई चित्रकार रहा हो, मूर्तिकार रहा हो, कवि हो, नाटककार हो, और अभिनेता भी रहे हो, इसमें कोई भी हो उन्होंने इसमें अपना-अपना सहयोग दिया है। जब हमारे देश में ब्रिटिश शासन था, तब हमारे देश का जो इतिहास रहा था, उसको तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया गया था। उसे कुछ भ्रामक तरीके से तैयार करके  हमारे सामने प्रस्तुत किया गया। जिससे हमारे देश की जनता को हमारे देश के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त ही नहीं हो सकी थी। आज उससे भिन्न तरह के व्याख्यान और डेमोस्ट्रेशन प्रोग्राम में आने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे ऐसा लग रहा है, कि अब हमारे देश का जो इतिहास है वह पूर्ण रुप से सभी जनों तक धीरे-धीरे पहुंच जाएगा। क्योंकि इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रबुद्ध जन दूर-दूर से जुड़े हुए हैं, साथ ही छात्र-छात्राएं भी जुड़ी हुई है। 

उन्होंने सन् अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के ऊपर प्रकाश डालते हुए बताया, कि यह क्रांति मेरठ से ही भारत देश के स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इसके पश्चात यह पूरे देश में फैल गई थी। उन्होंने आगे कहा, कि स्वतंत्रता आंदोलन कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं था। यह तो एक विचारधारा थी। एक भाव था, देश के प्रति! किंतु कुछ लोगों को तो यह एक राजनैतिक और केवल राजनीतिक मुद्दे के रूप में दिखाई देता है। जैसे वह एक राजनीतिक आंदोलन था। जिसमें गरम दल और नरम दल नाम के दो दल होते थे। जबकि स्वाधीनता आंदोलन एक वैचारिक धारा थी, जो देश प्रेमियों ने अपने देश की स्वाधीनता के लिए एक मुहिम शुरू की थी। परंतु हमारे लिए दुर्भाग्य की बात यह है, कि हमारे देश के इतिहास को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है।

उन्होंने क्रांतिकारियों महान नायकों के विषय में बताया, कि रविंद्र नाथ टैगोर जैसे कलाकार  स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे। क्या उन्होंने स्वतंत्रता के लिए अपना योगदान नहीं किया? रविंद्र नाथ टैगोर नोबेल पुरस्कार विजेता और एक  महान व्यक्ति थे। उन्होंने बहुत सारी कविताएं, चित्रकारी, अभिनय, नाटक आदि राष्ट्र को दिए। वह सब प्रकार की कलाओं में पारंगत थे। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में अपना पूरा-पूरा महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई सारे लेख लिखे थे, अनेक कविताएं भी लिखी थी।

उन्होंने आगे बताया, कि यदि किसी देश की इतिहास और संस्कृति को खत्म करना हो, तो उसके तथ्यों को नष्ट कर देना चाहिए। जिससे वह देश ही खत्म हो जाता है। यही रणनीति अंग्रेज ब्रिटिश सरकार ने अपनाई थी! इस बात पर ध्यान महापुरुष का गया, और उन बुद्धिजीवियों ने इस मुहिम में अपना कदम आगे बढ़ाया और भारत मां की लाज बचाने के लिए स्वाधीनता प्राप्ति की ओर चल पड़े। उन कलाकारों उन प्रबुद्ध जनों को मेरा कोटि-कोटि सादर नमन है।

उन्होंने स्वामी विवेकानंद का जिक्र करते हुए बताया, कि स्वामी विवेकानंद किस प्रकार से अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धावान थे। जब शिकागो में उनका भाषण हुआ था। तब उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी को ही चुना था। जबकि वह कई भाषाओं के विद्वान रहे थे। आपने भारत देश के गौरवशाली इतिहास की ओर ध्यान देते हुए बताया, कि जहां पर गीता, पुराण, वेद शास्त्रो की रचना हुई है। उन्होंने बताया, कि यदि जनता को कुछ बताना हो, तो उसका केवल और केवल एक ही माध्यम हो सकता है और वह है कला। कला से लोग जल्दी प्रभावित होते हैं और उसका प्रभाव भी जल्दी ही पड़ता है। क्योंकि प्राचीन काल से ही मानव संप्रेषण का सबसे बढ़िया साधन कला ही रही है। जिससे कि यहां के प्रबुद्ध जनों को और छात्र छात्राओं को अपने भारत के गौरवमय इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त हो। आपने कला के साथ-साथ में नाटकों का कला के रूप में भी व्याख्यान किया है। उन्होंने बताया, कि उस समय के नाटकों का बहुत ही महत्व रहता था, और नाटकों के द्वारा ही विभिन्न कहानियों को दर्शाया जाता था। जिससे समाज को एक चेतना एक अनुशासन और एक प्रेरणा मिलती रही थी। उन्होंने टोली माधवराव पेशवा के ऊपर बनाए गए नाटक गिरीश चंद्र घोष के नाटक बाय नारायण जैसे नील दर्पण आदि नाटकों का जिक्र किया।  उन्होंने बताया, कि किस प्रकार से नाटक कला मतलब अभिनय कला से लोगों को प्रभावित किया जाता था, और किस प्रकार से देश के जनता को प्रभावित किया जा सकता है। किस प्रकार से सिखाया जा सकता है। हमें अपने देश के गौरव में इतिहास को जानना होगा। उसको पहचानना होगा और अपने देश की संस्कृति को भी।  इसी के साथ उन्होंने  सबको धन्यवाद और शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ पी. गनाना ने कला के विभिन्न रूपों में डैमोंस्ट्रेशन दिखाया। उन्होंने कहा,कि मुझे यह जानकर अति  हर्ष हुआ है कि भारत में आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर 9 दिवसीय कला कार्यशाला , व्याख्यान एवं डेमोंसट्रेशन श्रृंखला  का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने इसके लिए सभी को धन्यवाद दिया। इस कार्यक्रम में मुझे मुख्य अतिथि के रुप में बुलाया, यह मेरे लिए बड़ा ही गर्व और हर्ष का विषय है। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कलाकारों महत्वपूर्ण योगदान विषय पर विस्तृत रूप में चर्चा की। उन्होंने कहा, कि भारतीय आंदोलन अनेक कलाकारों ने अपनी कविताओं अपने चित्रों और अपने लेखों के द्वारा इस स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय सहयोग किया था। जैसा, कि रविंद्र नाथ का जिक्र आता है, तब रविंद्र नाथ टैगोर बहुत ही अच्छे कवि, विशेषज्ञ ,चित्रकार, अभिनेता तथा  कई बहुमुखी प्रतिभा लिए हुए थे। उन्होंने इनके साथ साथ नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज, अमृता शेरगिल, राजा रवि वर्मा, सतीश गुजराल, रविंद्र रेड्डी और बंगाल शैली के अन्य कलाकारों का जिक्र करते हुए बताया, कि भारतीय कला सिंगापुर मलेशिया इंडोनेशिया एवं अन्य देशों में किस प्रकार से फल-फूल रही है, किस प्रकार से बाजार में इसकी मांग बढ़ रही है। उन्होंने आगे बताया, कि सिंगापुर, मलेशिया और इंडोनेशिया में भारतीय चित्रों  के स्थानों पर संग्रहकर्ता है। जिन्होंने आज भी अपने संग्रह में भारतीय चित्रकारों के चित्रों को संजोकर रखा हुआ है और आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय चित्रो की मांग बढ़ रही है। भारतीय चित्रों ने आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेजोड़ धाक जमा रखी हुई है। जिनकी खरीदारी​ भी दिनों​ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इसके साथ-साथ​ ही उन्होंने बंगाल की कला के बारे में बताया, बंगाल कला का जो रेखाचित्र था। वह पूर्ण रूप से भारतीय ही है। संपूर्ण भारतीयता का लुक उसमे दिखाई भी देता है। कई स्थानों पर भी बंगाल शैली के चित्रों का संग्रह प्राप्त होता है। जो बहुत ही सुंदर है। सिंगापुर के प्रधानमंत्री के विषय में भी बताते हुए उन्होंने कहा, कि प्रतिवर्ष वह लोग भारतीय चित्रों के मेले और प्रदर्शनियो का आयोजन करते रहते हैं। जिनमें भारतीय कला को प्रोत्साहन दिया जाता है। आपने बताया, कि कलाकारों को अपनी कला को विकसित करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। किन  सिद्धांतों को अपनी कला में उतारना चाहिए। इसके विषय में विस्तृत व्याख्या भी दी। उन्होंने भारतीय कलाकार और कला की प्रशंसा अनेक संदर्भ और व्याख्यान के द्वारा दी।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल भटनागर ने कहा, कि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है, कि जिला मुजफ्फरनगर के महाविद्यालय आपस में संयुक्त होकर इस कला कार्यशाला, व्याख्यान और डेमोंसट्रेशन का आयोजन कर रहे हैं, और इनमें भारत की विभिन्न कला संस्थाओं का भी योगदान मिल रहा है उन्होंने सभी को साधुवाद किया, और आभार व्यक्त करते हुए सबको बधाई दी।  उन्होंने कहा, कि यह नौ दिवसीय कला कार्यशाला उन सभी लोगों के लिए बहुत ही लाभप्रद होगी जो कला के क्षेत्र में कुछ ना कुछ कार्य कर रहे हैं, और निरंतर उसमें अपने प्रयोग भी कर रहे हैं उनमें चाहे कोई शिक्षक हो या कोई छात्र हो। इस कार्यशाला का लाभ सभी को प्राप्त होने वाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि इसमें समाज के सभी प्रबुद्ध व्यक्ति जुड़े हुए हैं, और इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सभी अपना अपना प्रयास कर रहे हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के बाद कलाकारों की क्या भूमिका रही है, इस विषय पर उन्होंने विस्तृत व्याख्या रखी, और कहा,कि आजकल हमारा बालक वर्ग या कलाकार किस दिशा में जा रहा है। आज की कला किस दिशा में जा रही है, इस विषय पर हमें चिंतन और मनन करना ही होगा। इसके लिए यह कला कार्यशाला बहुत ही महत्वपूर्ण है। जिसमें इन सभी तथ्यों का विचार मंथन किया जा सकता है, क्योंकि यहां कार्यक्रम बहुत ही महत्वपूर्ण संस्थानों से जुड़ा हुआ है। जो बच्चों को सही मार्गदर्शन एवं सही दिशा प्रदान करेगा। इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहिए। जिससे, कि उन्हें इस चीज का बोध हो जाए, कि वह किस दिशा में जा रहे हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है, कि हमारे इतिहास को तोड़ मरोड़ कर हमारे सामने पेश किया जा रहा है। हमारे वास्तविक इतिहास को छिपा दिया गया है, जो कि मूल रूप में नहीं रहा, और समाज को भ्रामक और भ्रांति से पूर्ण ज्ञान दिया जाता रहा है। 

उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में कला की प्रासंगिकता पर कहा, कि स्वाधीनता की प्राप्ति में कलाकारों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है, कला के रूप में रविंद्र नाथ टैगोर जैसे अनेक महान कलाकार आते हैं, जिन्होंने शांति निकेतन जैसे संस्थानों की स्थापना की थी। जिसमें रामकिंकर वेज, देवी प्रसाद राय, चौधरी नंदलाल बोस और अन्य अन्य कई  प्रसिद्ध आर्टिस्ट वहीं से होकर संपूर्ण देश में अपनी कला को फैलाया और समाज को शिक्षा भी दी है। कला समाज को शिक्षा देने वाली होती है, क्योंकि कला से सभी को प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि कला गलत संदेश देती है तो उसका समाज पर गलत प्रभाव जाता है, और यदि वह कला अर्थ पूर्ण है, सही है, तब उसका समाज पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। हमारे कॉलेज और स्कूलों और हमारे जो विषय है इनमें हमारे देश की कला और संस्कृति को ही पढ़ाया जाना चाहिए ना कि अन्य देशों के जैसा। पाश्चात्य सभ्यता का जो पाठ्य क्रम है वह हमारे देश मे पढ़ाया जाता रहा है। वह भी हमारे देश के पाठ्यक्रम के साथ मिलाकर सीखाया भी जा रहा है। जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। यदि किसी देश की संस्कृति और कला को दबाना है, तब उसको वहां की जनता के समक्ष ना लाया जाए। उसे वहां की संस्कृति और सभ्यता नष्ट हो जाएगी। इस प्रकार की रणनीति पहले से ही भारतीय समाज में खेली जा चुकी है।

विशिष्ट अतिथि श्री विशाल भटनागर जी आगे कहते हैं, कि मैंने अपना भित्ति चित्रण और  मूर्तिकला में कई प्रकार की मूर्तियां और पेंटिंग्स बनाई हुई है। जिनका विषय केवल और केवल भारतीय चित्रकला ही रही है। उन्होंने अपने चित्रों में भारतीय प्रतीक चिन्हों का प्रयोग सर्वाधिक किया है, यहां प्रथम बार इस बात की पुष्टि भी की है। उन्होंने अपने कुछ कार्यों के फोटोग्राफ्स को सभी के समक्ष प्रस्तुत किया। जिनमें यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि विशाल भटनागर की  कला पूर्ण रूप से भारतीय प्रतीक चिन्हों पर आधारित है। उन्होंने हमेशा अनेक कार्यशालाओं में यह बात कहते रहे हैं, कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में जरूर अपनी कलाकृतियों को लेकर जाना चाहिए। परंतु अपने देश की मूल भावना अपने देश की मूलकृतियों को अपनी कला को कभी भी भूलना नहीं चाहिए। हम संप्रेषण करने के लिए दूसरे देश की भाषाओं को सीख जरूर सकते हैं, लेकिन अपने देश की भाषा में उसको किस प्रकार से प्रयोग करना है, किस प्रकार से उसका व्यवहार में लाना है। अपने कला में यह भी हमें सीखना होगा ना कि दूसरे देशों की सभ्यता की कलाओ को अपनी कला में तोड़ मरोड़ कर पेश करना। उन्होंने बच्चों को चित्रकला और मूर्तिकला के विषय में भी विस्तृत जानकारी दी।

कार्यक्रम के अंत में कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर बीरपाल सिंह ने सभी आगंतुकों, कलाकारों, भारतीय प्रज्ञान परिषद, प्रज्ञा प्रवाह के कार्यकर्ताओ​, समाज के प्रबुद्ध जनों, विधार्थियों का धन्यवाद दिया, उन्होंने कहा,कि यह अनुभव हमारे किये एक नई प्रेरणा लेकर आया है, क्योंकि मुजफ्फरनगर इकाई के द्वारा यह कार्यक्रम आयोजित करने के बाद आज मुझे भी कला के विषय मे कुछ सीखने को मिला है, आशा है, कि इससे सभी को बहुत प्रेरणा मिली होगी। इसके साथ ही आपने मुख्य वक्ता, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि सहित सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओ के विषय के सार को उपयोगी बताया। सभी कार्यकर्ताओं, कलाकारों, शिक्षाविदों, विधार्थियों एवं आयोजनकर्ताओं​ को शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम में प्रमुख रूप से भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत, प्रज्ञा परिषद ब्रज, देवभूमि विचार मंच के कार्यकर्ताओं, सहयोगी संस्थाओं, कलाकारों, प्रबुद्ध जनों के साथ-साथ मुजफ्फरनगर जिले के प्रमुख महाविद्यालयों के शिक्षकगण, प्रतिभागी, विधार्थी रहे। हैं।  कार्यक्रम में भारतीय प्रज्ञान परिषद के प्रांत संयोजक अवनीश त्यागी, प्रज्ञा परिषद अध्यक्ष डॉ प्रवीण तिवारी, संयोजक प्रोफेसर वी.के. सारस्वत, देवभूमि विचार मंच के अध्यक्ष डॉ चैतन्य भंडारी, संयोजिका डॉ अंजलि वर्मा, हस्तिनापुर संदेश पत्रिका के संपादक डॉ सूर्य प्रकाश अग्रवाल, प्रांत शोध संयोजिका डॉ शीला टावरीजी, सहसंयोजक डॉ देवेश, अनुराग विजय अग्रवाल, डॉ एस सी वार्ष्णेय, डॉ महेश दिवाकर, डॉ नितिन कुमार, डॉ ऋचा जैन , डॉक्टर अमित कुमार, श्री नीरज  मौर्य, श्री भास्कर द्विवेदी मीडिया, श्री कुलदीप कुमार, इंजीनियर पंकज कुमार, डॉ जी. आर.गुप्ता, डॉ अलका तिवारी, डॉ वंदना, सविता वर्मा, डॉ श्री राम शर्मा, डॉ दिनेश शर्मा, डॉ के.के. शर्मा, मीनाक्षी, डॉ अमिता, डॉ वकुल बंसल, योगेश शर्मा, डॉ अमित अवस्थी, डॉ अनिल जैसवाल, डॉ योगेश त्यागी, डॉ भूपेंद्र सिंह आदि उपस्थित रहें।

- अवनीश त्यागी, प्रांत संयोजक एवं कार्यक्रम संयोजक

भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत

पं. पद्मसिंह शर्मा और ‘भारतोदय’ / अमन कुमार ‘त्यागी’





पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म सन् 1873 ई. दिन रविवार फाल्गुन सुदी 12 संवत् 1933 वि. को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टेशन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नंगला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके एक छोटे भाई थे जिनका नाम था श्री रिसाल सिंह। वे 1931 ई. से पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। पं. पद्मसिंह शर्मा की तीन संतान थीं। इनमें सबसे बड़ी पुत्री थी आनंदी देवी, उनसे छोटे पुत्र का नाम श्री काशीनाथ था तथा सबसे छोटे पुत्र रामनाथ शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा के पिता आर्य समाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रति उनकी अत्यंत श्रद्धा थी। इसी कारण उनकी रुचि विशेष रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया। जब ये 10-11 वर्ष के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पंडित अध्यापकों से संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी, और रघुवंश आदि का अध्ययन किया तथा एक मौलवी साहब से उर्दू व फारसी की भी शिक्षा ली। सन् 1894 ई. में कुछ दिन स्वर्गीय भीमसेन शर्मा इटावा निवासी की प्रयागस्थिति पाठशला में अष्टाध्यायी पढ़ी। उसके बाद काशी जाकर अध्ययन किया। पुनः मुरादाबाद, लाहौर, जालंधर, ताजपुर (बिजनौर) आदि स्थानों पर भी अध्ययन किया। अध्ययन समाप्ति के पश्चात् सन् 1904 ई. में गुरुकुल काँगड़ी में कुछ दिन अध्यापन कार्य किया। उन दिनों वहाँ पं. भीमसेन और आचार्य पं. गंगादत्त भी थे। उसी समय महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) ने पं. रुद्रदत्त जी के संपादकत्व में हरिद्वार से सत्यवादी साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। उस समय पं. पद्मसिंह शर्मा भी उनके संपादकीय विभाग में थे। इनका संपादन एवं लेखन का प्रारंभ यहीं से हुआ। इसके बाद तो शर्मा जी का जीवन लेखन, संपादन एवं अध्यापन आदि में ही व्यतीत हुआ। प्रारंभ में ‘सत्यवादी’ में ही कई लेख लिखे। इसके बाद सन् 1908 के प्रारंभ में जब आचार्य गंगादत्त गुरुकुल काँगड़ी छोड़कर ऋषिकेश में रह रहे थे तो शर्मा जी ‘परापेकारी’ (मासिक) पत्रिका के ‘संपादक’ होकर अजमेर वैदिक यंत्रालय में गए। वहाँ पर इन्होंने ‘परोपकारी’ के साथ ही कुछ दिन तक ‘अनाथ रक्षणम्’ का भी संपादन किया। सन् 1909 ई. में इनका आगमन ज्वालापुर महाविद्यालय में हुआ। यहाँ इन्होंने ‘भारतोदय’ (महाविद्यालय का मुखपत्र, मासिक) का सम्पादन एवं साथ ही अध्ययन कार्य भी किया। सन् 1911 ई. में इन्होंने महाविद्यालय की प्रबंध समिति के मंत्री पद पर भी कार्य किया। इस प्रकार महाविद्यालय की अविरल सेवा करते रहे। इनके संपादकत्व में ‘भारतोदय’ पत्रिका ने खूब ख्याति प्राप्त की। सन् 1927 में इनके पिता जी का देहांत हो गया। इस कारण इन्हें महाविद्यालय छोड़ घर आना पड़ा।

महाविद्यालय छोड़ने के बाद श्रीयुत् शिवप्रसाद गुप्त के अनुरोध पर ये ज्ञान मंडल में गए।सन् 1920 को मुरादाबाद में संयुक्त प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति बने। इसी वर्ष इनकी माता जी का देहान्त हो गया था। सन् 1922 ई. में इन्हें ‘बिहारी सतसई’ पर मंगलाप्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1928 में इन्होंने अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का मुजफ्फरपुर (बिहार) में सभापतित्व किया। इसी वर्ष इन्होंने गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर पद पर भी कार्य किया।

सन् 1911 ई. में ‘पद्मपराग’ और ‘प्रबंध मंजरी’ का प्रकाशन हुआ। एक बार ये संग्रहणी रोग से ग्रस्त हो गए तो इन्हें हरदुआगंज लाया गया, साथ में इनके पुत्र काशीनाथ शर्मा भी थे। जब वहाँ पर चिकित्सा से कोई लाभ न हुआ तो इन्हें मुरादाबाद लाया गया। वहाँ डा.ॅ गंगोली पीयूषपाणी की चिकित्सा करायी गई। किंतु ऐसी अवस्था में भी अविरत रूप से इन्होंने साहित्यिक सेवा की। उस समय भी ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जिसमें ये दस-पंद्रह चिट्ठियाँ अपने मित्रों को न लिखते हों (उस समय सेवा के लिए कवि ‘शंकर’ (पं. नाथूराम शर्मा के पुत्र) इनके पास थे) और इनके पास भी बड़े-बड़े साहित्यकारों की चिट्ठियां रोज आती थीं। उनका उत्तर ये अपनी भाषा में ही दिलवाते थे। डेढ़ मास तक इनकी चिकित्सा चलती रही। कोई लाभ न होने पर इन्होंने महाविद्यालय ज्वालापुर में आने की इच्छा प्रकट की ओर कहा-‘चलो महाविद्यालय चलो; मरना तो है ही, उसी पुण्य भूमि में प्राण त्यागूँगा, गंगा की गोद में।’ अतः स्पष्ट है महाविद्यालय के प्रति उनमें आत्मीयता एवं श्रद्धा का भाव था। उन्हें महाविद्यालय लाया गया; साथ में पं. भीमसेन शर्मा भी थे। उस समय महाविद्यालय में श्री विश्वनाथ मुख्याधिष्ठाता थे। यहाँ आने पर पं. हरिशंकर शर्मा वैद्यराज की पहली पुड़िया से ही इन्हें बहुत लाभ हुआ और ये बीस-बाईस दिन में ही पूर्ण स्वस्थ हो गए।

पं. पद्मसिंह शर्मा को पाँच बातें बहुत पसंद थी- 1. स्वाध्याय,  2. नवीन लेखकों को प्रोत्साहन,  3. साहित्यिकों से मिलना-जुलना,  4. अतिथि सत्कार,  5. मित्रमंडली के साथ यात्रा। वे साहित्यिक यात्रा बहुत करते थे। अपनी मृत्यु से पूर्व भी उनका विचार श्रावण में ब्रज की यात्रा करने का था। उनका कहना था-‘भाई अब की बार श्रावण में ब्रज की यात्रा करनी चाहिए। आगरे के मिश्र भी साथ हों, कलकत्ते से बनारसीदास जी तथा श्रीराम जी को भी बुलाया जाए। किंतु इस साहित्यिक यात्रा से पूर्व ही वे जीवन की अंतिम यात्रा पर निकल पड़े।

कविजी (पं. नाथूराम शर्मा) के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। कवि जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अनुराग रत्न’ लिखी और उसका समर्पण काव्य कानन केसरी पं. पद्मसिंह को ही किया जबकि एक सज्जन उन्हें इसके लिए पाँच हजार रुपए देने को तैयार थे। उन सज्जन के कहने पर उनका कहना था कि-मैं अपना प्रचुर परिश्रम एक कलाविद को ही अर्पण करूँगा और मेरी राय में पं. पद्मसिंह शर्मा इसके लिए सर्वश्रेष्ठ हैं।

हिंदी जगत में ‘भारतोदय’

‘भारतोदय’ का प्रारंभ सन् 1909 ई. (ज्येष्ठ शुक्ल सं. 1966) में हुआ था। इसके संपादक, पद्मसिंह शर्मा और सहायक संपादक पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ थे। इसे पं. शंकरदत्त शर्मा ने अपने प्रेस ‘धर्मदिवाकर प्रेस’ मुरादाबाद में छापा और पं. भीमसेन शर्मा ने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से प्रकाशित किया। इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपए तथा विद्यार्थियों के लिए एक रुपया था। यह गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर का ‘मासिक पत्र’ घोषित किया गया।

पत्रिका के आवरण पर सबसे ऊपर सूचना दी गई थी कि ‘‘अगली संख्या में कविवर ‘शंकर’ की मज़ेदार कविता ‘अंधेर खाता’ छपेगी’’ तत्पश्चात एक आकर्षक बार्डर और फिर ।।ओ3म।। के बाद आकर्षक साज-सज्जा के साथ लिखा गया था ‘भारतोदय’। पत्रिका के शीर्षक के नीचे ध्येय स्पष्ट किया गया था-

‘‘निशम्यतां लेखललाम संचय, प्रकाशने येन कृतोऽतिनिश्चयः।

गृहीतसद्धर्मविशेषसंशय, श्वकास्तिसोयंभुवि ‘भारतोदयः’’।।

‘भारतोदय’ के नियम इस प्रकार बनाए गए -

1. यह पत्र प्रतिमास गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से प्रकाशित होता है।

2. उसका वार्षिक मूल्य सर्वसाधारण से डेढ़ रुपए लिया जाएगा। विद्यार्थियोें को एक रुपया में और महाविद्यालय के सभासदों को मुफ्त, पुस्तकालयों और असमर्थ विद्यारसिकों को डाकव्यय लेकर।

3. पत्र का मुख्य उद्देश्य महाविद्यालय ज्वालापुर को लोकप्रिय बनाना तथा तत्संबंधी समाचारों का प्रकाशित करना होगा।  इसमें धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा संबंधी तथा लोकोपयोगी लेख रहा करेंगे, हिंदी साहित्य का सुधार भी इसका लक्ष्य होगा। किसी मत, जाति या व्यक्ति पर कोई असभ्य, अरुंतुद या कलहात्मक लेख इसमें प्रकाशित न होंगे।

4. बाहर से आये लेखों में काट छांट और न्यूनाधिक करने का पूरा अधिकार संपादक को रहेगा।

5. समालोचना की पुस्तकें, बदले के पत्र, लेख, संपादक के नाम आने चाहिएँ। और पत्र न पहुंचने की सूचनाएं, ग्राहक होने की दरख्वास्तें, मूल्य आदि, प्रकाशक अथवा प्रबंधकर्ता ‘भारतोदय’ के नाम।

6. पत्र में किसी प्रकार के असभ्य और धोखा देनेवाले विज्ञापन नहीं छपेंगे न तकसीम होंगे, ऐसे महाशयों को यह बात ध्यान में रखकर प्रार्थना करनी चाहिए। सब प्रकार का पत्रव्यवहार महाविद्यालय ज्वालापुर जिला सहारनपुर, इस पते पर होना चाहिए।

‘भारतोदय’ के प्रथम अंक के पृष्ठ संख्या 33 पर ‘‘भारतोदय की उदयकथा’’ शीर्षक से भी जानकारी दी गई है-

महाविद्यालय के संबंध में एक पत्र की आवश्यकता का अनुभव करके कमेटी के एक विशेष अधिवेशन में निश्चित हुआ कि विद्यालय की ओर से एक मासिक पत्र निकाला जाय जिसका मुख्य उद्देश्य विद्यालय को लोकप्रिय बनाना और तत्संबंधी समाचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचाकर हितसाधन की चेष्टा तथा तद्र्थ सहाय्य प्राप्ति का उद्योग हो। इसके अतिरिक्त मतसंबंधी वितंडावादों से बचकर धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा विषय पर भी उस में लिखा जाया करे, हिंदी साहित्य की पूर्ति और सुधार भी उस का प्रधान लक्ष्य हो। इत्यादि प्रयोजनों को सामने रखकर ‘भारतोदय’ का उदय हुआ है। जैसा कि पत्रों में सूचना दी गई थी, 1 म (प्रतिपदा), वैशाख से पत्र निकालने का विचार था, परंतु कई अनिवार्य विघ्नों से पत्र प्रतिज्ञात समय पर न निकल सका। जिसकारण अनेक भारतोदयाभिलाषी, सज्जनों ने बड़े उत्कंठा और उत्साह भरे शब्दों में पत्र प्रकाशन के लिए अनुरोध किया और इच्छा प्रकट की जिससे प्रकाशकों का उत्साह द्विगुणित हो गया। पत्र को रोचक और उपयुक्त बनाने का यथाशक्ति प्रयत्न किया जाएगा। प्रसिद्ध विद्वान और कवियों के लेख इसमें रहा करेंगे। बहुत से विद्वानों ने अपनी लेखमालिका द्वारा पत्र को अलंकृत करने का प्रण कर लिया है, जिनमें से दो चार के नाम प्रकाशित किये जाते हैं। यथा-श्रीयुत रावबहादुर मास्टर आत्मारामजी। श्रीमान् कविवर पण्डित नाथूराम शंकर शर्मा। श्रीयुक्त प्रोफेसर पूर्ण सिंहजी इंपीरियल फारेस्ट केमिस्ट। श्री बा.गंगा प्रसाद जी बी.ए., श्री बा. आशाराम जी बी.ए., श्री पं. रामनारायण मिश्र बी.ए., श्री पं. रामचन्द्र शर्मा इंजीनियर, वैद्यराज श्रीकल्याण सिंह जी, श्रीस्वामी मंगलदेव जी संन्यासी, इत्यादि।

पत्र का मूल्य बहुत ही कम। नाममात्र डेढ़ रुपए रखा गया है, इस पर विद्यार्थियों को एक में ही दिया जायगा, और विद्यालय कमेटी के मेम्बर मुफ्त पावेंगे। ऐसी दशा में ‘भारतोदयाभिलाषी’ महाशयों का कर्तव्य है कि वे स्वयं इसके ग्राहक बनें और दूसरों को बनावें, जिन सज्जनों के यहाँ अतिथि के रूप में ‘‘भारतोदय’’ पहुँचे, आशा है कि वे अपनी आतिथेयता का परिचय देंगे और इसे विमुख और निराश न लौटाएंगे क्योंकि:-

 ‘‘अतिथिर्यस्य भग्नाशो, गृहात्प्रतिनिवर्तते।

 स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा, पुण्यमादाय गच्छति।।’’

भारतोदय का विषयवार अनुक्रम इस प्रकार था-

1. वेदमन्त्रार्थप्रकाश.........कृवेदतीर्थ                                                                 1

2. भारतोदय (कविता)......श्री पं. नाथूराम शंकर शर्मा                                         4

3. सुखवाद.........श्री मास्टर गंगाप्रसाद बी.ए.                                                     9

4. महिलामंडल.........एक ब्राह्मण                                                                   14

5. भ्रातृभाव......सहायक संपादक                                                                     18

6. प्रकृतिस्तवः (संस्कृत कविता) ...... श्री पं. भीमसेन शर्मा                               21

7. मेसमेरिज़्म और संध्या...... रा.ब.मा. आतमाराम जी                                    22

8. महाविद्यालय समारंभ.........                                                                     25

9. म.वि. समाचार, लोकवृत्त इत्यादि............                                                  34

लोकवृत्त के अंतर्गत जो समाचार प्रथम अंक में प्रकाशित किएगए थे, उनमें- ’देशभक्त.. श्री अरविंद घोष, कवि अध्यापक और बैरिस्टर (प्रो. इक़बाल संबंधी), अमीर की उदारता (अमीर काबुल के प्राणहरण की साज़िश संबंधी समाचार), फ़ारस और टर्की (दोनों राज्यों में खूनखराबी के बाद शांति संबंधी समाचार), जल प्रलय (दक्षिण में 7-8 मई को 48 घंटे के अंदर 23 इंच पानी की बरसात से आई जलप्रलय संबंधी समाचार हैदराबाद से प्राप्त हुआ था), सिंहल द्वीप (सिलोन) में विश्वविद्यालय स्थापना का समाचार आदि समाचारों के अतिरिक्त अनेक समाचार भी प्रकाशित किए जाते थे।

-ता. 11 मई की अमृत बाज़ार पत्रिका में किसी मुम्बई के व्यापारी महोदय के टाइम्स आफ इंडिया में लिखे हुए लेख का सारांश छपा है। उससे ज्ञात होता है कि अहर्निश स्वदेशी माल की ओर व्यापारियों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। यह ज्ञात हुआ है कि पूर्व वर्ष की अपेक्षा मुम्बई में डेढ़ लक्ष कपास के गट्ठे अधिक आए। जापान ने 290000 गट्ठे मँगाए। इससे बढ़कर स्वदेशी की कृतकार्यता का क्या प्रमाण होगा कि 12 वर्ष पूर्व स्वदेशी माल पर टैक्स द्वारा ग्यारह लाख प्राप्त हुए थे। आज उसी पर सरकारी आय 33 लक्ष हो गई है।

- अमेरिका में बिनौलों से घी बनाने के पचासों कारखाने हैं। अब समाचार पत्रों में चर्चा है कि बम्बई में भी ऐसा कारखाना खुलने वाला है। (आशा है दुग्धद्रोही ला. देवीदास जी आर्य यह सुनकर बहुत खुश होंगे)। भारतवर्ष का करोड़ों मन घी परदेश चला जाता है। अब वह दिन आने वाला है जब बिनौलों का घी मिलेगा, अमेरिका वालों की खूब बनेगी। स्वदेशी के प्रेमी उद्योग करें कि भारत का घी भारत ही में रहे। परमात्मा इस नवीन घृत से बचावे।।

- पाश्चात्य विद्वानों के बुद्धिवैशद्य को देखकर आह्लाद हुए बिना नहीं रहता, पेरिस में प्रसिद्ध अनुभवी ज्योतिशास्त्र विशारदों की एक सभा होने वाली है जिसमें आकाश के प्रत्येक भाग का चित्र खींचा जावेगा। आकाश के 22054 विभाग किए गए हैं। प्रत्येक भाग का पृथक् पृथक् चित्र रहेगा, तारे, उनकी गति व उनका स्थिति स्थान आदि का भी अद्भुत दृश्य रहेगा। ग्रीनिच की वेधशाला की ओर से इसी विषय पर दो अद्भुत ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं जिनमें 19000 तारों का सचित्र वर्णन है। इस विषय में अन्वेषण करने के लिए अन्य वेधशालाएं भी यत्न कर रही हैं।

- एक ज्योतिर्विद् का कथन है कि ये इतने असंख्य तारागण क्यों बनाए गए। हमारे प्रकाश के लिए तो इन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जितना चंद्रमा है उससे वह कुछ और बड़ा हो तो रात्रि का काम और भी अच्छा चल सकता है। हमको वृथा संदेह में डालने के लिए कहें, तो ईश्वर का इस में क्या प्रयोजन है। इससे विदिता होता है कि तारे भी सूर्यवत् स्वतंत्र प्रकाश के गोलक हैं। और न जाने क्या क्या है।

- मिलौनी नामक विद्वान् का कथन है कि चंद्रमा की किरणों में भी उष्णता का कुछ अंश होता है। वेनिस, ल्फोरेन्स व पदना के वनस्पतिगृह में कई विद्वान ने इस विषय में बहुत कुछ अनुभव करके देखा है (कहीं यह विद्वान शकुंतला के दुष्यंत तो नहीं! उन्होंने भी चंद्रमा से अग्नि झड़ते देखी थी)

- रंगून के समाचार से विदित होता है दो जर्मन विद्वान पथिक मेकांग नदी के स्रोत की खोज लगाने के लिए जा रहे थे, मार्ग में किसी दुष्ट ने उनको मार दिया। वस्तुतः पाश्चात्य विद्वान ‘‘नाह्मस्मीति साहसम्’’ इस तत्व पर चलने वाले हैं। इसीलिए प्रत्येक कार्य में ऋद्धि व सिद्धि इनके सन्मुख हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं। इन दो महानुभावों का नाम ब्रनहेबर व हरस्क्मिट्ज है। ‘‘लिखे जब तक जिए सफरनामे, चल दिए हाथ में कलम थामे।’’

- मिस्टर एफ़. ड्यूक चीफ सेक्रेटरी बंगाल गवर्मेन्ट ने एक प्रसिद्ध पत्रक निकाला है जिसमें पुलिस को दंगे फिसाद के मौके पर बंदूकें कैसी दाग़नी चाहिए और फिसादी लोगों पर रोब डालने के लिये क्या करना चाहिए इसका वर्णन किया है। अब तक सिर्फ डराने के लिए खाली बंदूकें छोड़ी जाती थीं अब सचमुच भरी हुई छोड़ी जावेंगे।

- लोकमान्य श्रीयुत तिलक भगवद्गीता पर कुछ लिख रहे हैं। गीता के भाग्य खुले। देखें यह महापुरुष गीता पर क्या लिखते हैं। आपके दो सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘‘द आर्कटिकहोम इन द वेदाज़’’(1903), ‘ओरिअन’(1893) देखने योग्य हैं-अगाध पांडित्य का प्रमाण हैं। आपका गीता भाष्य भी उज्ज्वल गुणों से उज्ज्वल होगा।

- बड़ोदा राज्य में प्राथमिक शिक्षा बिना शुल्कादि लिए ही दी जाती है। भारतवर्ष में यह एक ही स्टेट है जहाँ यह प्रबंध हुआ है। इस विषय में सरकार सोचते ही सोचते रह गई। आज तक कुछ न कर सकी बड़ौदा महाराज ने इस प्रथा का प्रारंभ ही कर डाला।

आर्य ‘सामाजिक समाचार’ भी अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित किए गए-

- गुरुकुल महाविद्यालय के उत्सव से लौटते हुए पं. गणपति शर्मा जी ने दो व्याख्यान सहारनपुर में अत्यंत प्रभावशाली दिए। फिर वहाँ से दिल्ली पहुँचे, और वहाँ एक सप्ताह व्याख्यानों की धूम मचा दी, दिल्ली वासियों पर उनका बहुत प्रभाव पड़ा।

- अप्रैल में गुरुकुल गुुजरांवाला का वार्षिकोत्सव बड़ी रौनक से हुआ। धर्मचर्चा में भिन्न भिन्न मतवादी सम्मिलित हुए थे, अच्छा आनंद रहा, म.वि. से श्री पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ भी पधारे थे। गुरुकुल गुजरांवाला में इस समय 57 ब्रह्मचारी प्रविष्ट हैं। 3200 के करीब धन एकत्र हुआ। श्रीमान ला. रलारामजी का पुरुषार्थ प्रशंसनीय है।

- उसके पीछे आर्य समाज गुजरात (पंजाब) का उत्सव भी सानंद समाप्त हुआ। हमारे मुख्याधिष्ठाता श्री पं. नरदेव जी वहाँ भी पधारे थे।

- 28.05.09 से 1-6 तक दिल्ली सदर आर्य समाज का उत्सव बड़े समारोह से होगा, 3 दिन धर्मचर्चा के लिए रक्खे हैं। उस पर श्री पं. गणपति शर्मा जी, श्री पं. भीमसेन जी और श्री पं. नरदेव जी शास्त्री आदि अनेक विद्वान पधारेंगे।

अंत में ‘निवेदन’ किया गया

जिन सज्जनों ने ‘भारतोदय’ में समालोचना के लिए पुस्तकें भेजी हैं उनसे प्रार्थना है कि अगली संख्या में समालोचना निकलेगी, तब तक संतोष रखें। जिन सहयोगियों की सेवा में ‘भारतोदय’ पहुँचे, उनसे विनय है कि इसके बदले में अपने अमूल्य पत्र भेजकर अनुगृहीत करें। ‘भारतोदय’ को प्रथम अंक के बाद रजिस्ट्रेशन नं. । 476 प्राप्त हो गया। अगले अंक में यह नंबर प्रकाशित किया गया।

‘भारतोदय’का संघर्ष 

‘भारतोदय’ सा.प.(साप्ताहिक प्रकाशन) वर्ष 1 पुनर्जन्म में प्रकाशित इस लेख से पता चलता है-भारतोदय-इस नाम में कितनी जादू भरी है, यह नाम चित्त को जितना आह्लाद् देता है, इस नाम से रह रहकर जिन जिन बातों की याद आती है और याद कर कर जिस तरह जी भर आता है वह सब अनुभव करने की बातें हैं और प्रत्येक भारतवासी स्वयं अनुभव कर ही रहा है। शब्दों से मानसिक स्थिति का घणान अशक्य है। पर भारतोदय शब्द के अर्थ को प्राप्त करने के मार्ग में जो विकट घाटियाँ हैं उनको पार करते करते कभी कभी जो निराशा छा जाती है, वह भी अवर्णनीय है। पर सच्चे यात्री को यह निराशा स्वल्पकाल तक ही घेर सकती है। जिसकी दृष्टि उद्दिष्ट स्थल पर लगी हुई है वह कब कठिनाइयों की परवाह करता है? वह कब चैन लेता है? वह अपनों की हँसी मज़ाक भी सहता है, दूसरों की मनमानी भी सहता है, और पार हो ही जाता है। जब घाटी पर चढ़कर नीचे देखने लगता है तब पहले हँसने वाले लज्जा के मारे अपनी गर्दन झुका कर खड़े रहते हैं। ऐसे वीर पुंगव का आदर करने लगते हैं, उसके पीछे चलना सीखते हैं। जो दशा असली भारतोदय के सम्मुख है वही दशा कागज़ी भारतोदय के सम्मुख है। यह किस प्रकार मासिक रूप में निकला, फिर साप्ताहिक हुआ, फिर कटारपुर के दंगल के समय घबराकर पूर्व प्रकाशक ने किस प्रकार बिना सूचना दिए ही घर बैठे डिक्लेरेशन ख़ारिज कराया, किस प्रकार अनेक विपत्तियों से महाविद्यालय की व संचालकों की जान बची, किस प्रकार फिर उद्योग हुआ और प्रथम बार 1000 रुपए की व द्वितीयवार 2000 की जमानत माँगी गई। इन सब बातों के लिखने की आवश्यकता नहीं। हम चाहते, तो भारत भर में इस बात का हल्ला मचा देते पर महाविद्यालय के संचालक चुपचाप काम करना ही अधिक पसंद करते रहे इस विश्वास पर कि कभी तो इन कठिनाइयों का अंत होगा। सुदीर्घ परिश्रम के पश्चात् अब कहीं जाकर मुरादाबाद के कलेक्टर ने बिना जमानत ‘‘भारतोदय’’ के प्रकाशन की आज्ञा दी है और इसीलिए अब यह आपकी सेवा में फिर पहुँच रहा है। इसको अपनाइए, इसको पुचकारिए, इसकी सहायता कीजिए, इसका उत्साह बढ़ाइए। इसकी अनुपस्थिति में महाविद्यालयों में भी युगांतर उपस्थित हो गया था। उस युगांतर की राम कहानी लिखने का यह प्रसंग नहीं है। उनको याद कर जी भर आता है। जिन्होंने भुगता वही जान सकते हैं कि युगांतर था, कि बला थी, महाविद्यालय के जीवन का प्रश्न था, कि मरण का। भगवान की कृपा से युगांतर आया व गया। बलाएं आईं और गईं आगे की राम जाने। अब तक राम जी ने ही रक्षा की है। ‘चढ़ जा राम भली करेंगे’-यही तत्व संचालकों के सम्मुख है। भारतोदय की पुरानी नीति उस समय की उन उन परस्थितियों के कारण ‘स्वात्म-रक्षा’ थी। क्योंकि चहुँ ओर की मारधाड़ और जटिल तथा क्रूर संघटनों में उस नीति के बिना ‘महाविद्यालय’ की रक्षा होना असंभव था। अब समय बदल गया, शत्रु तथा मित्रों के दृष्टिकोण भी बदल गए, इसलिए भारतोदय में आगे बेहूदा खंडन-मंडन को स्थान न मिलेगा। रागद्वेषात्मक लेख रद्दी की टोकरियों में फेंक दिए जाएंगे। समय की गति के अनुसार जिससे भी भारतोदय होगा उन सब कार्यों में सहायक होना भारतोदय की नीति रहेगी। प्रमुख भाग निःशुल्क प्राचीन शिक्षा का रहेगा।

कुल मिलाकर ‘भारतोदय’ का प्रारंभ हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत में महत्वपूर्ण घटना है। पत्रिका में हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी शब्दों से कोई परहेज नहीं रखा गया है, न ही पत्रिका के पाठक को।

संदर्भ

1. भारतोदय का प्रथम अंक

2. भारतोदय साप्ताहिक का पुनर्जन्मांक

3. गुरुकुल महाविद्यालय की स्मारिका (हीरक जयंती)

बाबू बालमुकुन्द गुप्त / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



श्री गुप्त जी हिंदी के उन यशस्वी पत्रकारों में अग्रणी रखते थे जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा जहाँ हिंदी-पत्रकारिता के गौरव को बढ़ाया, वहाँ साहित्य-निर्माण की अन्य दिशाओं में भी अपनी अपूर्व मेधा का प्रखर परिचय दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने ‘सरस्वती’ के यशस्वी तथा ख्यातनामा संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रयुक्त ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर अपने पत्र ‘भारत मित्र’ में जो आंदोलन चलाया था, उसके माध्यम से उनके ‘भाषा-परिष्कार’-संबंधी विचारों से समस्त हिंदी जगत् में एक अभूतपूर्व हलचल सी मच गई थी। आपने अपने संपादन-काल में जहाँ ब्रिटिश नौकरशाही की आलोचना अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक की थी, वहाँ समाज सुधार की दिशा में भी अपनी लेखनी का पूर्ण सदुपयोग किया था। मुख्यतः उर्दू के पत्रकार होते आपने हिंदी के परिष्कार और सुधार में जो सहयोग दिया, वह अपना एक विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व रखता है। 

श्री गुप्तजी का जन्म हरियाणा प्रदेश के रोहतक जनपद के ‘गुड़ियानी’ नामक ग्राम में 14 नवम्बर सन् 1865 ईस्वी को हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने ग्राम को ही पाठशाला मंे उर्दू में हुई थी। सन् 1886 में आपने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और इस बीच अपने उस्ताद मंुशी मुहम्मद की कृपा से आपने उर्दू लिखने का अच्छा अभ्यास कर लिया था और आपकी उर्दू रचनाएँ लखनऊ के अवध पंच, लाहौर के ‘कोहेनूर’ तथा मुरादाबाद के ‘रहबर’ आदि पत्रों में अप्रकाशित होने लगी थी। जब चुनार के सुप्रसिद्ध रईस बाबू हनुमानप्रसाद ने अपने यहाँ से ‘अखबारे चुनार’ निकाला तब उन्होंने बाबू बालमुकुन्द गुप्त को ही उसका संपादक बनाया था। आपके पत्रकार-जीवन का प्रारम्भ का प्रारम्भ यहाँ से ही होता है। आप मूलतः उर्दू के पत्रकार थे, किंतु बाद में आप हिंदी में आ गए थे। उर्दू के जिन पत्रों का आपने संपादन किया था, उनमें ‘अखबारे चुनार’ (1886-1888 ई0) के अतिरिक्त ‘कोहेनूर’ (1888-1889 ई0) के नाम प्रमुख है। ‘कोहेनूर’ के बाद आप हिंदी के क्षेत्र में आ गए थे और सन् 1907 ई0 तक आपने अपनी जागरूक प्रतिभा से हिंदी के परिष्कार और प्रचार में जो योगदान दिया, वह सर्वथा अप्रतिम हे। हिंदी-पत्रकारिता के क्षेत्र में गुप्त जी सनातनधर्म के सुप्रसिद्ध नेता पंडित दीनदयाल शर्मा व्याख्यान वाचस्पति की प्रेरणा पर आए थे। 

कालाकाँकर (उत्तरप्रदेश) के राजा रामपालसिंह ने इंग्लैण्ड से आकर जब अपने राज्य से दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का प्रकाशन आरम्भ किया, तब उसके आदिसंपादक महामना मदनमोहन मालवीय थे। जिन दिनों सनातन धर्म महामण्डल का अधिवेशन वृन्दावन में हुआ था, तब वहाँ पर श्री मालवीय जी की भेंट श्री बालमुकुन्द गुप्त से हुई थी। वे पं0 दीनदयालु शर्मा के साथ वहाँ पधारे थे। मालवीय जी ने जब शर्मा जी से गुप्त जी को कालाकाँकर भेजने  का अनुरोध किया, तब शर्मा जी की प्रेरणा पर गुप्त जी कालाकाँकार चले गए और आपने सन् 1889 से 1891 ई0 तक दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का सफलतापूर्वक संपादन किया। इसके उपरान्त सन् 1893 ई0 में आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदी बंगवासी’ के सहकारी संपादक होकर वहां चले गए। 

उन दिनों ‘हिंदी बंगवासी’ के संपादक श्री अमृतलाल चक्रवर्ती थे। ‘हिंदी बंगवासी’ के कार्यकाल में आपकी लेखनी में जो प्रखरता आई थी उसका उदात्त रूप आगे चलकर हिंदी-पाठकों को उस समय देखने को मिला जब आपने सन् 1899 ई0 में ‘हिंदी बंगवासी’ से पृथक होकर ‘भारत मित्र’ में जाकर आपने पूर्ण तन्मयता से ‘हिंदी-पत्रकारिता’ के उन्नयन तथा विकास के लिए जो काय्र किया, वह आपकी सतर्क तथा सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। आपने जहाँ ‘भारत मित्र’ को सभी प्रकार की उपयोगी सामग्री से समन्वित किया, वहाँ आपके द्वारा किये गए ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ तथा ‘चिट्ठे और खत’ नामक कालमों में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य-लेखों के कारण उसकी विशेष ख्याति हुई थी। 

आपने ‘भारत मित्र’ के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा ‘सरस्वती’ में प्रयुक्त ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर जो आन्दोलन चलाया था, और ‘आत्माराम’ नाम से जो लेखमाला लिखी थी, उसके कारण अखिल हिंदी जगत् का ध्यान आपकी ओर अत्यधिक आकर्षित हुआ था। इसी प्रकार ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के संपादक मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त ‘शेष शब्द की सार्थकता तथा निरर्थकता के संबंध में भी आपने जो विवाद ‘भारत मित्र’ के द्वारा किया था, उससे भी भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में बड़ी चहल-पहल मची थी। आप क्योंकि मूलतः उर्दू के पत्रकार रहे थे, इसलिए आपकी भाषा ने उर्दू की सहज चपलता रहती थीं आपनी इन तीखी समालोचनाओं के कारण गुप्त जी उन दिनों हिंदी पत्रकारों में शीर्ष-स्थान पर प्रतिष्ठित हो गए थे। अंग्रेती शासन की निरंकुशता तथा उसके द्वारा दिन-प्रतिदिन जनता पर किये जाने वाले अनेक निर्मम अत्याचारों की गुप्तजी ने जिस निर्भीकता से आलोचना की थी, उससे आपको ‘गूंगी जनता का मुखर वकील’ के रूप में अभिहित किया जाने लगा था। आपकी निर्भीकता, दृढ़ता, ओजस्विता और विनोदप्रियता आदि सभी ने मिलकर हिंदी-पत्रकारिता में जो नई चेतना उदभूत की थी, वह बाद के पत्रकारों के लिए ‘ज्वलन्त प्रकाश-स्तम्भ’ सिद्ध हुई। आपकी व्यंग्योक्तियाँ कितनी प्रखर होती थी, इसका परिचय गुप्तजी द्वारा लार्ड कर्जन के संबंध में लिखित इस अंश से भी प्रकार मिल जाता है। --

‘अंहकार, आत्मश्लाषा, जिद और गाल-बजाई में लार्ड कर्जन अपना सानी आप निकले। जब से अंग्रेजी राज्य प्रारम्भ हुआ है, तब से इन गुणों में आपकी बराबरी करने वाला एक भी बड़ा लाट इस देश में नहीं आया। भारतवर्ष को बहुत सी प्रजा के मन में धारणा है मिक जिस देश में जल न बरसता हो, लार्ड कर्जन पदार्पण करे तो वर्षा होने लगती है और जहाँ के लोग अति वर्षा और तूफान से तंग हो, वहाँ कर्जन के जाने से स्वच्छ सूर्य निकल आता है।’’

यह भी एक सौभाग्य की बात समझी जाएगी कि मूलतः उर्दू के पत्रकार और लेखक होने पर भी आपने ‘भारत मित्र’ तथा दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के अपने हिंदी-पत्रकारिता के कार्य-काल में हिंदी की हिमायत जिस दृढ़ता से की थी, वह आपकी ध्येयनिष्ठा की परिचायक है। उर्दू और हिंदी के विवाद में आपने सदैव हिंदी का ही पक्ष लिया था। तुलनात्मक समीक्षा की पद्धति प्रचलित करने की दिशा में भी आपका बहुत बड़ा योगदान था। अनुवादक के रूप में भी आपकी शैली की प्रखरता सर्वथा असन्दिग्ध थी। आपके द्वारा किये गए ‘रत्नावली’ तथा ‘मडेल भगिनी’ नामक कृतियों के अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण है। 

आपके चुने हुए लेखों का संकलन ‘गुप्त निबन्धावली’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। आपके द्वारा लिखित ‘हरिदास’, खिलौना, ‘खेल-तमाशा’ और ‘सर्पाघात चिकित्सा’ नामक पुस्तके विशेष चर्चित रही है। जहाँ आपकी कविताओं का एक संकलन ‘स्फुट कविता’ नाम से प्रकाशित हुआ था, वहां ‘हिंदी भाषा’ नामक पुस्तक में हिंदी के व्यापक रूप पर प्रकाश डाला गया है। आपके निधन के पश्चात प्रख्यात पत्रकार पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और पंडित झाबरमल्ल शर्मा के प्रयत्न से सन् 1950 में आपकी स्मृति में ‘बालमुकुन्द गुप्त स्मारक-ग्रंथ’ नामक जो ग्रंथ प्रकाशित किया गया था, उससे आपके व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। आपका निधन 18 सितम्बर सन् 1907 ई0 को दिल्ली की लक्ष्मीनारायण धर्मशाल में हुआ था। 

आचार्य द्विवेदी जी के प्रति गुप्त जी की कितनी आस्था एवं श्रद्धा थी, इसका परिचय उनके उन शब्दों से भली-भांति मिल जाता है जो उन्होंने अपनी ‘भाषा की अनस्थिरता’ नामक निबन्ध को लिखने के स्पष्टीकरण में लिखे थे ‘‘आत्माराम ने जो कुछ लिखा है, बड़ी नेकनीयती और साफदिली से लिखा है। हिंदी के पुराने और नये सुलेखकों और सेवकों की, उनके दर्जे के अनुसार जैसी कुछ इज्जत उसके जी में है, उसी हिसाब से एक रत्ती भी कम इज्जत वह द्विवेदीजी की नहीं करता।’’ इससे आप यह अनुमान लगा सकते है कि वे भाषा-परिष्कार और औचित्य के लिए बड़े-से बड़े लोगों से टक्कर लेते रहते थे। उन्होंने लार्ड कर्जन जैसे अत्याचारी और असहिष्णु गवर्नर को खरी-खरी सुनाई थी, वहीं दूसरी और आचार्य द्विवेदी जी जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली पंडित के व्याकरण ज्ञान पर संदेह प्रकट करके उनसे अनूठा युद्ध ठान लिया था और भाषा-विवाद को लेकर उलझ गए थे। 


श्री राधामोहन गोकुल जी / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



राधामोहन गोकुलजी हिंदी-जगत की ऐसी विभूति थे जिन्होंने पत्रकारिता के साथ-साथ राष्ट्रीय जागरण में अत्यन्त उल्लेखनीय भूमिका अदा की थी। उन्होंने अपनी लेखनी से जहाँ वैचारिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रचार किया था, वहाँ अनेक ऐसे युवकों को भी तैयार किया था, जिन्होंने सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन को आगे बढ़ाया था। जिसको भारतीय राजनीति के क्षेत्र में आज ‘भगतसिंह युग’ कहा जाता है उसके सूत्रधारों में अधिकांशतः उनकी ही शिष्य-मण्डली थी। आज हमारे देश में साम्यवाद की जो विचारधारा दृष्टिगत होती है, उसके मूल प्रेरणा-बिंदु श्री गोकुलजी ही थे। आपकी ही प्रेरणा पर श्री सत्यभक्त ने सर्वप्रथम कानपुर में 1 सितम्बर 1924 को ‘कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना की थी। उनकी ‘कम्युनिज्म क्या है?’ पुस्तक के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने उनका संबंध सरदार भगतसिंह के क्रान्तिकारी दल से सिद्ध कर दिया था। 

श्री गोकुलजी का जन्म सन् 1865 में उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद जनपद के लाल गोपालगंज नामक स्थान में हुआ था। आपके पूर्वज वैसे राजस्थान के खेतड़ी राज्य के निवासी थे और दो-ढ़ाई सौ वर्ष पूर्व आजीविका की तलाश में यहाँ चले आए थे। गोकुलजी के प्रपितामह लाला परमेश्वरीदास इलाहाबाद के निकटवर्ती भदरी राज्य के राजा साहब के यहाँ खजान्ची का काम करते थे। श्री गोकुलजी के पिता का नाम गोकुलचन्द था। उनके मकान ‘लालगोपाल गंज’ और ‘बिहार’ नामक दो स्थानों पर थे, और दोनों का फासला केवल 4 मील था। राधामोहन जी की प्रारम्भिक शिक्षा बिाहर के ग्रामीण स्कूल में ही हुई थी। प्रारम्भ में आपने हिंदी पढ़ी थी, परंतु फिर 3 महीने बाद आपको उर्दू के अध्यापक के आग्रह पर उर्दू की क्लास में भेज दिया गया था। आपने वहाँ एक ‘मकतब’ में फारसी भी पढ़ी थी। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए आपको जब कानपुर भेजा गया तो वहां जाकर भी गोकुलजी ने अपने अंग्रेजी-विरोधी स्वभाव के कारण फारसी और बहीखाता ही सीखना जारी रखा। 

जब आप 13 वर्ष के थे तो आपका विवाह कर दिया गया। विवाह के उपरान्त आप अपने चाचा के पास आगरा चले गये और वहां के ‘सेण्ट जान्स काॅलिजिएट स्कूल’ में अंग्रेजी पढ़ी। सनृ 1884 ई0 में एक व्यापारिक दुर्घटना के फलस्वरूप आपके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई और आप नौकरी की तलाश में इलाहाबाद चले गए। इलाहाबाद में सरकारी अकाउंटस डिपार्टमेण्ट’ में आपको 20 रूपये की नौकरी मिल गई। किंतु वहां गोरे कर्मचारी से झगड़ा हो जाने के कारण आप उस नौकरी को छोड़कर चले आए और भविष्य में नौकरी न करने की प्रतिज्ञा की। यह घटना सन् 1886 की है। सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और ‘स्वदेशी’ का पूरा प्रचार देश में हो रहा था। आपने इसी भावना के वशीभूत होकर आर्थिक दशा ठीक न होते हुए भी इलाहाबाद में बनी ‘स्वदेशी व्यापार कम्पनी’ का 25 रूपयें का एक शेयर भी खरीदा था। इससे ‘स्वदेशी’ के प्रति आपके प्रेम का परिचय मिलता है। 

इलाहाबाद में कोई रोजगार न मिलने पर आप रीवा चले गए और एक डेढ़ वर्ष वहां रहकर फिर कानपुर आ गए। कानपुर में उन दिनों श्री प्रताप नारायण मिश्र के पत्र ‘ब्राह्मण’ की बड़ी धूम थी। गोकुलजी का झुकाव उनकी तरफ हो गया और आप श्री मिश्रजी के साथ मिलकर ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के उपासक बन गए। उन दिनो ‘ब्राह्मण’ पर आपका नाम ‘आनरेरी-मैनेजर’ के रूप में छपता था। इससे पूर्व इलाहाबाद में ही आप कविता लिखने लगे थे और पंडित बालकृष्ण भट्ट के ‘हिंदी प्रदीप’ में आपके लेख छपने लगे थे। उन्हीं दिनो ंआपने कानपुर में देश की तत्कालीन दशा पर एक पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक इतनी उग्र भाषा में लिखी गई थी कि कानपुर के सुप्रसिद्ध समाज-सेवी वकील पंडित पृथ्वीनाथ के परामर्श पर उसे जला दिया गया। उनका कहना था कि ऐसी रचनाओं का समय पचास वर्ष बाद आयेगा। इस बीच आपके परिवार की स्थिति और भी जटिल हो गई और आप हसनपुर (गुड़गांव) तथा कोसी कलाँ (मथुरा) चले आए। उन्हीं दिनों आपकी पुत्री और धर्मपत्नी का भी देहान्त हो गया। दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा न छोड़ा। सन् 1901 में 15 वर्ष की आयु में आपके एक-मात्र पुत्र का भी देहावसान हो गया। इससे फिर आप आगरा चले गए और वहीं रहने लगे। 

जब आपके ऊपर सब ओर से आपत्तियों के बादल मंडरा रहे थे, तब सन् 1904 के अंतिम दिनों में आप कलकत्ता पहुंच गए। वहां पर आप गए तोथे आजीविका की तलाश में, किंतु परिस्थितिवश वहां क्रंातिकारियों के संपर्क में आकर मारवाड़ी युवकों को इस आंदोलन में सहायता करने के लिए प्रेरित करने लगे। वहां पर आपने कलकत्ता आर्यसमाज के सहयोग से ‘सत्य सनातन धर्म ’ नामक एक पत्र निकालकर समाज में फैली हुई कुरीतियों का भंडाफोड़ करना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1907 में जब लाला लाजपतराय को देश-निकाला दिया गया तब आपने ‘देश-भक्त लाजपत’ नामक एक पुस्तक लिखी बाद में ‘प्रणवीर कार्यालय, नागपुर से प्रकाशित हुए थे। जब ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ काशी’ ने अपनी ‘मनोरंजन’ पुस्तक माला’ का प्रकाशन आरम्भ किया तो गोकुलजी को ‘नेपोलियन  बोनापार्ट’ नामक पुस्तक के अंतर्गत ही प्रकाशित हुई थी। इसके बाद आपकी लेखनी ने विश्राम ही नहीं लिया और ‘गुरू गोविन्द सिंह, ‘नीति दर्शन’ तथा ‘देश का धन’ आदि कई पुस्तकें आपने लिखीं

नागपुर के श्री सतीदास मूंधड़ा नामक एक युवक के संपर्क में आकर आपने नागपुर से ‘प्रणवीर’ नामक एक अर्ध साप्ताहिक पत्र का संपादन भी प्रारम्भ किया। वहां पर एक भाषण देने के अभियोग में आपको 6 माह का कारावास भी भोगना पड़ा था। 

इसके उपरान्त आप सन् 1925 में कानपुर आकर कम्युनिस्ट-कांग्रेस में सहयोगी बने। यहां पर आपने एक ‘क्रांतिकारी दल’ का गठन किया तथा श्री सुरेशचंद्र भट्टाचार्य के मकान में श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और भगतसिंह से भी आपका संपर्क हुआ। ‘काकोरी केस’ के बाद बचे-खुचे युवको को बटोरकर आपने और भी सुदृढ़ संगठन किया। उन्हीं दिनों काकोरी केस से फरार होकर श्री चंद्रशेखर आजाद ने कुछ दिन तक श्री गोकुलजी के घर पर ही कानपुर में निवास किया था। सन् 1929 में जब श्री सांडर्स की हत्या के कारण देश में बहुत हलचल मची थी, तब आगरा में भी श्री गोकुलजी के मकान की तलाशी ली गई थी। पुलिस ने गोकुलजी की ‘कम्युनिज्म क्या है? नामक पुस्तक को अपने कब्जें में कर लिया था। आपकी ‘क्रान्ति’ का आगमन’ नामक पुस्तक भी ऐसी ही थी। आपने आगरा ने सन् 1923 में ‘नवयुग’ नामक एक दैनिक भी निकाला था। 

जब आप पर सब ओर से संकट के बादल मंडराने लगे और आपका स्वास्थ्य भी खराब हो गया तो जून सन् 1935 में आप स्वामी ब्रहमानन्द द्वारा संस्थापित एक विद्यालय (खोही, हमीरपुर) में चले गए और वहां रहकर ही गुप-चुप क्रान्ति दल का संगठन-कार्य करने लगे। उन्हीं दिनों आपको अचानक पेचिश हो गई और चिकित्सा के अभाव में 3 सितम्बर 1935 को अपनी इहलीला समाप्त कर दी। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने आपकी स्मृति में समाज-सुधार-संबंधी उत्कृष्ट पुस्तक लिखने पर ‘राधामोहन गोकुलजी पुरस्कार’ देने की घोषणा की थी। 20 फरवरी, 1972 को आगरा की ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के भवन में गोकुलजी का एक चित्र भी उनकी 108 वीं जयन्ती पर लगाया गया था। इस चित्र का निर्माण गोकुलजी के पौत्र श्री प्रकाशचंद्र ने कराया था। 

आपके मानस में देश के लिए कुछ कर गुजरने की इतनी उत्कट आकांक्षा थी कि आप उन दिनों राजा महेन्द्रप्रताप से भेंट करने के उद्देश्य से नेपाल गये थे जिन दिनों वे विदेशी नौकरशाही के विरूद्ध जापान जाकर अपनी क्रान्तिकारी योजना बना रहे थे। वे बिना किसी को बताए शिवरात्रि के अवसर पर नेपाल के पवित्र मन्दिर ‘पशुपतिनाथ’ की यात्रा के बहाने वहां चले गए थे। लेकिन जब वहां जाकर भी उन्हें राजा साहब तक पहुंचने का कोई उपाय न सूझा तो वे वापिस भारत आ गए। आपकी देश-भक्ति तथा अटूट कार्य-निष्ठा के सम्मान में ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ नामक पुस्तक के लेखक और प्रख्यात पत्रकार पण्डित सुन्दरलाल ने यह ठीक ही लिखा है-‘‘स्वर्गीय पत्रकार भाई राधामोहन गोकुलजी को मैं उन लोगों में गिनता हूं जिन्होंने अपना सर्वस्व और सारा जीवन इस पराधीन देश को स्वाधीनता दिलाने में तथा ऊपर उठाने में खपा दिया और मैं उन्हें तथा उनके सारे जीवन को बुनियाद (नींव) के उन पत्थरों में गिनता हूँ जिनके ऊपर उस समय के और उसके बाद के लोगों ने स्वाधीन भारत की इमारत को ऊँचा किया है।’’

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी / क्षेमचंद्र ‘सुमन’

 


आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के इतिहास में युग-प्रवर्तक के रूप में विख्यात है। वे मुख्यतः निबन्धकार और समालोचक थे। उन्होंने साहित्यिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक और वैज्ञानिक आदि अनेक विषयों पर निबन्ध लिखे थे। वे कठिन से कठिन विषय को सरल भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत करते थे कि पाठक उसे सहज ही में हृदयांगम कर लेता था। हिंदी-गद्य की समृद्धि और भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में आपकी देन सर्वथा अप्रतिम कही जा सकती है। खड़ी बोली को गद्य की भांति पद्य की भाषा बनाने का आन्दोलन ीाी आपने ही चलाया था। ‘सरस्वती’ के सफल संपादन द्वारा आपने हिंदी भाषा और साहित्य की जो उल्लेखनीय सेवा की थी, उसीके कारण आपको ‘आचार्य’ का शीर्ष अभिधान प्राप्त हुआ था। सन् 1903 से निरन्तर 20 वर्षो तक ‘सरस्वती’ का संपादन करके आपने हिंदी को नई गति और शक्ति प्रदान की थी। 

आचार्य द्विवेदीजी का जन्म उत्तरप्रदेश के रायबरेली जनपद के दौलतपुर नामक ग्राम में सन् 1864 ईस्वी में हुआ था। आपके पिता श्री रामसहाय द्विवेदी महावीर हनुमान के परम भक्त थे और इसी कारण उन्होंने पुत्र का नाम ‘महावीर सहाय’ रखा था, जो बाद में आचार्य द्विवेदी के अध्यापक की भूल से ‘महावीरप्रसाद’ हो गया। यह यहां भी उल्लेखनीय है कि आचार्य जी के जन्म के आधे घण्टे बाद ‘जात कर्म’ होने से पूर्व पंडित सूर्यप्रसाद द्विवेदी नामक एक ज्योतिषी ने उनकी जीभ पर ‘सरस्वती’ का बीज मंत्र लिखा था। कदाचित् इस मंत्र ने ही आगे चलकर यह करिश्मा दिखाया कि ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में आचार्य द्विवेदी जी ने चरम कोटि की प्रसिद्धि प्राप्त की थी। प्रारम्भ में आपने घर पर ही संस्कृत की ‘दुर्गा सप्तशती’, विष्णु सहस्र नाम’, ‘शीघ्रबोध’ तथा ‘मुहूर्त चिन्तामणि’ आदि कई पुस्तकें कण्ठस्था कर ली थी। गांव के प्राइमरी स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करके आप 13 वर्ष की आयु में अंग्रेज पढ़ने के लिए अपने ग्राम से 32 मील दूर रायबरेली के हाई स्कूल में प्रविष्ट हुए।

अंग्रेजी के साथ आपने दूसरी भाषा फारसी रखी। क्योंकि उन दिनों स्कूलों में संस्कृत नहीं पढ़ाई जाती थी, इसलिए द्विवेदी जी उसका ज्ञान घर पर ही प्राप्त कर लिया था। क्यांेकि रायबरेली का स्कूल दौलतपुर से दूर था, अतः आप सुविधा की दृष्टि से पास के उन्नाव जनपद के ‘रणजीतपुरवा’ नामक स्थान पर स्थित स्कूल में आ गये। किंतु जब वह स्कूल किसी कारण से बंद हो गया तब आपको फतहपुर के स्कूल में जाना पड़ा। यहां से भी आप किन्ही असुविधाओं के कारण आगे पढ़ने के लिए उन्नाव चले गये। इस प्रकार जगह-जगह मारे-मारे फिरने और अनेक स्कूल बदलते रहने के कारण आपकी शिक्षा व्वयस्थित रूप से न हो सकी और आपने अंत में स्कूल को नमस्कार करके अजमेर जाकर 15 रूपये मासिक की रेलवे की नौकरी कर ली। 

जिन दिनों आपने यह नौकरी प्रारम्भ की थी, तब आपके पिता बम्बई मे ं थे। कुछ दिन तक अजमेर में कार्य करने के उपरान्त आप नागपुर और फिर कार्य करते हुए धीरे-धीरे आपकी उन्नति होती गई और महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के अनेक नगरों में रहकर फिर आप झांसी आकर जी0आई0पी0 रेलवे के ‘डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट’ के कार्यालय में हैड क्लर्क हो गए। झांसी में रहते हुए आपने अपने कुछ बंगाली मित्रों की कृपा से बंगला भाषा का ज्ञान भी बढ़ा लिया। मराठी का अध्ययन आपने महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कार्य-काल में कर लिया था। यहां रहते हुए भी आपने संस्कृत के काव्य तथा अलंकार शास्त्र का विधिवत अध्ययन करके साथ-साथ अपने काव्य रचना के अभ्यास को बढ़ाया। अपनी इस साहित्य-साधना के क्रम में आपके संस्कृत ग्रंथो की कई पुस्तकें तथा समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। द्विवेदी जी ने नौकरी छोड़कर ‘साहित्य सेवा’ के क्षेत्र में अवतरित होने का विचार पहले से ही बना  रखा था। इसी बीच एक ऐसी घटना घट गई जिसके कारण आपको तुरन्त नौकरी छोड़ने का निश्चय करना पड़ा। एक दिन आपकी अपने कार्यालय के नये सुपरिण्टेण्डेण्ट से खटपट हो गई और आपने तुरन्त त्यागपत्र दे दिया। 

सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण से मुक्ति पाकर आपने इंडियन प्रेस प्रयाग के स्वत्वाधिकारी श्री चिन्तामणि घोष के आग्रह पर ‘सरस्वती’ के संपादन का जो कार्य सन् 1903 को संभाला था, उसे लगभग 20 वर्ष तक पूर्ण तत्परता एवं लगन के साथ निबाहते रहे। आपके संपादन में जहाँ सरस्वती की बहुमुखी उन्नति हुई वहां आपके द्वारा हिंदी-साहित्य के उत्कर्ष का नया अध्याय ही प्रारम्भ हुआ। आपने अपनी कर्मठता से यह सिद्ध करके दिखा दिया कि एक पुरूष अपने ही उद्योग से विद्वता प्राप्त करके साहित्य-निर्माण की दिशा में उन्नति के शिखर पर किस प्रकार प्रतिष्ठित हो सकता है। आपने अपना पारिवारिक स्थति और तत्कालीन परिवेश का वर्णन करते हुए अपने जीवन संघर्षो के संबंध में जो विचार प्रकट किये थे,वे हम सब के लिए प्रेरणाप्रद है। उन्होंने लिखा था- मैं एक ऐसे देहाती का एक मात्र-आत्मज हूँ, जिसका मासिक वेतन सिर्फ 10 रूपये था। अपने गांव के देहाती मदरसे में थोड़ी सी उर्दू और घर पर थोड़ी सी संस्कृत पढ़कर 13 वर्ष की आयु में मैं 36 मील दूर रायबरेली के जिला-स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने लगा। आटा-दाल घर से पीठ पर लादकर ले जाता था। दाल ही में आटे के पेड़े या टिकिया पका करके पेट पूजा किया करता था। रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था। दो आने फीस देता था। संस्कृत भाषा उस समय स्कूल में वैसी ही अछूत समझी जाती थी, जैसे कि मद्रास के नम्नूदिरी ब्राह्मणों में शूद्र जाति समझी जाती है। विवश होकर अंग्रेजी के साथ फारसी पढ़ता था। एक वर्ष किसी तरह वहां काटा। फिर पुरवा, फतहपुर और उन्नाव के स्कूल में चार वर्ष काटे। कौटुम्बिक दूरवस्था के कारण मैं इससे आगे न पढ़ सका। मेरी स्कूली शिक्षा यही समाप्त हो गई।’’ आपको आजीवन संघर्षो से जूझकर अपने लिए नये मार्ग का निर्माण करना पड़ा था। 

आपकी प्रतिभा का ज्वलन्त प्रमाण यही है कि इतने संघर्षो में रहते हुए भी आपने अपनी लेखनी को कभी विराम नहीं दिया और प्रतिवर्ष कोई न कोई नई रचना हिंदी-साहित्य को देते रहे। आपने जहां संस्कृत में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद प्रस्तुत किया, वहां कई अंग्रेजी की उपयोगी पुस्तकों के हिंदी अनुवाद भी साहित्य-संसार को प्रदान किये। 

आपकी ऐसी कृतियों में ‘कुमार-संभव-सार’, ‘नैषध चरित चर्चा’, ‘विक्रमाकदेव चरित चर्चा’, ‘कालिदास की निरंकुशता’, ‘हिंदी कालिदास की समालोचना’, ‘किरातार्जुनीय की टीका’ और ‘मेघदूत की टीका’ के अतिरिक्त ‘स्वाधीनता’(जान स्टुअर्ट मिल की लिबर्टी का अनुवाद) और ‘शिक्षा’ (हर्बर्ट स्पेंसर की ‘एजुकेशन’ का अनुवाद) उल्लेखनीय है। आपने लार्ड बेकन के प्रमुख निबन्धों का भी अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ नाम से किया था। आपके समीक्षात्मक तथा वर्णनात्मक निबन्धों के आकलन आपकी ‘अद्भुत आलाप’ ‘आध्यात्मिकी’, ‘आलोचनांजलि’, ‘कोविद कीर्तन’, ‘नाट्यशास्त्र’, ‘प्राचीन चिन्ह’, ‘प्राचीन पण्डित और कवि’, ‘पुरातत्व-प्रसंग’, ‘रसज्ञ-रंजन’, ‘लेखांजलि’, ‘विचार-विमर्श’, ‘संकलन’, ‘साहित्य-सन्दर्भ’, ‘साहित्य-सीकर’, ‘सुकवि-संकीर्तन’ तथा ‘हिंदी भाषा की उन्नति’ विशेष उल्लेखनीय है। आपकी ‘सुमन’, ‘कविता-क्लाप’, द्विवेदी काव्यमाला’ और ‘काव्य मंजूषा’ नामक पुस्तकें कविताओं के संकलन है और ‘आख्यायिका सप्तक’, ‘चरित-चर्चा’, ‘जल चिकित्सा’ ‘वनिता विलास’ ‘नगर विलास’, ‘विदेशी विद्वान’, ‘विज्ञान-वार्ता’, ‘वैचित्रय चित्रण’, ‘संपत्ति शास्त्र’ और ‘हिंदी महाभारत’ आदि अन्य पुस्तकों का हिंदी के बहुमुखी विकास में बहुत बड़ा योगदान है। इन पुस्तकों के अतिरिक्त आको ‘विनय विनोद’ (भर्तृहरि के वैराग्य शतक का दोहो में अनुवाद) ‘विहार वाटिका’ (गीतगोविन्द का भावानुवाद), ‘स्नेह माला’ (भर्तृहरि के श्रंगार शतक’ का दोहो का अनुवाद), ‘भामिनी विलास’ (पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रंथ का छायानुवाद) आदि पुस्तकंें भी प्रकाशित हुई थी। आपने वाइरन के ‘ब्राइडल नाइट’ का छायानुवाद भी ‘सोहाग रात’ नाम से किया था, जो अप्रकाशित ही रह गया। आप संस्कृत के भी सुलेखक तथा कवि थे। आपकी संस्कृत की प्रकाशित रचनाओं में ‘देवी स्तुति शतक’, ‘कान्यकुब्जावली व्रतम्’ तथा ‘समाचारपत्र संपादक-स्तवः’ आदि प्रमुख हैं आपकी स्वाध्यायशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि इतना बहुबिध लेखन आपने किया था। 

अपने 20 वर्ष के संपादन-काल में आचार्य द्विवेदी जी ने जहाँ भाषा के परिष्कार और उसके स्वरूप-निर्धारण के लिए अथक संघर्ष किया था, वहां हिंदी में लेखकों तथा कवियों की एक पीढ़ी का निर्माण ही आपने कर दिया था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे प्रतिभाशाली कवि और अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी- जैसे तेजस्वी पत्रकार आपकी ही देन है। अपने कार्य-काल में द्विवेदी जी ने जहां हिंदी में अनेक आंदोलनों का सूत्रपात किया था, वहाँ साहित्य-क्षेत्र में व्याप्त बहुत-सी अराजकताओं का निराकरण करने में भी आप नहीं चूके। अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू जब हिंदी में लिखना अपमान समझते थे, तब आपने हिंदी का वातावरण बनाकर सैकड़ो हिंदी-लेखक तैयार किये थे। आप ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त के कट्टर विरोधी थे। आपकी ऐसी धारणा का परिचय इन पंक्तियों से मिलता है। केवल कविता के लिए कविता करना एक तमाशा है।’’ भाषा की एकरूपता तथा सरलता के संबंध में भी आपके विचार अनुकरणीय और माननीय है। इस संबंध में हिंदी में व्याप्त विषमता का विवेचन करते हुए आपने यह ठीक ही लिखा था-‘‘ गद्य और पद्य की भाषा पृथक-पृथक नहीं होनी चाहिए। हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसके गद्य में एक प्रकार की और पद्य में दूसरे प्रकार की भाषा लिखी जाती है। सभ्य समाज की जो भाषा हो, उसी भाषा में गद्य-पद्यात्मक साहित्य होना चाहिए, बोलना एक भाषा, और कविता में प्रयोग करना दूसरी भाषा प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध हैं जो लोग हिंदी बोलते है और हिंदी ही के गद्य-साहित्य की सेवा करते है, उनके पद्य में ब्रजभाषा का आधिपत्य बहुत दिनों तक नहीं रह सकता।’’

हिंदी भाषा तथा साहित्य-संबंधी आपकी उल्लेखनीय सेवाओं के उपलक्ष्य में काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने जनवरी सन् 1931 में जब आपकों अभिनन्दन-पत्र अर्पित किया था तब आचार्य शिवपूजनसहाय ने सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन -ग्रंथ समर्पित करने की योजना भी प्रस्तुत की थी। 2 मई, सन् 1933 ई0 को सभा ने बड़े समारोहपूर्वक काशी में वह अभूतपूर्व ‘अभिनन्दन-ग्रंथ’ भेट करके अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की थी। इसके 2 दिन बाद प्रयाग में भी ठाकुर श्रीनाथसिंह, मुंशी कन्हैयाला एडवोकेट तथा श्री लक्ष्मीबर वाजपेयी आदि अनेक महानुभावों के उद्योग से ‘द्विवेदी-मेला’ आयोजित करके उसमें भी द्विवेदी जी का अभिनन्दन किया गया था। आचार्य द्विवेदीजी ‘प्रचार और विज्ञापन’ से इतना दूर रहते थे कि अनेक बार प्रयास करने पर भी उन्हें ‘अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता के लिए तैयार न किया जा सका। हाँ, स्वागत-सत्कार करने में आप सबसे आगे रहते थे। इसका प्रमाण हमें इस बात से मिल जाता है कि जब कानपुर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का तेरहवां अधिवेशन सन् 1922 में किया गया था तब उसकी ‘स्वागत-समिति’ की अध्यक्षता का भार आपने ही सहर्ष संभाला था। ‘सरस्वती’ से अलग होने पर अपने जीवन के 18 वर्ष आपने अपने गाँव में रहकर ही व्यतीत किये थे। इण्डियन प्रेस से आपको पेंशन से जो पचास रूपये मिलते थे, द्विवेदी जी उसी में अपना जीवन-यापन करते थे। स्वाभिमानी इतने थे कि कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया और अपनी गरीबी मेें ही मस्त रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने आपको अपनी सर्वोच्च उपाधि ‘साहित्य वाचस्पति’ से सम्मानित किया था। 

आपका निधन 21 दिसंबर सन् 1938 को हुआ था।


श्री अमृतलाल चक्रवर्ती / क्षेमचंद्र ‘सुमन’


श्री अमृतलाल चक्रवर्ती हिंदी के ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने बंग-भाषी होते हुए भी दरिद्रता को अपनाकर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए निरन्तर अभावों और कष्टों में रहते हुए हिंदी-सेवा का पावन व्रत लिया था। उनका यह स्पष्ट मत था कि जन-भाषा जनता की जीभ हुआ करती है, जिसके कटते ही राष्ट्र गूंगा हो जाता है। श्री चक्रवर्ती यदि चाहते तो वकालत के पेशे को अपनाकर काफी धन अर्जित कर सकते थे, परंतु ‘हिंदी सेवा’ करने की पुनीत भावना के कारण उन्हें निरन्तर कष्टों का वरण करना पड़ा और नौकरी के लिए दर-दर की खाक छाननी पड़ी। अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने पत्र-संचालकों की स्वेच्छाचारिता के समक्ष कभी भी अपने घुटने नहीं टेके और निरन्तर नई-नई राहें बनाते रहे। यदि वे चाहते तो समझौता करके कलकत्ता में ही जमे रहकर  अपना जीवन-यापन कर सकते थे, किंतु वे किसी के सामने झुकें नहीं। उन्होंने अपने पत्रकार-जीवन में ‘हिंदी बंगवासी’ तथा ‘भारत मित्र’ (कलकत्ता) के अतिरिक्त ‘हिंदोस्थान’ (कालाकाँकर) और ‘वेंकटेश्वर समाचार’(बम्बई) आदि कई पत्रों का संपादन किया था। 

श्री चक्रवर्ती का जन्म अपनी ननसाल ‘इलाची’ नामक ग्राम में सन् 1863 ई0 में हुआ था। यह ग्राम कलकत्ता से पूर्व में है। आपके पूर्वजों का निवास-स्थान बंगाल के ‘चैबीस परगना’ जिले का ‘नौवरा’ ग्राम था। कुछ समय तक इलाहाबाद के रेलवे के लोको विभाग में नौकरी करने के उपरान्त वहाँ से प्रकाशित होने वाले ‘प्रयाग समाचार’ नामक पत्र में कार्य करने लगे। चक्रवर्ती जी ने अपनी पारम्परिक परिपाटी के अनुसार बचपन में संस्कृत पढ़ी थी और किशोर वय में उनका संपर्क हिंदी-प्रदेश से हो जाने के कारण हिंदी में उनकी गति अच्छी खासी हो गई थी। वे जिन दिनों अपने मामा और मौसी के साथ गाजीपुर में रहे थे, उन दिनों उन्होंने फारसी का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया था। इलाहाबाद ‘प्रयाग समाचार’के उपरान्त आपने कुछ दिन तक कालाकाँकर राज्य की ओर से प्रकाशित होने वाले राजा रामपाल सिंह के ‘हिंदोस्थान’ नामक पत्र के संपादन का दायित्व भी अपने ऊपर लिया था। 

‘हिंदोस्थान’ की नौकरी छोड़ने के बाद चक्रवर्ती जी कलकत्ता चले गये और वहाँ पर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन करके सन् 1890 में उन्होंने बी0ए0 (आनर्स) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। फिर जब कलकत्ता से ‘हिंदी बंगवासी’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तो आपने उसका संपादन लगभग 10 वर्ष तक किया था। वहाँ पर कार्य करते हुए ही आपने सन् 1894 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0एल0 की परीक्षा भी उत्तीर्ण की थी। ‘हिंदी बंगवासी’ के प्रकाशन के संबंध में श्री बालमुकुन्द गुप्त की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है- ‘हिंदी बंगवासी’ एकदम नये ढंग काउ अखबार निकाला। हिंदी में उससे पहले वैसा अखबार कभी न निकला था।...... बहुत सी ऐसी बातें उसमें छपने लगी थी जोकिसी और हिंदी अखबार में न होती थी। थोड़े ही दिनों में इसकी ग्राहक संख्या दो हजार हो गई थी।’’ सन् 1900 तक ‘हिंदी बंगवासी’में कार्य करने के उपरान्त आप बाबू बालमुकुन्द गुप्त के अनुरोध पर ‘भारत-मित्र’ में चले गए। अनेक छोटी-मोटी कहानियाँ लिखने के अतिरिक्त उसमें ‘शिवशम्भू का चिटठा’नामक स्तम्भ भी अपने ही प्रारम्भ किया था। उन्हीं दिनों आपने ‘सती सुखदेई’ नामक एक मौलिक उपन्यास भी लिखा था। जो ‘भारत मित्र’ कार्यालय से ही प्रकाशित हुआ है। ‘हिंदी बंगवासी’ कार्यालय से आपकी ‘शिवाजी की जीवनी’ तथा ‘सिख युद्ध’ नामक पुस्तको के अतिरिक्त ‘महाभारत’ ‘भगवद्गीता’ तथा संस्कृत के कई ग्रन्थों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए थे। 

लगभग डेढ़ दो वर्ष तक भारत मित्र में रहने के उपरान्त आप बम्बई के ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में चले गए। उन्हीं के प्रयास से उसका दैनिक संस्करण भी प्रकाशित हुआ था। फिर उन्होंने चतुर्वेदी पं0 द्वारकाप्रसाद शर्मा के सहयोग से प्रयाग आकर ‘उपन्यास कुसुम’ नामक एक मासिक पत्र प्रकाशित किया, किंतु एक ही अंक निकलने के बाद वह बंद हो गया, क्योंकि उसी समय आप ‘अखिल भारतीय भारत धर्म महामंडल’ के मैनेजर नियुक्त होकर मथुरा चले गये थे। वहाँ पर लगभग सवा दो वर्ष रहकर आपने ‘निगमागम चन्द्रिका’ नामक पत्र का संपादन किया था। जब मण्डल का कार्यालय मथुरा से काशी चला गया तब आप फिर ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में कार्य करने के लिए बम्बई चले गये। बंगाल में जब स्वदेशी का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब सन् 1906 से 1909 तक आपने अपनी जन्मभूमि में आकर स्वदेशी वस्त्रों का प्रचार किया। जब वे ‘कलकत्ता समाचार’ में कार्य करते थे, तब ‘भारत मित्र’के संपादक श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर से अनेक विषयों पर उनके मतभेद भी हुए थे। जिसका उन्होंने अपने पत्र में खुलकर विरोध किया था। उन पत्रों में कार्य करने के अतिरिक्त आपने ‘श्री सनातन धर्म’ और ‘फारवर्ड’ आदि कई पत्रों में कार्य किया था, परंतु सैद्धान्तिक मतभेद होने के कारण वे उनमें अधिक दिन तक हीं टिक सके। 

श्री चक्रवर्ती जी की संपादन-शैली का निखार-परिष्कार ‘हिंदी बंगवासी’ के कारण हुआ था। उनके संपादन-काल में उसमें सभी प्रकार की सामग्री प्रकाशित होती थी। मूलतः बंगला-भाषाभाषी होते हुए भी आपने हिंदी सेवा का जो व्रत लिया था, कदाचित् उसी के कारण आपको अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के वृन्दावन में नवम्बर सन् 1925 में संपन्न हुए सोलहवें अधिवेशन का सभापति भी बनाया गया था। सन् 1885 से लेकर सन् 1925 तक निरन्तर चालीस वर्ष आपने हिंदी की सेवा की थी। कुछ दिन तक आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘उपन्यास तरंग’ और ‘श्री कृष्ण संदेश’ के संपादकीय विभाग में भी रहे थे। आपके द्वारा लिखित ‘चंद्रा’ नामक उपन्यास अनेक वर्ष तक हिंदी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं में पाठ्यक्रम के रूप में रहा था। आपका निधन सन् 1936 में कलकत्ता में हुआ था। 

जब आप हिंदी साहित्य सम्मेलन के वृन्दावन में संपन्न होने वाले ‘षोडश अधिवेशन’ के अध्यक्ष बनाए गए, तब ‘विशाल भारत’ के ख्यातनामा संपादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनके व्यक्ति तथा कृतित्व की सराहना करते हुए जो विचार प्रकट किये थे, उनसे श्री चक्रवर्ती जी की विशेषताओं का परिचय भली प्रकार मिल जाता है। उन्होंने लिखा था- ‘‘षोडश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति ने अपने जीवन में अनेक व्यवसाय और अनेक काम किये है, पर आपकी प्रकृति हिंदी-पत्र संपादन की ओर ही रही है। आपकी जीवन-परिधि का केन्द्र जर्नलिज्म ही रहा है। सन् 1885 से लेकर जबकि आप ‘हिंदोस्थान’ के संपादकीय विभाग में काम करने के लिए कालाकाँकर चले गए थे, सन् 1925 तक यानी इन चालीस वर्षो में आपने हिंदी जर्नलिज्म का खूब अनुभव प्राप्त किया। मातृभाषा बंगला होने पर भी राष्ट्रभाषा गांधी, माधवराव सप्रे और अमृतलाल चक्रवर्ती को, जिनकी मातृभाषाएँ क्रमशः गुजराती, मराठी, और बंगला थी,हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति निर्वाचित कर हिंदी जनता ने अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया है। हिंदी के राष्ट्रभाषा होने का इससे उत्तम प्रमाण और क्या मिल सकता है।’’

जिन दिनों आप हिंदी सहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए गये थे, तब आप अपना जीवन अत्यन्त विपन्न अवस्था में व्यतीत कर रहे थे। आपके पास वृन्दावन तकजाने के लिए न तो किराये के पैसे थे और न पहनने के लिए उपयुक्त वस्त्र ही थे। मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव के अनुरोध पर ‘मतवाला’ के संचालक महादेवप्रसाद सेठ ने जब इस संबंध में उनकी कुछ सहायता करनी चाही तो उन्होंने पहले तो लेने से इन्कार कर दिया, किंतु बाद में उसके बदले कुछ काम कर देने की शर्त पर आपने यह सहायता स्वीकार कर ली। उन दिनों ओढ़ने के लिए एक फटा-सा कम्बल और जीर्ण-जर्जर चटाई के सिवा आपके पास कुछ न था। यहाँ तक कि एक बार किसी व्यक्ति का ऋण न चुका पाने पर आपको कठिन कारावास की सजा भी भुगतनी पड़ी थीं 

आपके मानस में हिंदी के प्रति प्रेम किस प्रकार उत्पन्न हुआ इसका परिचय उनके ‘मेरे संस्मरण’ नामक एक लेख की इन पंक्तियों से भली-भांति मिल जाता है- ‘‘एक दिन मैं मित्रों के साथ प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर माघ मेला देखने गया। अनेकानेक साधु एक से एक दर्शनीय आसन लगाये बैठे थे। सभी साधु केवल हिंदी बोलते थे। भारत के सभी प्रान्तों के मनुष्य उन साधुओं में थे। मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, बंगाली आदि को युक्तप्रान्तीय की तरह बोलते देखकर मैंने समझा कि हिंदी ही सर्व भारत की भाषा है। यदि गुण में वह अंग्रेजी के जोड़ की हो जाये और अंग्रेजी के बदले प्रान्त-प्रान्त के परस्पर मनोभावों के आदान-प्रदान का माध्यम हो, तो जातीय अपमान और अभाव-बोध की ग्लानि का अंत करके देशात्म-बोध जाग्रत कर दे।....... हिंदी लिखने की वासना मुझमें जाग्रत हुई।‘प्रयाग समाचार’ के संपादक पण्डित देवकीनन्दन त्रिपाठी और ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट हमारे हिंदी लिखने के प्रेरक बने।’’

जिन दिनो आप अत्यन्त आथ्रिक कठिनाइयों में थे, तब आपने ‘विनम्र निवेदन’ शीर्षक से एक ऐसी कविता लिखी थी जिसमें आपने हिंदी-जगत से अपनी विपन्नावस्था के प्रति सहायता की याचना की थी। यह कविता वास्तव में श्री चक्रवर्ती जी की स्थिति की ही नहीं, प्रत्युत उस समय के प्रायः सभी पत्रकारों एवं साहित्यकारों के कष्टों की गाथा है। ‘सरस्वती’ के जनवरी सन् 1929 के  अंक में प्रकाशित यह कविता अविकल रूप में यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। 

होता स्मृत हिंदी लेखक चिता में जलने पर।

जलता मैं चिता से बढ़, हे हिंदी प्रेमिकवर।।

ऋणी, निरन्न रूग्ण,वृद्ध अब धनार्जन अक्षम।

दो सहस्र मुद्रा अर्थ महाजन दिखते यम।।

चिर-हिंदी-व्रती सेवक की आज दीन दशा यही।

अध्ययन-रत पुत्र-पठन रोके बिना गति नहीं।।

हिंदी-गद्य चला जब से तभी का हूं लेखक।

छियालीस सुदीर्घ वर्ष रहा पत्र-संपादक।।

धन-न्यूनता उठवाती कुटी में आत्र्त-नाद।

सहवाता दारिद्रय को सुनाता देव वाद।।

बी0एल0 में धन-राशि पर होता कर वकालत।

सरकारी नौकरी भी लाती पिनसिन सतत।।

रेलादि भी प्रोविडेण्ट फण्ड से देती धन।

न किसी ओर हुआ लुपित हिंदी-रस- विलसित मन।।

जाति-भाषा हिंदी की करने में निजाया।

उस आदि से निष्किंचन जीवन को बनाया।।

बुध परस्पर प्रान्तों के चलाते नृप-भाषा।

देश-भाषा एक बिना जाति-गठन दुराशा।।

भावार्थ सुख-साध बर्ज मनाया आत्म-तोष।

अब असमर्थ निःसहाय असाध्य निःस्व दोष।।

जब साहित्य सम्मेलन सभापति पद मिला।

तो हिंदी-पे्रमियों का प्रेम-सुमन खिला।।

अब जब रूज ऋण दारिद्रय रूलाते वृद्ध-प्राण।

तो क्या फण्ड प्रोविडेण्ट गढ़ेंगे क्षम सुजान।।

हे समर्थ संपादको यदि कृपा करें आप।

तो हो लुप्त चुटकी से, अन्ततः ऋण अभिशाप।।

दो दो सौ पाठकों से यदि बस ही महाशय।

ले एकेक दे मुद्रा तो उऋण हो जाऊँ जय।।

अमृतलाल चक्रवर्ती विनम्र का निवेदन।

करूणाकर महोदयों कीजै भय-निवारण।।

क्या आप आज यह कल्पना कर सकते है कि कभी चक्रवर्ती जी को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ा होगा।


मेहता लज्जाराम शर्मा / क्षेमचंद्र ‘सुमन’


मेहता लज्जाराम शर्मा हिंदी-पत्रकारों की उस पीढ़ी में अग्रण्य स्थान रखते है, जिन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी न होते हुए भी उसे राष्ट्र सेवा की पवित्र भावना से अपनाया थाद्य। गुजराती-भाषी होते हुए भी आपने हिंदी सेवा का जो पावन संकल्प लिया था, उसे आजीवन निभाया और ‘वेंकटेश्वर समाचार’में जाने से पूर्व आपने बूंदी से ‘सर्व हित’ नामक जिस पत्र का संपादन किया था उसमें आपकी पत्रकारिता के प्रारम्भिक चिन्ह देखे जा सकते है। 

श्री मेहताजी का जन्म बूँदी (राजस्थान) के एक गुजराती ब्राह्मण-परिवार में सन् 1863 में हुआ था। आपके जन्म के सम्बन्ध में यह सर्वविदित तथ्य है कि ईश्वरीय नियम के विपरीत आप माता के गर्भ में 9 मास के बजाय 18 मास तक रहे थे। इसका उल्लेख मेहताजी ने अपनी ‘आत्मकथा’ में इस प्रकार किया है-‘‘यह ठहरी हुई बात है कि बिना किसी बीमारी के प्रकृति के नियत समय के अतिरिक्त बालक गर्भ में निवास नहीं कर सकता। मैं 18 मास तक गर्भ में रहा। इसके लिए मेरी माता कभी-कभी कुछ कहा भी करती थी, किंतु इतना निश्चय है कि मेरी बीमारी ने मेरे साथ-साथ ही जन्म ग्रहण किया था। जन्म से लेकर आज तक चैसठ वर्षो का अधिक भाग मेरा बीमारी ही बीमारी में व्यतीत हुआ है।’’ आपके जीवन में एक बात और नई थी। आप दाहिने हाथ की बजाय बाएँ हाथ से लिखा करते थे। आपके बचपन का नाम ‘लल्लू’ था, जो कालान्तर में विद्यालय में जाने पर ‘लज्जाराम’ हो गया था। 

यद्यपि आपकी मातृभाषा गुजराती थी, किंतु हिंदी-भाषा के प्रचार तथा प्रसार के लिए आपने अपना समस्त जीवन ही खपा दिया था। आपकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई थी और गुजराती के अतिरिक्त् आपने हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। आपके पिता श्री गोपालराम नौकरी की तलाश में सन् 1854 के आस-पास बूँदी आए थे। इससे पूर्व आपके पितामह श्री गणेशराम जी कुछ समय तक अनूपशहर (बुलन्दशहर) भी रहे थे और वहाँ रहते हुए उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक व्यापार भी किया था। अनूपशहर में आपके परिवार की उन दिनो अच्छी ख्याति थी। बूँदी में क्योकि आपके पिता राज्य की नौकरी में थे, अतः आपका परिवार भी स्थायी रूप से बही का निवासी हो गया था। आपके पिताजी ने सन् 1854 से सन् 1881 तक निरन्तर 27 वर्ष तक बूँदी राज्य की नौकरी अत्यन्त निष्ठापूर्वक की थी। 

बाल्यावस्था से ही स्वाध्याय की प्रवृत्ति होने के कारण आप प्रायः पुस्तको में खोए रहते थे। इस कारण आपको ‘ग्रन्थ चुम्बक’ भी कहा जाता था। अपने निरन्तर अभ्यास के कारण उन्हीं दिनों आपने ‘मराठी’ भाषा का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त आपने संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी आदि भाषाओं में इतना नैपुण्य बना लिया था कि आप उनमें अपना कार्य-व्यवहार सरलतापूर्वक कर सकते थे। 

प्रारम्भ में आपने अपने पिताजी के निधन के कारण सन् 1881 में एक कपड़े की दुकान पर नौकरी की थी और बाद में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गए थे। इस बीच आपने अपने गुरूदेव श्री गंगासहाय जी के आग्रह से बूँदी के राजकीय प्रेस से ‘सर्वहित’ नामक एक पाक्षिक पत्र सन् 1890 में प्रकाशित कराया और लगभग 6 वर्ष तक उसका सफलतापूर्वक संपादन किया था। यहाँ पर भी आपका मन अधिक समय तक नहीं जम सका और आप बम्बई से प्रकाशित होने वाले ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के सहकारी संपादक होकर वहाँ चले गए। उन दिनों बाबू रामदास वर्मा ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के सहकारी संपादक होकर वहाँ चले गए। उन दिनों बाबू रामदास वर्मा ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के प्रधान संपादक थे। उस समय मेहताजी का वेतन केवल 35 रूपये मासिक निश्चित  किया गया था। इस बीच जब ‘वेंकटेश्वर समाचार’ की व्यवस्था कुछ बिगड़ गयी और उसकी ग्राहक संख्या कम होने लगी तो संचालकों की अनुमति से मेहता जी ने अपने एक संबंधी श्री रामजीवन नागर को उसकी व्यवस्था ठीक करने के लिए वहाँ बुला लिया। जिन दिनों मेहता जी ने यह कार्य-भार संभाला था, तब उसमें राजनीतिक विषयों तथा अन्य विश्व-रंगमंच की घटनाओं के समाचारों का सर्वथा अभाव रहता था और केवल धार्मिक तथा सांस्कृतिक समाचार ही छपा करते थे। मेहताजी ने कार्य संभालते ही सारी रीति-नीति बदल डाली और उसमें देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थतियों का भी सम्यक् होने लगा। आपने अपने संपादन काल में उसमें प्रकाशित होने वाले लेखों का स्तर इतना उन्नत कर दिया था कि उस क्षेत्र के अधिकांश मराठी तथा गुजराती भाषाओं के प्रमुख पत्र भी ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में प्रकाशित रचनाओं को अपने पत्रों में प्रकाशित करने लगे थे। 

‘वेंकटेश्वर समाचार’ के माध्यम से मेहताजी ने जहाँ बम्बई जैसे अहिंदी भाषा प्रदेश में हिंदी का गौरव बढ़ाया, वहाँ आपने अटूट लगन तथा अनन्य कर्मठता से उसे देश के प्रतिष्ठित पत्रों में एक उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त अपने संपादन-का में आपने ऐसे अनेक साहित्यिक आंदोलनों का भी सूत्रपात किया जिनके कारण उसकी ओर देश के सभी बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित हो गया और भारत के सभी अंचलों में उसका उत्सुकतापूर्वक स्वागत किया जाने लगा। आपने अपने संपादन काल में पत्र सब ग्राहकों को प्रत्येक वर्ष अच्छी-अच्छी उपहार पुस्तकें देने की योजना भी चालू की थी। 

इस योजना के अन्तर्गत भेंट की गई सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा मूल बंगला में लिखित ‘देशेर कथा’ का हिंदी अनुवाद ‘देश की बात’ तथा प्रख्यात विचारक बेकन के गम्भीर निबन्धों का हिंदी अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ नामक पुस्तकें विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें से पहली पुस्तक का अनुवाद श्री माधवप्रसाद मिश्र तथा दूसरी का अनुवाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया था। इस बीच पारिवारिक परिस्थितियों के कारण आपको सन् 1905 की बसंत पंचमी को निरन्तर 7 वर्ष तक कार्य करने के उपरान्त बम्बई छोड़नी पड़ी और आप वहाँ से आकर बूँदी राज्य की सेवा में लग गए। बूँदी में रहते हुए ही आपने जहाँ ‘बूंदी राज्य की सेवा में लग गए। बूंदी में रहते हुए ही आपने जहाँ ‘बूँदी का इतिहास’ लिखा वहाँ अपने को पूर्णतः साहित्य की समृद्धि के लिए ही समर्पित कर दिया। 

बम्बई में रहते हुए आपने जहाँ हिंदी-पत्रकारिता के गौरव में अभिवृद्धि की थी, वहां बूँदी आकर आपने अपनी प्रतिभा का सर्वागीण परिचय दिया। आपकी ऐसी प्रतिभा के दर्शन आपके सभी गं्रथों को देखने से हो जाते है। आपने लगभग 23 ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें से 13 उपन्यास तथा अन्य ऐतिहासिक पुस्तकें है। काल-क्रम से आपकी मौलिक रचनाओं की सूची इस प्रकार है। - उपन्यासः ‘धूर्त रसिकलाल’ (1898) ‘स्वतन्त्र रमा और परतन्त्र लक्ष्मी’ (1899), ‘हिंदू गृहस्थ’ (1901), ‘आदर्श दम्पति’ (1902),‘सुशीला विधवा’ (1907), बिगड़े का सुधार’ (1907), विपत्ति की कसौटी, (1925), तथा ‘आदर्श हिंदू’-तीन भाग, (1915), कहानीः बीरबल विनोद (1986) शिल्प तथा कारीगरीः ‘भारत की कारीगरी’ (1902) इतिहास एवं चरित्र ग्रंथः विक्टोरिया चरित्र’ (1901), अमीर अब्दुर्रहमान’ (1902) 

‘उम्मेदसिंह चरित्र, ‘बूंदी का इतिहास’(1912), जुझारू तेजा’ (1915) ‘पराक्रमी हाडाराव’, ‘बूँदी के हाडा-वंशी राजाओं का इतिहास’ (1915)‘ पं0 गंगासहाय जी का जीवन-चरित्र’ (1928), ‘ओक्षणम् गोत्र का वंश-वृक्ष, आत्म जीवनीः ‘आप बीती (1833)। इन मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त आपने गुजराती से भी कुछ उपन्यासों के हिंदी-अनुवाद प्रस्तुत किये थे, जो इस प्रकार है।- ‘विचित्र स्त्री चरित्र’, धूर्त चरित्र, ‘शराबी की खराबी’, पन्द्रह लाख पर पानी’ (1896) और ‘कपटी मित्र’(1900)। मेहताजी ने अपनी लेखनी के द्वारा पत्रकारिता-क्षेत्र की अभिवृद्धि करने के साथ-साथ अपने उपन्यासों के माध्यम से साहित्य में समाज-सुधार की भाव-धारा का प्रचलन भी किया था। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विवेकी समीक्षक ने अपने इतिहास में आपको ‘उपन्यासकार’ न मानकर केवल ‘अखबार-नबीस’ के निकृष्ट विशेषण से क्यो याद किया है?

यद्यपि ‘वेंकटेश्वर समाचार’ से अवकाश ग्रहण करके बूँदी वापस लौटने के उपरान्त आपने लेखन से सन्यास सा ही ले लिया था, किंतु ‘कलकत्ता-समाचार’ के संपादक श्री झाबरमल्ल शर्मा और ‘माधुरी’ ‘सुधा’ ‘मनोरमा’, वीणा, ‘कल्याण’ और ‘सौरभ’ आदि तत्कालीन अनेक मासिक पत्रों के अतिरिक्त ‘कलकत्ता समाचार’ ‘हिंदू संसार’ और वेंकटेश्वर समाचार’ आदि अनेक साप्ताहिक पत्रों की फाइलों में देखे जा सकते है। 

आप स्वभाव से कितने विनम्र तथा संकोची थे, इसका सुस्पष्ट प्रमाण यही है कि जब सन् 1928 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए ‘माधुरी’ के अप्रैल 1928 के अंक में उसके संपादक ने मेहताजी के नाम की संस्तुति की और देश के प्रायः सभी साहित्यकारों एवं मनीषियों ने एक स्वर से इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया तब मेहताजी ने स्पस्ट रूप से यह लिखकर क्षमा याचना की थी-‘सम्मेलन का सभापति ऐसा होना चाहिए जो साहित्य का पूर्ण विद्वान होने के अतिरिक्त् साल भर तक सम्मेलन के सिद्धान्तों का प्रचार करने में सिद्धहस्त हो।.... आपने मेरे जैसे अकिंचन लेखक का नाम भी इस पद के योग्य विद्वानों में संयुक्त कर दिया है, यह आपका अनुग्रह है। ...मैं क्षमा मांगकर निवेदन करता हूं कि मुझे आजीवन इस कोने में ही पड़ा रहने दीजिए।’’ और वास्तव में आप एकान्त में रहकर ही हिंदी की सेवा करते रहे। आप हिंदी को राष्ट्र-भाषा के पावन पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए सत्त प्रयत्नशील रहा करते थे। इस संबंध में आपकी यह निश्चित धारणा थी-‘‘ अब वह समय अधिक दूर नहीं, जब देश में एक छोर से दूसरे छोर तक हिंदी का सार्वजनिक डंका बजेगा, भारत के भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति करते हुए एक तन्त्र से नत-मस्तक हो, हाथ जोड़े हुए हिंदी की आरती करेंगे और इसकी छोटी बहन, या यदि कोई छोटी कहने से बुरा मानते हो तो बड़ी बहन उर्दू पास खड़ी हुई इसकी बलैयां लेगी और राजभाषा अंग्रेजी अपने ठाठ, अपने गौरव, अपनी प्रतिभा और अपने आतंक को अपने हृदय-कोष में धारण किये हुए भी इसे फूलों की माला पहनाएगी।’’

आपका निधन 29 जून, सन् 1931 को हुआ था।

पीएम अब कारगिल-लद्दाख के नेताओं से करेंगे बात

एक जुलाई को बुलाई बैठक




केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को लेकर सर्वदलीय बैठक बुलाने के बाद अब कारगिल और लद्दाख की पार्टियों के नेताओं से मुलाकात करने की पहल की है। इसके तहत 1 जुलाई को कारगिल और लद्दाख के नेताओं और समाजसेवियों को बैठक के लिए आमंत्रित किया गया है। कश्मीर की मौजूदा स्थिति और भविष्य को लेकर केंद्र सरकार यह पहल कर रही है। 24 जून को हुई सर्वदलीय बैठक के संबंध में पीएम मोदी ने जम्मू-कश्मीर के नेताओं से कहा था कि दिल की दूरी और दिल्ली की दूरी को खत्म करने के लिए यह बैठक हुई। बैठक के बाद पीएम मोदी ने ट्वीट कर कहा कि हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत एक मेज पर बैठने और विचारों का आदान-प्रदान करने की क्षमता है।

24 जून की बैठक के बाद पीएम मोदी ने कहा था कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर के नेताओं से अपील की है कि लोगों को, खासकर युवाओं को जम्मू-कश्मीर को राजनीतिक नेतृत्व देना है और यह सुनिश्चित करना है कि उनकी अपेक्षाएं पूरी हों। सर्वदलीय बैठक में आठ दलों के 14 नेता शामिल हुए थे। इन नेताओं में नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता फारूक अब्दुल्ला, उनके पुत्र व पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रमुख महबूबा मुफ्ती और पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद प्रमुख रूप से मौजूद थे। 

इस सर्वदलीय बैठक के बाद कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि सरकार के सामने उन्होंने कुछ मांगें जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा मिले, तुरंत चुनाव कराने और कश्मीरी पंडितों पर ध्यान देने, अनुच्छेद 370 के प्रावधान खत्म होने के बाद से हिरासत में लिए गए नेताओं को छोड़ने  आदि की रखी। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में युवाओं को रोजगार और जमीन की गारंटी देने की भी सरकार से मांग की है।

अब डरा रहा डेल्टा प्लस



कोरोना महामारी की दूसरी लहर कमजोर पड़ने के बाद देश ने अभी राहत की सांस ली भी नही है कि अब डेल्टा प्लस दस्तक दे चुका है। केंद्र सरकार लगातार हालात की समीक्षा कर रही है। अब तक 12 राज्यों में डेल्टा प्लस के 52 केस मिले हैं। मप्र में दो की मौत हो चुकी है। मौत उन्हीं लोगों की हुई है, जिन्हें वैक्सीन नहीं लगी थी। वैक्सीन इस वेरिएंट से भी बचाव में मदद्गार होगी। 

हिंदू साम्राज्य दिवस पर व्याख्यान​

 भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत और नोएडा इकाई द्बारा "हिंदू साम्राज्य दिवस" पर "शिवाजी महाराज की राज्य और पर्यावरण संरक्षण व्यवस्था" पर व्याख्यान​ 




हिंदू साम्राज्य दिवस पर भारतीय प्रज्ञान परिषद मेरठ प्रांत और नोएडा इकाई द्वारा अलग-अलग संपन्न हुआ। कार्यक्रम का संचालन भारतीय प्रज्ञान परिषद के जिला मीडिया प्रबंधन डॉ अमित अवस्थी और धन्यवाद ज्ञापन डॉ दिनेश शर्मा ने किया। कार्यक्रम क्षेत्र संयोजक माननीय भगवती प्रसाद राघव जी के सानिध्य में संपन्न हुआ! कार्यक्रम में मुख्य वक्ता प्रांत शोध संयोजक डॉ शीला टावरीजी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जिला प्रचारक श्रीविशालजी, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा रहे। नोएडा इकाई द्वारा कार्यक्रम गूगल मीट एप पर संपन्न हुआ। मेरठ प्रांत फेसबुक कार्यक्रम प्रबंधन प्रांत संयोजक इंजी. अवनीश त्यागी द्वारा रहा। मेरठ प्रांत कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर बीरपाल सिंह की उपस्थिति द्वारा हुई!

कार्यक्रम की मुख्य वक्ता के रूप में डॉ शीला टावरीजी रही जिन्होंने भारत के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालते हुए महाराजा छत्रपति शिवाजी के बारे में बताया ।उन्होंने महाराज शिवाजी के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं को श्रोताओ के सामने रखा जिससे सभी प्रबुद्ध चिंतको एवम श्रोताओ को बहुत ही प्रेरणा  मिली । आपने बताया कि जब अफजल खान छत्रपति शिवाजी महाराज से मिलने के लिए उनके यहां आना चाहता था तो किस प्रकार से शिवाजी महाराज ने अफजल खान के मंसूबों पर पानी फेर दिया था ,अफजल खान बहुत ही ज्यादा  कपटी और धोखेबाज  बादशाह था वह चाहता था कि मैं छत्रपति शिवाजी को सन्धि के बहाने उसके यहां जाकर धोखे से मौत के घाट उतार दूंगा इसीलिए उसने शिवाजी के यहां जाने की योजना बनायी।  वह छत्रपति शिवाजी महाराज से डेढ़ गुना लंबा और 4 गुना वजनदार था उसे इस बात का अभिमान था कि वह शिवाजी को अपनी मुट्ठी में बोचकर मार डालेगा परंतु उस मूर्ख को छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ और बुद्धिमत्ता का ज्ञान नहीं था। जब उसके आग्रह पर छत्रपति शिवाजी ने उस का प्रस्ताव स्वीकार किया और उसे अपने यहां मिलने के लिए बुलाया तब   शिवाजी महाराज जानते थे कि यवनो को वैभवशाली महल और शान शौकत अधिक प्रिय हैं इसीलिए उन्होंने उसके लिए बहुत ही सुंदर और मनोरम स्थान पर मिलने का प्रस्ताव भेजा उधर अफजल खान भी अपनी पूरी तैयारी के साथ था उसने लगभग 32000 यवनों को अपने साथ सेना के रूप में रखा हुआ था वह चाहता था कि मौका पड़ने पर वह शिवाजी और उसके साम्राज्य को खत्म कर देगा। परन्तु इधर छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने सैनिकों को भी पर्दो के पीछे छुपा कर रखा रखा था उनकी दूरदृष्टि यह कहती थी की अफजल खान जैसा  बेईमान प्यार मोहब्बत का नाटक करके धोखा जरूर देगा इसीलिए शिवाजी ने अपने यहां का पूरा पुख्ता प्रबंध किया हुआ था। छत्रपति का विचार था की यदि अफजल खान सच में ही संधि करना चाहता है तो ठीक बात है उसको जाने देंगे परन्तु यदि उसने जरा सी भी होशियारी दिखायी तो उसे अच्छा जवाब दिया जाएगा। शिवाजी के सभी सैनिक पूरी तरह से तैयार थे । शिवाजी ने सुरक्षा का ध्यान रखते हुए अपनी पगड़ी के  नीचे एक लोहे का कवच पहना हुआ था और अपना धातु का अंगवस्त्र पहन कर उसके ऊपर कपड़े धारण किए थे और उंगली में अंगूठी के रूप में जहर लगे हुए औजार पहने हुए थे ।इस तरह की दूरदर्शिता छत्रपति शिवाजी  में विद्यमान थी । जब अफजल खान शिवाजी के दरबार में आया तो शिवाजी लगभग ढाई घंटे तक उसके सामने नहीं आए अफजल खान को लग रहा था की शिवाजी  उससे भयभीत है जिसके कारण वह सामने नहीं आ रहा है परन्तु शिवाजी की आंतरिक भावों उसे कहां मालूम थे शिवाजी ढाई घंटे बाद धीरे-धीरे पैर रखता हुआ अफजल खान के सामने आया ।अफजल खान शिवाजी को देखकर बोला ,"आओ शिवा आओ ,  मेरे गले लग जाओ"  जब शिवाजी उसके  करीब आया तो अफजल खान ने शिवाजी पर चाकू से वार करते हुए उसे मारने का प्रयास किया परंतु शरीर में दुबला पतला होने के बावजूद भी शिवाजी ने अपने साहस और चतुराई से वह खंजर अफजल खान के सीने में ही घोप दिया और  सैनिकों को आदेश दे दिया कि आक्रमण कर दे । उन 7000 सैनिकों ने 32000 यवनो को मौत के घाट उतार दिया । इस प्रकार के चातुर्य और ज्ञान के साथ छत्रपति शिवाजी ने अफजल खान जैसे हैं विशालकाय दानव पर विजय प्राप्त की ।

इसी के साथ साथ डॉ शीला टावरीजी ने एक ग्वालन के किस्से पर भी प्रकाश डाला जिसमें उस ग्वालिन के चातुर्य का परिचय मिलता है उसके बारे में बताते हुए कहा कि  वह महिला बड़ी निडर और साहसी थी उसने लगभग समुद्र तल से 4400 फीट ऊंची गढ़ से भागकर अपनी और अपने बच्चे की सुरक्षा किस प्रकार से की है यह विचारणीय और प्रशंसनीय है उसने उस ऊंचाई से आने वाली  कंदरा  मैं से रास्ता खोज कर नीचे आने का प्रयास किया और वह पूर्णता सफल भी हुई जब नीचे उसे छत्रपति शिवाजी मिले तो उन्होंने उसकी भूरी भूरी प्रशंसा की और उस स्थान का नाम हिरकणी  बुर्ज रखा आज तक बहुत ही प्रसिद्ध है, हिरकनी उस  ग्वालिन का ही नाम था। यदि हम शिवाजी के राज्य प्रबंधन का जिक्र करे तो वह भी विशिष्ट है क्योंकि छत्रपति शिवाजी ही ऐसे राजा हुए हैं जिन्होंने अष्टप्रधान मंत्री मंडल की स्थापना की थी राज अभिषेक के बाद  उन्होंने आठमंत्रियों में विभाग वितरित कर दिए थे । उनमें से प्रत्येक मंत्री अपने स्थान की खबरें सीधे राजा तक पहुंचाते थे फिर शिवाजी इस पर संज्ञान लेते थे । छत्रपति शिवाजी का मानना था कि किसी देश या राज्य में एक ही भाषा का प्रयोग प्रशासन कार्यो में होना चाहिए प्रशासनिक कार्य एक ही भाषा में हो तो जनता को दुविधा नही होती यदि किसी राज्य में विभिन्न प्रकार की भाषाएं प्रयोग की जाएंगी तो वहां की जनता को भाषाओं को समझने में बड़ी दिक्कत होगी उन्हें यह भी मालूम  नहीं होगा कि उनके साथ क्या हो रहा है इसीलिए उन्होंने राज्य भाषा कोष की स्थापना की जो कि बहुत ही प्रशंसनीय है। 

डॉ०शीला टावरीजी ने ऐसा बताते हुए कहा कि जब औरंगजेब राजा था शिवाजी ने  औरंगजेब को कहा था कि," क्या मुग़ल साम्राज्य इतना दरिद्र और गरीब हो गया है जो उसने जनता पर जजिया कर लगा डाला"  ऐसे निडर महान शासक शिवाजी थे ।  जब यह सब हो रहा था उस समय आपने स्वराज्य की स्थापना की जिसके चलते आपने राज्य में कृषि की तरफ विशेष ध्यान दिया । यदि कृषि कार्यों में लोग लिप्त रहेंगे और फसलें होंगी तभी राज्य से भुखमरी और अकाल को खत्म किया जा सकता है एक पोषित राज्य की स्थापना की जा सकती है ऐसी कहावत है कि ,"भूखे पेट ना होय भजन गोपाला " सिद्ध होती है यदि किसी राज्य में भुखमरी होगी वहां की जनता कुपोषित हो जाएगी बीमारियों से पीड़ित होकर सभी लोग मर जाएंगे राज्य में ऐसा नहीं होना चाहिए इसीलिए शिवाजी ने कृषि की ओर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने कृषि के लिए जल की व्यवस्था करने का पूरा प्रयास किया जिसमे वे सफल भी हुए,  वर्षा के जल को रोककर बांध बनाए गए  तालाब खुदाई की गई जिससे कृषि के लिए  पानी और पेयजल की व्यवस्था की गई । पुणे में आज भी पार्वती नाम की पहाड़ी के पास एक बांध है ,एक बांध  कोंडवा स्थान पर बना हुआ है जो शिवाजी के ही समय के है। शिवाजी को कृषि का ज्ञान इतना अधिक था कि  जिसकी कोई सानी नही हो सकती। शिवाजी हमेशा फसल चक्र को अपनाने के लिए जोर देते थे जिससे फसलों को नुकसान देने वाले कीड़े मकोड़े नष्ट हो जाये और दूसरी फसलों के साथ नुकशान न  पहुंचाए।विभिन्न  प्रकार की फसलों की उपज पैदा हो । यदि राज्य में अकाल भुखमरी ,बाढ़ ,अनावृष्टि जैसी आपदाय भी आ जाती थी तो वहां की जनता को  धन ना देकर उनको कृषि यंत्र दिए जाते थे जिनमें हल और बैल की जोड़ी प्रमुखता से दी जाती थी । छत्रपति शिवाजी को अपने राज्य के लोगों के साथ हल चलाते हुए भी दिखाया गया है जिससे यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि छत्रपति शिवाजी कृषि के प्रति आस्थावान थे कृषि और धरती मां को राज्य लक्ष्मी कहते थे।  कृषि के पश्चात उन्होंने पेड़ों पर विशेष ध्यान दिया क्योंकि पेड़ वातावरण के लिए अति आवश्यक होते हैं जिससे पर्यावरण भी शुद्ध रहता है और इनसे नाव बनाने में भी बहुत ही लाभ मिलता है शिवाजी आम और कटहल जैसे फलदार वृक्षों को काटने से सदैव मना करते थे और जो फलदार वृक्ष सुख जाते थे केवल उनकी ही  कटाई की जाती थी उनका मानना था कि पेड़ों में  भी जीव होता है जिससे उन्हें कटने पर दुख होता था। छत्रपति शिवाजी को वेदों का भी ज्ञान था इनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता था उन्होंने वेद अच्छे से पढ़ रखे हो । छत्रपति शिवाजी नौसेना के जनक भी कहे जाते हैं उन्होंने ही सर्वप्रथम नौसेना की स्थापना की। वह धार्मिक जरूरत है परंतु अंधविश्वासी नहीं थे उन्होंने सदैव अंधविश्वास का खंडन किया है प्राचीन काल में कहावत है कि कभी समुद्र को लांघना नहीं चाहिए परंतु आपने अपनी नौसेना को समुद्र के पार भेजा था । उन्होंने आम और सागौन जैसी लकड़ी को काटने से मना किया उनसे अच्छी नाव का निर्माण किया जा सकता है जो नौसेना के लिए अति आवश्यक है इसके साथ-साथ अपने राज्य के पर्यावरण को बचाने में भरसक प्रयास करते थे । शिवाजी कहते थे कि दूसरे राज्य से कीमती लकडी खरीदो परन्तु अपने राज्य से लकड़ी ना काटो यदि कहीं से कोई एक लकड़ी काटनी होती तो उसके माली से आज्ञा मांगनी होती थी। इसके पश्चात  डॉ शीला टावरीजी बताती है कि उस समय हिंदुओं की बहू बेटियों को मुगल उठाकर ले जाते थे उनके साथ अनाचार किया जाता था परंतु शिवाजी ने इस तरह के कार्य पर रोक लगाने का पूरा पूरा प्रयास किया मुगलों के साथ युद्ध भी किए। शिवाजी महिलाओं की पूरी पूरी इज्जत करते थे प्रत्येक महिला को अपनी माता समान मानते थे इसका प्रमाण हमे इस किस्से में मिल जाता है एक बार की बात है जब शिवाजी का सेनापति कल्याण राज्य को जीतकर महाराज के पास आया और खुश होकर खबर सुनायी की आज हमने कल्याण राज्य जीत लिया है और मैं वहां से आपके लिए एक बेशकीमती तोहफा लेकर आया हूं आशा करता हूं कि वह आपको पसंद आएगा। शिवाजी ने आश्चर्य से देखा और कहा कि बताओ क्या तोहफा हमारे लिए लेकर आए हो तभी सेनापति ने पास में रखी हुई एक पालकी की ओर इशारा किया और जो पालकी के पर्दे उठाए गए तो उसमें एक अद्वितीय सुंदरी बैठी हुई थी जिसको देखकर शिवाजी ने उत्तर दिया ,"वाह यदि हमारी माता इतनी सुंदर होती तो हम भी इतने ही सुंदर होते" यह बात प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेरणादायक है उन्होंने उस महिला को अपनी माता समान समझा और उनको कहा कि माता प्रणाम!  इसके पश्चात शिवाजी ने आदेश दिया की इस महिला को उसके राज्यों में छोड़ दिया जाए।  जब वह महिला उसके घर पहुंचा दी गई तो शिवाजी ने अपने सैनिकों को डांट फटकार लगाई और कहा कि तुमने आज मेरे राज्य और मेरे सेनादल की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया मुझे बहुत ही कष्ट हो रहा है इस तरह के थे हमारे महाराज शिवाजी।  हमें छत्रपति शिवाजी से सीख लेनी चाहिए इतना बड़ा राजा होने के बाद भी वह प्रत्येक स्त्री का सम्मान करता था जनता का सम्मान करता था उन सभी को अपना संरक्षण प्रदान करता था।

कार्यक्रम में प्रांत अध्यक्ष प्रोफेसर बीरपाल सिंह, प्रांत संयोजक अवनीश त्यागी, गौतम बुद्ध जिला संयोजक डॉ भूपेंद्र सिंह, गाजियाबाद जिला संयोजक योगेश शर्मा, गाजियाबाद महानगर संयोजक डॉ पूनम शर्मा, श्रीकांत कुमार, हस्तिनापुर संदेश पत्रिका के संपादक डॉ सूर्य प्रकाश अग्रवाल, कार्यकारी संपादन डॉ वंदना वर्मा, डॉ चित्रा, डॉ जी.आर. गुप्ता, डॉ नितिन कुमार सिंह, डॉ बिंदु शर्मा, डॉ पृथ्वी काला देवभूमि विचार मंच, डॉ विवेक मिश्रा, डॉ मनीषा अग्रवाल, डॉ मोहित त्यागी, डॉ राज आर्यन, डॉ शुभ्रा चतुर्वेदी, सुमन शुक्ला, डॉ श्यामलेंद्रु, डॉ नीरज मौर्य,  डॉ निशा अग्रवाल, भास्कर द्विवेदी, डॉ वेगराज, डॉ संजीव पंवार, डॉ श्वेता बंसल, ललित शर्मा, डॉ शैलेंद्र, आरती मलिक, सुभाष भारद्वाज, डॉ सुशील राजपूत, डॉ ओमवीर, प्रकाश चंद, डॉ आरती मलिक, डॉ शैलेंद्र, डॉ सुधीर यादव, डॉ मनीषा, मयंक पांडेय, डॉ नीलम गुप्ता, मनीष, डॉ ओवी सिंह, डॉ अनुराधा मिश्रा, डॉ अभिषेक, अनुज, विमलेश, मानवी शर्मा, मनमोहन सिंह, सत्यम मिश्रा, महेंद्र परमार, डॉ विवेक शुक्ल, डॉ सुदेश शुक्ला, विकास गर्ग, सुशील कुमार, सुशांत शर्मा, रमेश चंद्र, डॉ अक्षय, डॉ सतीश, देवीसिंह, अरविंद कुमार, अनुज कुमार, अभिषेक आदि अनेक शिक्षाविद, प्रबुद्ध जन सहभागी रहे। 

-अवनीश त्यागी

प्रांत संयोजक

भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘धूप के अक्षर’ का लोकार्पण

हैदराबाद,  दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (उच्च शिक्षा और शोध संस्थान) तथा ‘साहित्य मंथन’ के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 4 जुलाई (सोमवार) को द...