मेहता लज्जाराम शर्मा / क्षेमचंद्र ‘सुमन’


मेहता लज्जाराम शर्मा हिंदी-पत्रकारों की उस पीढ़ी में अग्रण्य स्थान रखते है, जिन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी न होते हुए भी उसे राष्ट्र सेवा की पवित्र भावना से अपनाया थाद्य। गुजराती-भाषी होते हुए भी आपने हिंदी सेवा का जो पावन संकल्प लिया था, उसे आजीवन निभाया और ‘वेंकटेश्वर समाचार’में जाने से पूर्व आपने बूंदी से ‘सर्व हित’ नामक जिस पत्र का संपादन किया था उसमें आपकी पत्रकारिता के प्रारम्भिक चिन्ह देखे जा सकते है। 

श्री मेहताजी का जन्म बूँदी (राजस्थान) के एक गुजराती ब्राह्मण-परिवार में सन् 1863 में हुआ था। आपके जन्म के सम्बन्ध में यह सर्वविदित तथ्य है कि ईश्वरीय नियम के विपरीत आप माता के गर्भ में 9 मास के बजाय 18 मास तक रहे थे। इसका उल्लेख मेहताजी ने अपनी ‘आत्मकथा’ में इस प्रकार किया है-‘‘यह ठहरी हुई बात है कि बिना किसी बीमारी के प्रकृति के नियत समय के अतिरिक्त बालक गर्भ में निवास नहीं कर सकता। मैं 18 मास तक गर्भ में रहा। इसके लिए मेरी माता कभी-कभी कुछ कहा भी करती थी, किंतु इतना निश्चय है कि मेरी बीमारी ने मेरे साथ-साथ ही जन्म ग्रहण किया था। जन्म से लेकर आज तक चैसठ वर्षो का अधिक भाग मेरा बीमारी ही बीमारी में व्यतीत हुआ है।’’ आपके जीवन में एक बात और नई थी। आप दाहिने हाथ की बजाय बाएँ हाथ से लिखा करते थे। आपके बचपन का नाम ‘लल्लू’ था, जो कालान्तर में विद्यालय में जाने पर ‘लज्जाराम’ हो गया था। 

यद्यपि आपकी मातृभाषा गुजराती थी, किंतु हिंदी-भाषा के प्रचार तथा प्रसार के लिए आपने अपना समस्त जीवन ही खपा दिया था। आपकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई थी और गुजराती के अतिरिक्त् आपने हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। आपके पिता श्री गोपालराम नौकरी की तलाश में सन् 1854 के आस-पास बूँदी आए थे। इससे पूर्व आपके पितामह श्री गणेशराम जी कुछ समय तक अनूपशहर (बुलन्दशहर) भी रहे थे और वहाँ रहते हुए उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक व्यापार भी किया था। अनूपशहर में आपके परिवार की उन दिनो अच्छी ख्याति थी। बूँदी में क्योकि आपके पिता राज्य की नौकरी में थे, अतः आपका परिवार भी स्थायी रूप से बही का निवासी हो गया था। आपके पिताजी ने सन् 1854 से सन् 1881 तक निरन्तर 27 वर्ष तक बूँदी राज्य की नौकरी अत्यन्त निष्ठापूर्वक की थी। 

बाल्यावस्था से ही स्वाध्याय की प्रवृत्ति होने के कारण आप प्रायः पुस्तको में खोए रहते थे। इस कारण आपको ‘ग्रन्थ चुम्बक’ भी कहा जाता था। अपने निरन्तर अभ्यास के कारण उन्हीं दिनों आपने ‘मराठी’ भाषा का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त आपने संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी आदि भाषाओं में इतना नैपुण्य बना लिया था कि आप उनमें अपना कार्य-व्यवहार सरलतापूर्वक कर सकते थे। 

प्रारम्भ में आपने अपने पिताजी के निधन के कारण सन् 1881 में एक कपड़े की दुकान पर नौकरी की थी और बाद में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गए थे। इस बीच आपने अपने गुरूदेव श्री गंगासहाय जी के आग्रह से बूँदी के राजकीय प्रेस से ‘सर्वहित’ नामक एक पाक्षिक पत्र सन् 1890 में प्रकाशित कराया और लगभग 6 वर्ष तक उसका सफलतापूर्वक संपादन किया था। यहाँ पर भी आपका मन अधिक समय तक नहीं जम सका और आप बम्बई से प्रकाशित होने वाले ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के सहकारी संपादक होकर वहाँ चले गए। उन दिनों बाबू रामदास वर्मा ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के सहकारी संपादक होकर वहाँ चले गए। उन दिनों बाबू रामदास वर्मा ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के प्रधान संपादक थे। उस समय मेहताजी का वेतन केवल 35 रूपये मासिक निश्चित  किया गया था। इस बीच जब ‘वेंकटेश्वर समाचार’ की व्यवस्था कुछ बिगड़ गयी और उसकी ग्राहक संख्या कम होने लगी तो संचालकों की अनुमति से मेहता जी ने अपने एक संबंधी श्री रामजीवन नागर को उसकी व्यवस्था ठीक करने के लिए वहाँ बुला लिया। जिन दिनों मेहता जी ने यह कार्य-भार संभाला था, तब उसमें राजनीतिक विषयों तथा अन्य विश्व-रंगमंच की घटनाओं के समाचारों का सर्वथा अभाव रहता था और केवल धार्मिक तथा सांस्कृतिक समाचार ही छपा करते थे। मेहताजी ने कार्य संभालते ही सारी रीति-नीति बदल डाली और उसमें देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थतियों का भी सम्यक् होने लगा। आपने अपने संपादन काल में उसमें प्रकाशित होने वाले लेखों का स्तर इतना उन्नत कर दिया था कि उस क्षेत्र के अधिकांश मराठी तथा गुजराती भाषाओं के प्रमुख पत्र भी ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में प्रकाशित रचनाओं को अपने पत्रों में प्रकाशित करने लगे थे। 

‘वेंकटेश्वर समाचार’ के माध्यम से मेहताजी ने जहाँ बम्बई जैसे अहिंदी भाषा प्रदेश में हिंदी का गौरव बढ़ाया, वहाँ आपने अटूट लगन तथा अनन्य कर्मठता से उसे देश के प्रतिष्ठित पत्रों में एक उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त अपने संपादन-का में आपने ऐसे अनेक साहित्यिक आंदोलनों का भी सूत्रपात किया जिनके कारण उसकी ओर देश के सभी बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित हो गया और भारत के सभी अंचलों में उसका उत्सुकतापूर्वक स्वागत किया जाने लगा। आपने अपने संपादन काल में पत्र सब ग्राहकों को प्रत्येक वर्ष अच्छी-अच्छी उपहार पुस्तकें देने की योजना भी चालू की थी। 

इस योजना के अन्तर्गत भेंट की गई सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा मूल बंगला में लिखित ‘देशेर कथा’ का हिंदी अनुवाद ‘देश की बात’ तथा प्रख्यात विचारक बेकन के गम्भीर निबन्धों का हिंदी अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ नामक पुस्तकें विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें से पहली पुस्तक का अनुवाद श्री माधवप्रसाद मिश्र तथा दूसरी का अनुवाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया था। इस बीच पारिवारिक परिस्थितियों के कारण आपको सन् 1905 की बसंत पंचमी को निरन्तर 7 वर्ष तक कार्य करने के उपरान्त बम्बई छोड़नी पड़ी और आप वहाँ से आकर बूँदी राज्य की सेवा में लग गए। बूँदी में रहते हुए ही आपने जहाँ ‘बूंदी राज्य की सेवा में लग गए। बूंदी में रहते हुए ही आपने जहाँ ‘बूँदी का इतिहास’ लिखा वहाँ अपने को पूर्णतः साहित्य की समृद्धि के लिए ही समर्पित कर दिया। 

बम्बई में रहते हुए आपने जहाँ हिंदी-पत्रकारिता के गौरव में अभिवृद्धि की थी, वहां बूँदी आकर आपने अपनी प्रतिभा का सर्वागीण परिचय दिया। आपकी ऐसी प्रतिभा के दर्शन आपके सभी गं्रथों को देखने से हो जाते है। आपने लगभग 23 ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें से 13 उपन्यास तथा अन्य ऐतिहासिक पुस्तकें है। काल-क्रम से आपकी मौलिक रचनाओं की सूची इस प्रकार है। - उपन्यासः ‘धूर्त रसिकलाल’ (1898) ‘स्वतन्त्र रमा और परतन्त्र लक्ष्मी’ (1899), ‘हिंदू गृहस्थ’ (1901), ‘आदर्श दम्पति’ (1902),‘सुशीला विधवा’ (1907), बिगड़े का सुधार’ (1907), विपत्ति की कसौटी, (1925), तथा ‘आदर्श हिंदू’-तीन भाग, (1915), कहानीः बीरबल विनोद (1986) शिल्प तथा कारीगरीः ‘भारत की कारीगरी’ (1902) इतिहास एवं चरित्र ग्रंथः विक्टोरिया चरित्र’ (1901), अमीर अब्दुर्रहमान’ (1902) 

‘उम्मेदसिंह चरित्र, ‘बूंदी का इतिहास’(1912), जुझारू तेजा’ (1915) ‘पराक्रमी हाडाराव’, ‘बूँदी के हाडा-वंशी राजाओं का इतिहास’ (1915)‘ पं0 गंगासहाय जी का जीवन-चरित्र’ (1928), ‘ओक्षणम् गोत्र का वंश-वृक्ष, आत्म जीवनीः ‘आप बीती (1833)। इन मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त आपने गुजराती से भी कुछ उपन्यासों के हिंदी-अनुवाद प्रस्तुत किये थे, जो इस प्रकार है।- ‘विचित्र स्त्री चरित्र’, धूर्त चरित्र, ‘शराबी की खराबी’, पन्द्रह लाख पर पानी’ (1896) और ‘कपटी मित्र’(1900)। मेहताजी ने अपनी लेखनी के द्वारा पत्रकारिता-क्षेत्र की अभिवृद्धि करने के साथ-साथ अपने उपन्यासों के माध्यम से साहित्य में समाज-सुधार की भाव-धारा का प्रचलन भी किया था। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विवेकी समीक्षक ने अपने इतिहास में आपको ‘उपन्यासकार’ न मानकर केवल ‘अखबार-नबीस’ के निकृष्ट विशेषण से क्यो याद किया है?

यद्यपि ‘वेंकटेश्वर समाचार’ से अवकाश ग्रहण करके बूँदी वापस लौटने के उपरान्त आपने लेखन से सन्यास सा ही ले लिया था, किंतु ‘कलकत्ता-समाचार’ के संपादक श्री झाबरमल्ल शर्मा और ‘माधुरी’ ‘सुधा’ ‘मनोरमा’, वीणा, ‘कल्याण’ और ‘सौरभ’ आदि तत्कालीन अनेक मासिक पत्रों के अतिरिक्त ‘कलकत्ता समाचार’ ‘हिंदू संसार’ और वेंकटेश्वर समाचार’ आदि अनेक साप्ताहिक पत्रों की फाइलों में देखे जा सकते है। 

आप स्वभाव से कितने विनम्र तथा संकोची थे, इसका सुस्पष्ट प्रमाण यही है कि जब सन् 1928 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए ‘माधुरी’ के अप्रैल 1928 के अंक में उसके संपादक ने मेहताजी के नाम की संस्तुति की और देश के प्रायः सभी साहित्यकारों एवं मनीषियों ने एक स्वर से इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया तब मेहताजी ने स्पस्ट रूप से यह लिखकर क्षमा याचना की थी-‘सम्मेलन का सभापति ऐसा होना चाहिए जो साहित्य का पूर्ण विद्वान होने के अतिरिक्त् साल भर तक सम्मेलन के सिद्धान्तों का प्रचार करने में सिद्धहस्त हो।.... आपने मेरे जैसे अकिंचन लेखक का नाम भी इस पद के योग्य विद्वानों में संयुक्त कर दिया है, यह आपका अनुग्रह है। ...मैं क्षमा मांगकर निवेदन करता हूं कि मुझे आजीवन इस कोने में ही पड़ा रहने दीजिए।’’ और वास्तव में आप एकान्त में रहकर ही हिंदी की सेवा करते रहे। आप हिंदी को राष्ट्र-भाषा के पावन पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए सत्त प्रयत्नशील रहा करते थे। इस संबंध में आपकी यह निश्चित धारणा थी-‘‘ अब वह समय अधिक दूर नहीं, जब देश में एक छोर से दूसरे छोर तक हिंदी का सार्वजनिक डंका बजेगा, भारत के भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति करते हुए एक तन्त्र से नत-मस्तक हो, हाथ जोड़े हुए हिंदी की आरती करेंगे और इसकी छोटी बहन, या यदि कोई छोटी कहने से बुरा मानते हो तो बड़ी बहन उर्दू पास खड़ी हुई इसकी बलैयां लेगी और राजभाषा अंग्रेजी अपने ठाठ, अपने गौरव, अपनी प्रतिभा और अपने आतंक को अपने हृदय-कोष में धारण किये हुए भी इसे फूलों की माला पहनाएगी।’’

आपका निधन 29 जून, सन् 1931 को हुआ था।

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