राधामोहन गोकुलजी हिंदी-जगत की ऐसी विभूति थे जिन्होंने पत्रकारिता के साथ-साथ राष्ट्रीय जागरण में अत्यन्त उल्लेखनीय भूमिका अदा की थी। उन्होंने अपनी लेखनी से जहाँ वैचारिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रचार किया था, वहाँ अनेक ऐसे युवकों को भी तैयार किया था, जिन्होंने सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन को आगे बढ़ाया था। जिसको भारतीय राजनीति के क्षेत्र में आज ‘भगतसिंह युग’ कहा जाता है उसके सूत्रधारों में अधिकांशतः उनकी ही शिष्य-मण्डली थी। आज हमारे देश में साम्यवाद की जो विचारधारा दृष्टिगत होती है, उसके मूल प्रेरणा-बिंदु श्री गोकुलजी ही थे। आपकी ही प्रेरणा पर श्री सत्यभक्त ने सर्वप्रथम कानपुर में 1 सितम्बर 1924 को ‘कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना की थी। उनकी ‘कम्युनिज्म क्या है?’ पुस्तक के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने उनका संबंध सरदार भगतसिंह के क्रान्तिकारी दल से सिद्ध कर दिया था।
श्री गोकुलजी का जन्म सन् 1865 में उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद जनपद के लाल गोपालगंज नामक स्थान में हुआ था। आपके पूर्वज वैसे राजस्थान के खेतड़ी राज्य के निवासी थे और दो-ढ़ाई सौ वर्ष पूर्व आजीविका की तलाश में यहाँ चले आए थे। गोकुलजी के प्रपितामह लाला परमेश्वरीदास इलाहाबाद के निकटवर्ती भदरी राज्य के राजा साहब के यहाँ खजान्ची का काम करते थे। श्री गोकुलजी के पिता का नाम गोकुलचन्द था। उनके मकान ‘लालगोपाल गंज’ और ‘बिहार’ नामक दो स्थानों पर थे, और दोनों का फासला केवल 4 मील था। राधामोहन जी की प्रारम्भिक शिक्षा बिाहर के ग्रामीण स्कूल में ही हुई थी। प्रारम्भ में आपने हिंदी पढ़ी थी, परंतु फिर 3 महीने बाद आपको उर्दू के अध्यापक के आग्रह पर उर्दू की क्लास में भेज दिया गया था। आपने वहाँ एक ‘मकतब’ में फारसी भी पढ़ी थी। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए आपको जब कानपुर भेजा गया तो वहां जाकर भी गोकुलजी ने अपने अंग्रेजी-विरोधी स्वभाव के कारण फारसी और बहीखाता ही सीखना जारी रखा।
जब आप 13 वर्ष के थे तो आपका विवाह कर दिया गया। विवाह के उपरान्त आप अपने चाचा के पास आगरा चले गये और वहां के ‘सेण्ट जान्स काॅलिजिएट स्कूल’ में अंग्रेजी पढ़ी। सनृ 1884 ई0 में एक व्यापारिक दुर्घटना के फलस्वरूप आपके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई और आप नौकरी की तलाश में इलाहाबाद चले गए। इलाहाबाद में सरकारी अकाउंटस डिपार्टमेण्ट’ में आपको 20 रूपये की नौकरी मिल गई। किंतु वहां गोरे कर्मचारी से झगड़ा हो जाने के कारण आप उस नौकरी को छोड़कर चले आए और भविष्य में नौकरी न करने की प्रतिज्ञा की। यह घटना सन् 1886 की है। सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और ‘स्वदेशी’ का पूरा प्रचार देश में हो रहा था। आपने इसी भावना के वशीभूत होकर आर्थिक दशा ठीक न होते हुए भी इलाहाबाद में बनी ‘स्वदेशी व्यापार कम्पनी’ का 25 रूपयें का एक शेयर भी खरीदा था। इससे ‘स्वदेशी’ के प्रति आपके प्रेम का परिचय मिलता है।
इलाहाबाद में कोई रोजगार न मिलने पर आप रीवा चले गए और एक डेढ़ वर्ष वहां रहकर फिर कानपुर आ गए। कानपुर में उन दिनों श्री प्रताप नारायण मिश्र के पत्र ‘ब्राह्मण’ की बड़ी धूम थी। गोकुलजी का झुकाव उनकी तरफ हो गया और आप श्री मिश्रजी के साथ मिलकर ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के उपासक बन गए। उन दिनो ‘ब्राह्मण’ पर आपका नाम ‘आनरेरी-मैनेजर’ के रूप में छपता था। इससे पूर्व इलाहाबाद में ही आप कविता लिखने लगे थे और पंडित बालकृष्ण भट्ट के ‘हिंदी प्रदीप’ में आपके लेख छपने लगे थे। उन्हीं दिनो ंआपने कानपुर में देश की तत्कालीन दशा पर एक पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक इतनी उग्र भाषा में लिखी गई थी कि कानपुर के सुप्रसिद्ध समाज-सेवी वकील पंडित पृथ्वीनाथ के परामर्श पर उसे जला दिया गया। उनका कहना था कि ऐसी रचनाओं का समय पचास वर्ष बाद आयेगा। इस बीच आपके परिवार की स्थिति और भी जटिल हो गई और आप हसनपुर (गुड़गांव) तथा कोसी कलाँ (मथुरा) चले आए। उन्हीं दिनों आपकी पुत्री और धर्मपत्नी का भी देहान्त हो गया। दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा न छोड़ा। सन् 1901 में 15 वर्ष की आयु में आपके एक-मात्र पुत्र का भी देहावसान हो गया। इससे फिर आप आगरा चले गए और वहीं रहने लगे।
जब आपके ऊपर सब ओर से आपत्तियों के बादल मंडरा रहे थे, तब सन् 1904 के अंतिम दिनों में आप कलकत्ता पहुंच गए। वहां पर आप गए तोथे आजीविका की तलाश में, किंतु परिस्थितिवश वहां क्रंातिकारियों के संपर्क में आकर मारवाड़ी युवकों को इस आंदोलन में सहायता करने के लिए प्रेरित करने लगे। वहां पर आपने कलकत्ता आर्यसमाज के सहयोग से ‘सत्य सनातन धर्म ’ नामक एक पत्र निकालकर समाज में फैली हुई कुरीतियों का भंडाफोड़ करना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1907 में जब लाला लाजपतराय को देश-निकाला दिया गया तब आपने ‘देश-भक्त लाजपत’ नामक एक पुस्तक लिखी बाद में ‘प्रणवीर कार्यालय, नागपुर से प्रकाशित हुए थे। जब ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ काशी’ ने अपनी ‘मनोरंजन’ पुस्तक माला’ का प्रकाशन आरम्भ किया तो गोकुलजी को ‘नेपोलियन बोनापार्ट’ नामक पुस्तक के अंतर्गत ही प्रकाशित हुई थी। इसके बाद आपकी लेखनी ने विश्राम ही नहीं लिया और ‘गुरू गोविन्द सिंह, ‘नीति दर्शन’ तथा ‘देश का धन’ आदि कई पुस्तकें आपने लिखीं
नागपुर के श्री सतीदास मूंधड़ा नामक एक युवक के संपर्क में आकर आपने नागपुर से ‘प्रणवीर’ नामक एक अर्ध साप्ताहिक पत्र का संपादन भी प्रारम्भ किया। वहां पर एक भाषण देने के अभियोग में आपको 6 माह का कारावास भी भोगना पड़ा था।
इसके उपरान्त आप सन् 1925 में कानपुर आकर कम्युनिस्ट-कांग्रेस में सहयोगी बने। यहां पर आपने एक ‘क्रांतिकारी दल’ का गठन किया तथा श्री सुरेशचंद्र भट्टाचार्य के मकान में श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और भगतसिंह से भी आपका संपर्क हुआ। ‘काकोरी केस’ के बाद बचे-खुचे युवको को बटोरकर आपने और भी सुदृढ़ संगठन किया। उन्हीं दिनों काकोरी केस से फरार होकर श्री चंद्रशेखर आजाद ने कुछ दिन तक श्री गोकुलजी के घर पर ही कानपुर में निवास किया था। सन् 1929 में जब श्री सांडर्स की हत्या के कारण देश में बहुत हलचल मची थी, तब आगरा में भी श्री गोकुलजी के मकान की तलाशी ली गई थी। पुलिस ने गोकुलजी की ‘कम्युनिज्म क्या है? नामक पुस्तक को अपने कब्जें में कर लिया था। आपकी ‘क्रान्ति’ का आगमन’ नामक पुस्तक भी ऐसी ही थी। आपने आगरा ने सन् 1923 में ‘नवयुग’ नामक एक दैनिक भी निकाला था।
जब आप पर सब ओर से संकट के बादल मंडराने लगे और आपका स्वास्थ्य भी खराब हो गया तो जून सन् 1935 में आप स्वामी ब्रहमानन्द द्वारा संस्थापित एक विद्यालय (खोही, हमीरपुर) में चले गए और वहां रहकर ही गुप-चुप क्रान्ति दल का संगठन-कार्य करने लगे। उन्हीं दिनों आपको अचानक पेचिश हो गई और चिकित्सा के अभाव में 3 सितम्बर 1935 को अपनी इहलीला समाप्त कर दी। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने आपकी स्मृति में समाज-सुधार-संबंधी उत्कृष्ट पुस्तक लिखने पर ‘राधामोहन गोकुलजी पुरस्कार’ देने की घोषणा की थी। 20 फरवरी, 1972 को आगरा की ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के भवन में गोकुलजी का एक चित्र भी उनकी 108 वीं जयन्ती पर लगाया गया था। इस चित्र का निर्माण गोकुलजी के पौत्र श्री प्रकाशचंद्र ने कराया था।
आपके मानस में देश के लिए कुछ कर गुजरने की इतनी उत्कट आकांक्षा थी कि आप उन दिनों राजा महेन्द्रप्रताप से भेंट करने के उद्देश्य से नेपाल गये थे जिन दिनों वे विदेशी नौकरशाही के विरूद्ध जापान जाकर अपनी क्रान्तिकारी योजना बना रहे थे। वे बिना किसी को बताए शिवरात्रि के अवसर पर नेपाल के पवित्र मन्दिर ‘पशुपतिनाथ’ की यात्रा के बहाने वहां चले गए थे। लेकिन जब वहां जाकर भी उन्हें राजा साहब तक पहुंचने का कोई उपाय न सूझा तो वे वापिस भारत आ गए। आपकी देश-भक्ति तथा अटूट कार्य-निष्ठा के सम्मान में ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ नामक पुस्तक के लेखक और प्रख्यात पत्रकार पण्डित सुन्दरलाल ने यह ठीक ही लिखा है-‘‘स्वर्गीय पत्रकार भाई राधामोहन गोकुलजी को मैं उन लोगों में गिनता हूं जिन्होंने अपना सर्वस्व और सारा जीवन इस पराधीन देश को स्वाधीनता दिलाने में तथा ऊपर उठाने में खपा दिया और मैं उन्हें तथा उनके सारे जीवन को बुनियाद (नींव) के उन पत्थरों में गिनता हूँ जिनके ऊपर उस समय के और उसके बाद के लोगों ने स्वाधीन भारत की इमारत को ऊँचा किया है।’’
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