श्री गुप्त जी हिंदी के उन यशस्वी पत्रकारों में अग्रणी रखते थे जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा जहाँ हिंदी-पत्रकारिता के गौरव को बढ़ाया, वहाँ साहित्य-निर्माण की अन्य दिशाओं में भी अपनी अपूर्व मेधा का प्रखर परिचय दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने ‘सरस्वती’ के यशस्वी तथा ख्यातनामा संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रयुक्त ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर अपने पत्र ‘भारत मित्र’ में जो आंदोलन चलाया था, उसके माध्यम से उनके ‘भाषा-परिष्कार’-संबंधी विचारों से समस्त हिंदी जगत् में एक अभूतपूर्व हलचल सी मच गई थी। आपने अपने संपादन-काल में जहाँ ब्रिटिश नौकरशाही की आलोचना अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक की थी, वहाँ समाज सुधार की दिशा में भी अपनी लेखनी का पूर्ण सदुपयोग किया था। मुख्यतः उर्दू के पत्रकार होते आपने हिंदी के परिष्कार और सुधार में जो सहयोग दिया, वह अपना एक विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व रखता है।
श्री गुप्तजी का जन्म हरियाणा प्रदेश के रोहतक जनपद के ‘गुड़ियानी’ नामक ग्राम में 14 नवम्बर सन् 1865 ईस्वी को हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने ग्राम को ही पाठशाला मंे उर्दू में हुई थी। सन् 1886 में आपने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और इस बीच अपने उस्ताद मंुशी मुहम्मद की कृपा से आपने उर्दू लिखने का अच्छा अभ्यास कर लिया था और आपकी उर्दू रचनाएँ लखनऊ के अवध पंच, लाहौर के ‘कोहेनूर’ तथा मुरादाबाद के ‘रहबर’ आदि पत्रों में अप्रकाशित होने लगी थी। जब चुनार के सुप्रसिद्ध रईस बाबू हनुमानप्रसाद ने अपने यहाँ से ‘अखबारे चुनार’ निकाला तब उन्होंने बाबू बालमुकुन्द गुप्त को ही उसका संपादक बनाया था। आपके पत्रकार-जीवन का प्रारम्भ का प्रारम्भ यहाँ से ही होता है। आप मूलतः उर्दू के पत्रकार थे, किंतु बाद में आप हिंदी में आ गए थे। उर्दू के जिन पत्रों का आपने संपादन किया था, उनमें ‘अखबारे चुनार’ (1886-1888 ई0) के अतिरिक्त ‘कोहेनूर’ (1888-1889 ई0) के नाम प्रमुख है। ‘कोहेनूर’ के बाद आप हिंदी के क्षेत्र में आ गए थे और सन् 1907 ई0 तक आपने अपनी जागरूक प्रतिभा से हिंदी के परिष्कार और प्रचार में जो योगदान दिया, वह सर्वथा अप्रतिम हे। हिंदी-पत्रकारिता के क्षेत्र में गुप्त जी सनातनधर्म के सुप्रसिद्ध नेता पंडित दीनदयाल शर्मा व्याख्यान वाचस्पति की प्रेरणा पर आए थे।
कालाकाँकर (उत्तरप्रदेश) के राजा रामपालसिंह ने इंग्लैण्ड से आकर जब अपने राज्य से दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का प्रकाशन आरम्भ किया, तब उसके आदिसंपादक महामना मदनमोहन मालवीय थे। जिन दिनों सनातन धर्म महामण्डल का अधिवेशन वृन्दावन में हुआ था, तब वहाँ पर श्री मालवीय जी की भेंट श्री बालमुकुन्द गुप्त से हुई थी। वे पं0 दीनदयालु शर्मा के साथ वहाँ पधारे थे। मालवीय जी ने जब शर्मा जी से गुप्त जी को कालाकाँकर भेजने का अनुरोध किया, तब शर्मा जी की प्रेरणा पर गुप्त जी कालाकाँकार चले गए और आपने सन् 1889 से 1891 ई0 तक दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का सफलतापूर्वक संपादन किया। इसके उपरान्त सन् 1893 ई0 में आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदी बंगवासी’ के सहकारी संपादक होकर वहां चले गए।
उन दिनों ‘हिंदी बंगवासी’ के संपादक श्री अमृतलाल चक्रवर्ती थे। ‘हिंदी बंगवासी’ के कार्यकाल में आपकी लेखनी में जो प्रखरता आई थी उसका उदात्त रूप आगे चलकर हिंदी-पाठकों को उस समय देखने को मिला जब आपने सन् 1899 ई0 में ‘हिंदी बंगवासी’ से पृथक होकर ‘भारत मित्र’ में जाकर आपने पूर्ण तन्मयता से ‘हिंदी-पत्रकारिता’ के उन्नयन तथा विकास के लिए जो काय्र किया, वह आपकी सतर्क तथा सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। आपने जहाँ ‘भारत मित्र’ को सभी प्रकार की उपयोगी सामग्री से समन्वित किया, वहाँ आपके द्वारा किये गए ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ तथा ‘चिट्ठे और खत’ नामक कालमों में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य-लेखों के कारण उसकी विशेष ख्याति हुई थी।
आपने ‘भारत मित्र’ के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा ‘सरस्वती’ में प्रयुक्त ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर जो आन्दोलन चलाया था, और ‘आत्माराम’ नाम से जो लेखमाला लिखी थी, उसके कारण अखिल हिंदी जगत् का ध्यान आपकी ओर अत्यधिक आकर्षित हुआ था। इसी प्रकार ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के संपादक मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त ‘शेष शब्द की सार्थकता तथा निरर्थकता के संबंध में भी आपने जो विवाद ‘भारत मित्र’ के द्वारा किया था, उससे भी भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में बड़ी चहल-पहल मची थी। आप क्योंकि मूलतः उर्दू के पत्रकार रहे थे, इसलिए आपकी भाषा ने उर्दू की सहज चपलता रहती थीं आपनी इन तीखी समालोचनाओं के कारण गुप्त जी उन दिनों हिंदी पत्रकारों में शीर्ष-स्थान पर प्रतिष्ठित हो गए थे। अंग्रेती शासन की निरंकुशता तथा उसके द्वारा दिन-प्रतिदिन जनता पर किये जाने वाले अनेक निर्मम अत्याचारों की गुप्तजी ने जिस निर्भीकता से आलोचना की थी, उससे आपको ‘गूंगी जनता का मुखर वकील’ के रूप में अभिहित किया जाने लगा था। आपकी निर्भीकता, दृढ़ता, ओजस्विता और विनोदप्रियता आदि सभी ने मिलकर हिंदी-पत्रकारिता में जो नई चेतना उदभूत की थी, वह बाद के पत्रकारों के लिए ‘ज्वलन्त प्रकाश-स्तम्भ’ सिद्ध हुई। आपकी व्यंग्योक्तियाँ कितनी प्रखर होती थी, इसका परिचय गुप्तजी द्वारा लार्ड कर्जन के संबंध में लिखित इस अंश से भी प्रकार मिल जाता है। --
‘अंहकार, आत्मश्लाषा, जिद और गाल-बजाई में लार्ड कर्जन अपना सानी आप निकले। जब से अंग्रेजी राज्य प्रारम्भ हुआ है, तब से इन गुणों में आपकी बराबरी करने वाला एक भी बड़ा लाट इस देश में नहीं आया। भारतवर्ष को बहुत सी प्रजा के मन में धारणा है मिक जिस देश में जल न बरसता हो, लार्ड कर्जन पदार्पण करे तो वर्षा होने लगती है और जहाँ के लोग अति वर्षा और तूफान से तंग हो, वहाँ कर्जन के जाने से स्वच्छ सूर्य निकल आता है।’’
यह भी एक सौभाग्य की बात समझी जाएगी कि मूलतः उर्दू के पत्रकार और लेखक होने पर भी आपने ‘भारत मित्र’ तथा दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के अपने हिंदी-पत्रकारिता के कार्य-काल में हिंदी की हिमायत जिस दृढ़ता से की थी, वह आपकी ध्येयनिष्ठा की परिचायक है। उर्दू और हिंदी के विवाद में आपने सदैव हिंदी का ही पक्ष लिया था। तुलनात्मक समीक्षा की पद्धति प्रचलित करने की दिशा में भी आपका बहुत बड़ा योगदान था। अनुवादक के रूप में भी आपकी शैली की प्रखरता सर्वथा असन्दिग्ध थी। आपके द्वारा किये गए ‘रत्नावली’ तथा ‘मडेल भगिनी’ नामक कृतियों के अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण है।
आपके चुने हुए लेखों का संकलन ‘गुप्त निबन्धावली’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। आपके द्वारा लिखित ‘हरिदास’, खिलौना, ‘खेल-तमाशा’ और ‘सर्पाघात चिकित्सा’ नामक पुस्तके विशेष चर्चित रही है। जहाँ आपकी कविताओं का एक संकलन ‘स्फुट कविता’ नाम से प्रकाशित हुआ था, वहां ‘हिंदी भाषा’ नामक पुस्तक में हिंदी के व्यापक रूप पर प्रकाश डाला गया है। आपके निधन के पश्चात प्रख्यात पत्रकार पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और पंडित झाबरमल्ल शर्मा के प्रयत्न से सन् 1950 में आपकी स्मृति में ‘बालमुकुन्द गुप्त स्मारक-ग्रंथ’ नामक जो ग्रंथ प्रकाशित किया गया था, उससे आपके व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। आपका निधन 18 सितम्बर सन् 1907 ई0 को दिल्ली की लक्ष्मीनारायण धर्मशाल में हुआ था।
आचार्य द्विवेदी जी के प्रति गुप्त जी की कितनी आस्था एवं श्रद्धा थी, इसका परिचय उनके उन शब्दों से भली-भांति मिल जाता है जो उन्होंने अपनी ‘भाषा की अनस्थिरता’ नामक निबन्ध को लिखने के स्पष्टीकरण में लिखे थे ‘‘आत्माराम ने जो कुछ लिखा है, बड़ी नेकनीयती और साफदिली से लिखा है। हिंदी के पुराने और नये सुलेखकों और सेवकों की, उनके दर्जे के अनुसार जैसी कुछ इज्जत उसके जी में है, उसी हिसाब से एक रत्ती भी कम इज्जत वह द्विवेदीजी की नहीं करता।’’ इससे आप यह अनुमान लगा सकते है कि वे भाषा-परिष्कार और औचित्य के लिए बड़े-से बड़े लोगों से टक्कर लेते रहते थे। उन्होंने लार्ड कर्जन जैसे अत्याचारी और असहिष्णु गवर्नर को खरी-खरी सुनाई थी, वहीं दूसरी और आचार्य द्विवेदी जी जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली पंडित के व्याकरण ज्ञान पर संदेह प्रकट करके उनसे अनूठा युद्ध ठान लिया था और भाषा-विवाद को लेकर उलझ गए थे।
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