श्री अमृतलाल चक्रवर्ती / क्षेमचंद्र ‘सुमन’


श्री अमृतलाल चक्रवर्ती हिंदी के ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने बंग-भाषी होते हुए भी दरिद्रता को अपनाकर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए निरन्तर अभावों और कष्टों में रहते हुए हिंदी-सेवा का पावन व्रत लिया था। उनका यह स्पष्ट मत था कि जन-भाषा जनता की जीभ हुआ करती है, जिसके कटते ही राष्ट्र गूंगा हो जाता है। श्री चक्रवर्ती यदि चाहते तो वकालत के पेशे को अपनाकर काफी धन अर्जित कर सकते थे, परंतु ‘हिंदी सेवा’ करने की पुनीत भावना के कारण उन्हें निरन्तर कष्टों का वरण करना पड़ा और नौकरी के लिए दर-दर की खाक छाननी पड़ी। अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने पत्र-संचालकों की स्वेच्छाचारिता के समक्ष कभी भी अपने घुटने नहीं टेके और निरन्तर नई-नई राहें बनाते रहे। यदि वे चाहते तो समझौता करके कलकत्ता में ही जमे रहकर  अपना जीवन-यापन कर सकते थे, किंतु वे किसी के सामने झुकें नहीं। उन्होंने अपने पत्रकार-जीवन में ‘हिंदी बंगवासी’ तथा ‘भारत मित्र’ (कलकत्ता) के अतिरिक्त ‘हिंदोस्थान’ (कालाकाँकर) और ‘वेंकटेश्वर समाचार’(बम्बई) आदि कई पत्रों का संपादन किया था। 

श्री चक्रवर्ती का जन्म अपनी ननसाल ‘इलाची’ नामक ग्राम में सन् 1863 ई0 में हुआ था। यह ग्राम कलकत्ता से पूर्व में है। आपके पूर्वजों का निवास-स्थान बंगाल के ‘चैबीस परगना’ जिले का ‘नौवरा’ ग्राम था। कुछ समय तक इलाहाबाद के रेलवे के लोको विभाग में नौकरी करने के उपरान्त वहाँ से प्रकाशित होने वाले ‘प्रयाग समाचार’ नामक पत्र में कार्य करने लगे। चक्रवर्ती जी ने अपनी पारम्परिक परिपाटी के अनुसार बचपन में संस्कृत पढ़ी थी और किशोर वय में उनका संपर्क हिंदी-प्रदेश से हो जाने के कारण हिंदी में उनकी गति अच्छी खासी हो गई थी। वे जिन दिनों अपने मामा और मौसी के साथ गाजीपुर में रहे थे, उन दिनों उन्होंने फारसी का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया था। इलाहाबाद ‘प्रयाग समाचार’के उपरान्त आपने कुछ दिन तक कालाकाँकर राज्य की ओर से प्रकाशित होने वाले राजा रामपाल सिंह के ‘हिंदोस्थान’ नामक पत्र के संपादन का दायित्व भी अपने ऊपर लिया था। 

‘हिंदोस्थान’ की नौकरी छोड़ने के बाद चक्रवर्ती जी कलकत्ता चले गये और वहाँ पर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन करके सन् 1890 में उन्होंने बी0ए0 (आनर्स) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। फिर जब कलकत्ता से ‘हिंदी बंगवासी’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तो आपने उसका संपादन लगभग 10 वर्ष तक किया था। वहाँ पर कार्य करते हुए ही आपने सन् 1894 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0एल0 की परीक्षा भी उत्तीर्ण की थी। ‘हिंदी बंगवासी’ के प्रकाशन के संबंध में श्री बालमुकुन्द गुप्त की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है- ‘हिंदी बंगवासी’ एकदम नये ढंग काउ अखबार निकाला। हिंदी में उससे पहले वैसा अखबार कभी न निकला था।...... बहुत सी ऐसी बातें उसमें छपने लगी थी जोकिसी और हिंदी अखबार में न होती थी। थोड़े ही दिनों में इसकी ग्राहक संख्या दो हजार हो गई थी।’’ सन् 1900 तक ‘हिंदी बंगवासी’में कार्य करने के उपरान्त आप बाबू बालमुकुन्द गुप्त के अनुरोध पर ‘भारत-मित्र’ में चले गए। अनेक छोटी-मोटी कहानियाँ लिखने के अतिरिक्त उसमें ‘शिवशम्भू का चिटठा’नामक स्तम्भ भी अपने ही प्रारम्भ किया था। उन्हीं दिनों आपने ‘सती सुखदेई’ नामक एक मौलिक उपन्यास भी लिखा था। जो ‘भारत मित्र’ कार्यालय से ही प्रकाशित हुआ है। ‘हिंदी बंगवासी’ कार्यालय से आपकी ‘शिवाजी की जीवनी’ तथा ‘सिख युद्ध’ नामक पुस्तको के अतिरिक्त ‘महाभारत’ ‘भगवद्गीता’ तथा संस्कृत के कई ग्रन्थों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए थे। 

लगभग डेढ़ दो वर्ष तक भारत मित्र में रहने के उपरान्त आप बम्बई के ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में चले गए। उन्हीं के प्रयास से उसका दैनिक संस्करण भी प्रकाशित हुआ था। फिर उन्होंने चतुर्वेदी पं0 द्वारकाप्रसाद शर्मा के सहयोग से प्रयाग आकर ‘उपन्यास कुसुम’ नामक एक मासिक पत्र प्रकाशित किया, किंतु एक ही अंक निकलने के बाद वह बंद हो गया, क्योंकि उसी समय आप ‘अखिल भारतीय भारत धर्म महामंडल’ के मैनेजर नियुक्त होकर मथुरा चले गये थे। वहाँ पर लगभग सवा दो वर्ष रहकर आपने ‘निगमागम चन्द्रिका’ नामक पत्र का संपादन किया था। जब मण्डल का कार्यालय मथुरा से काशी चला गया तब आप फिर ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में कार्य करने के लिए बम्बई चले गये। बंगाल में जब स्वदेशी का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब सन् 1906 से 1909 तक आपने अपनी जन्मभूमि में आकर स्वदेशी वस्त्रों का प्रचार किया। जब वे ‘कलकत्ता समाचार’ में कार्य करते थे, तब ‘भारत मित्र’के संपादक श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर से अनेक विषयों पर उनके मतभेद भी हुए थे। जिसका उन्होंने अपने पत्र में खुलकर विरोध किया था। उन पत्रों में कार्य करने के अतिरिक्त आपने ‘श्री सनातन धर्म’ और ‘फारवर्ड’ आदि कई पत्रों में कार्य किया था, परंतु सैद्धान्तिक मतभेद होने के कारण वे उनमें अधिक दिन तक हीं टिक सके। 

श्री चक्रवर्ती जी की संपादन-शैली का निखार-परिष्कार ‘हिंदी बंगवासी’ के कारण हुआ था। उनके संपादन-काल में उसमें सभी प्रकार की सामग्री प्रकाशित होती थी। मूलतः बंगला-भाषाभाषी होते हुए भी आपने हिंदी सेवा का जो व्रत लिया था, कदाचित् उसी के कारण आपको अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के वृन्दावन में नवम्बर सन् 1925 में संपन्न हुए सोलहवें अधिवेशन का सभापति भी बनाया गया था। सन् 1885 से लेकर सन् 1925 तक निरन्तर चालीस वर्ष आपने हिंदी की सेवा की थी। कुछ दिन तक आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘उपन्यास तरंग’ और ‘श्री कृष्ण संदेश’ के संपादकीय विभाग में भी रहे थे। आपके द्वारा लिखित ‘चंद्रा’ नामक उपन्यास अनेक वर्ष तक हिंदी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं में पाठ्यक्रम के रूप में रहा था। आपका निधन सन् 1936 में कलकत्ता में हुआ था। 

जब आप हिंदी साहित्य सम्मेलन के वृन्दावन में संपन्न होने वाले ‘षोडश अधिवेशन’ के अध्यक्ष बनाए गए, तब ‘विशाल भारत’ के ख्यातनामा संपादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनके व्यक्ति तथा कृतित्व की सराहना करते हुए जो विचार प्रकट किये थे, उनसे श्री चक्रवर्ती जी की विशेषताओं का परिचय भली प्रकार मिल जाता है। उन्होंने लिखा था- ‘‘षोडश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति ने अपने जीवन में अनेक व्यवसाय और अनेक काम किये है, पर आपकी प्रकृति हिंदी-पत्र संपादन की ओर ही रही है। आपकी जीवन-परिधि का केन्द्र जर्नलिज्म ही रहा है। सन् 1885 से लेकर जबकि आप ‘हिंदोस्थान’ के संपादकीय विभाग में काम करने के लिए कालाकाँकर चले गए थे, सन् 1925 तक यानी इन चालीस वर्षो में आपने हिंदी जर्नलिज्म का खूब अनुभव प्राप्त किया। मातृभाषा बंगला होने पर भी राष्ट्रभाषा गांधी, माधवराव सप्रे और अमृतलाल चक्रवर्ती को, जिनकी मातृभाषाएँ क्रमशः गुजराती, मराठी, और बंगला थी,हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति निर्वाचित कर हिंदी जनता ने अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया है। हिंदी के राष्ट्रभाषा होने का इससे उत्तम प्रमाण और क्या मिल सकता है।’’

जिन दिनों आप हिंदी सहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए गये थे, तब आप अपना जीवन अत्यन्त विपन्न अवस्था में व्यतीत कर रहे थे। आपके पास वृन्दावन तकजाने के लिए न तो किराये के पैसे थे और न पहनने के लिए उपयुक्त वस्त्र ही थे। मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव के अनुरोध पर ‘मतवाला’ के संचालक महादेवप्रसाद सेठ ने जब इस संबंध में उनकी कुछ सहायता करनी चाही तो उन्होंने पहले तो लेने से इन्कार कर दिया, किंतु बाद में उसके बदले कुछ काम कर देने की शर्त पर आपने यह सहायता स्वीकार कर ली। उन दिनों ओढ़ने के लिए एक फटा-सा कम्बल और जीर्ण-जर्जर चटाई के सिवा आपके पास कुछ न था। यहाँ तक कि एक बार किसी व्यक्ति का ऋण न चुका पाने पर आपको कठिन कारावास की सजा भी भुगतनी पड़ी थीं 

आपके मानस में हिंदी के प्रति प्रेम किस प्रकार उत्पन्न हुआ इसका परिचय उनके ‘मेरे संस्मरण’ नामक एक लेख की इन पंक्तियों से भली-भांति मिल जाता है- ‘‘एक दिन मैं मित्रों के साथ प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर माघ मेला देखने गया। अनेकानेक साधु एक से एक दर्शनीय आसन लगाये बैठे थे। सभी साधु केवल हिंदी बोलते थे। भारत के सभी प्रान्तों के मनुष्य उन साधुओं में थे। मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, बंगाली आदि को युक्तप्रान्तीय की तरह बोलते देखकर मैंने समझा कि हिंदी ही सर्व भारत की भाषा है। यदि गुण में वह अंग्रेजी के जोड़ की हो जाये और अंग्रेजी के बदले प्रान्त-प्रान्त के परस्पर मनोभावों के आदान-प्रदान का माध्यम हो, तो जातीय अपमान और अभाव-बोध की ग्लानि का अंत करके देशात्म-बोध जाग्रत कर दे।....... हिंदी लिखने की वासना मुझमें जाग्रत हुई।‘प्रयाग समाचार’ के संपादक पण्डित देवकीनन्दन त्रिपाठी और ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट हमारे हिंदी लिखने के प्रेरक बने।’’

जिन दिनो आप अत्यन्त आथ्रिक कठिनाइयों में थे, तब आपने ‘विनम्र निवेदन’ शीर्षक से एक ऐसी कविता लिखी थी जिसमें आपने हिंदी-जगत से अपनी विपन्नावस्था के प्रति सहायता की याचना की थी। यह कविता वास्तव में श्री चक्रवर्ती जी की स्थिति की ही नहीं, प्रत्युत उस समय के प्रायः सभी पत्रकारों एवं साहित्यकारों के कष्टों की गाथा है। ‘सरस्वती’ के जनवरी सन् 1929 के  अंक में प्रकाशित यह कविता अविकल रूप में यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। 

होता स्मृत हिंदी लेखक चिता में जलने पर।

जलता मैं चिता से बढ़, हे हिंदी प्रेमिकवर।।

ऋणी, निरन्न रूग्ण,वृद्ध अब धनार्जन अक्षम।

दो सहस्र मुद्रा अर्थ महाजन दिखते यम।।

चिर-हिंदी-व्रती सेवक की आज दीन दशा यही।

अध्ययन-रत पुत्र-पठन रोके बिना गति नहीं।।

हिंदी-गद्य चला जब से तभी का हूं लेखक।

छियालीस सुदीर्घ वर्ष रहा पत्र-संपादक।।

धन-न्यूनता उठवाती कुटी में आत्र्त-नाद।

सहवाता दारिद्रय को सुनाता देव वाद।।

बी0एल0 में धन-राशि पर होता कर वकालत।

सरकारी नौकरी भी लाती पिनसिन सतत।।

रेलादि भी प्रोविडेण्ट फण्ड से देती धन।

न किसी ओर हुआ लुपित हिंदी-रस- विलसित मन।।

जाति-भाषा हिंदी की करने में निजाया।

उस आदि से निष्किंचन जीवन को बनाया।।

बुध परस्पर प्रान्तों के चलाते नृप-भाषा।

देश-भाषा एक बिना जाति-गठन दुराशा।।

भावार्थ सुख-साध बर्ज मनाया आत्म-तोष।

अब असमर्थ निःसहाय असाध्य निःस्व दोष।।

जब साहित्य सम्मेलन सभापति पद मिला।

तो हिंदी-पे्रमियों का प्रेम-सुमन खिला।।

अब जब रूज ऋण दारिद्रय रूलाते वृद्ध-प्राण।

तो क्या फण्ड प्रोविडेण्ट गढ़ेंगे क्षम सुजान।।

हे समर्थ संपादको यदि कृपा करें आप।

तो हो लुप्त चुटकी से, अन्ततः ऋण अभिशाप।।

दो दो सौ पाठकों से यदि बस ही महाशय।

ले एकेक दे मुद्रा तो उऋण हो जाऊँ जय।।

अमृतलाल चक्रवर्ती विनम्र का निवेदन।

करूणाकर महोदयों कीजै भय-निवारण।।

क्या आप आज यह कल्पना कर सकते है कि कभी चक्रवर्ती जी को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ा होगा।


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