पं. पद्मसिंह शर्मा और ‘भारतोदय’ / अमन कुमार ‘त्यागी’





पं. पद्मसिंह शर्मा का जन्म सन् 1873 ई. दिन रविवार फाल्गुन सुदी 12 संवत् 1933 वि. को चांदपुर स्याऊ रेलवे स्टेशन से चार कोस उत्तर की ओर नायक नंगला नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह गाँव के मुखिया, प्रतिष्ठित, परोपकारी एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनके एक छोटे भाई थे जिनका नाम था श्री रिसाल सिंह। वे 1931 ई. से पूर्व ही दिवंगत हो गए थे। पं. पद्मसिंह शर्मा की तीन संतान थीं। इनमें सबसे बड़ी पुत्री थी आनंदी देवी, उनसे छोटे पुत्र का नाम श्री काशीनाथ था तथा सबसे छोटे पुत्र रामनाथ शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा के पिता आर्य समाजी विचारधारा के थे। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रति उनकी अत्यंत श्रद्धा थी। इसी कारण उनकी रुचि विशेष रूप से संस्कृत की ओर हुई। उन्हीं की कृपा से इन्होंने अनेक स्थानों पर रहकर स्वतंत्र रूप से संस्कृत का अध्ययन किया। जब ये 10-11 वर्ष के थे तो इन्होंने अपने पिताश्री से ही अक्षराभ्यास किया। फिर मकान पर कई पंडित अध्यापकों से संस्कृत में सारस्वत, कौमुदी, और रघुवंश आदि का अध्ययन किया तथा एक मौलवी साहब से उर्दू व फारसी की भी शिक्षा ली। सन् 1894 ई. में कुछ दिन स्वर्गीय भीमसेन शर्मा इटावा निवासी की प्रयागस्थिति पाठशला में अष्टाध्यायी पढ़ी। उसके बाद काशी जाकर अध्ययन किया। पुनः मुरादाबाद, लाहौर, जालंधर, ताजपुर (बिजनौर) आदि स्थानों पर भी अध्ययन किया। अध्ययन समाप्ति के पश्चात् सन् 1904 ई. में गुरुकुल काँगड़ी में कुछ दिन अध्यापन कार्य किया। उन दिनों वहाँ पं. भीमसेन और आचार्य पं. गंगादत्त भी थे। उसी समय महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) ने पं. रुद्रदत्त जी के संपादकत्व में हरिद्वार से सत्यवादी साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। उस समय पं. पद्मसिंह शर्मा भी उनके संपादकीय विभाग में थे। इनका संपादन एवं लेखन का प्रारंभ यहीं से हुआ। इसके बाद तो शर्मा जी का जीवन लेखन, संपादन एवं अध्यापन आदि में ही व्यतीत हुआ। प्रारंभ में ‘सत्यवादी’ में ही कई लेख लिखे। इसके बाद सन् 1908 के प्रारंभ में जब आचार्य गंगादत्त गुरुकुल काँगड़ी छोड़कर ऋषिकेश में रह रहे थे तो शर्मा जी ‘परापेकारी’ (मासिक) पत्रिका के ‘संपादक’ होकर अजमेर वैदिक यंत्रालय में गए। वहाँ पर इन्होंने ‘परोपकारी’ के साथ ही कुछ दिन तक ‘अनाथ रक्षणम्’ का भी संपादन किया। सन् 1909 ई. में इनका आगमन ज्वालापुर महाविद्यालय में हुआ। यहाँ इन्होंने ‘भारतोदय’ (महाविद्यालय का मुखपत्र, मासिक) का सम्पादन एवं साथ ही अध्ययन कार्य भी किया। सन् 1911 ई. में इन्होंने महाविद्यालय की प्रबंध समिति के मंत्री पद पर भी कार्य किया। इस प्रकार महाविद्यालय की अविरल सेवा करते रहे। इनके संपादकत्व में ‘भारतोदय’ पत्रिका ने खूब ख्याति प्राप्त की। सन् 1927 में इनके पिता जी का देहांत हो गया। इस कारण इन्हें महाविद्यालय छोड़ घर आना पड़ा।

महाविद्यालय छोड़ने के बाद श्रीयुत् शिवप्रसाद गुप्त के अनुरोध पर ये ज्ञान मंडल में गए।सन् 1920 को मुरादाबाद में संयुक्त प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति बने। इसी वर्ष इनकी माता जी का देहान्त हो गया था। सन् 1922 ई. में इन्हें ‘बिहारी सतसई’ पर मंगलाप्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1928 में इन्होंने अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का मुजफ्फरपुर (बिहार) में सभापतित्व किया। इसी वर्ष इन्होंने गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर पद पर भी कार्य किया।

सन् 1911 ई. में ‘पद्मपराग’ और ‘प्रबंध मंजरी’ का प्रकाशन हुआ। एक बार ये संग्रहणी रोग से ग्रस्त हो गए तो इन्हें हरदुआगंज लाया गया, साथ में इनके पुत्र काशीनाथ शर्मा भी थे। जब वहाँ पर चिकित्सा से कोई लाभ न हुआ तो इन्हें मुरादाबाद लाया गया। वहाँ डा.ॅ गंगोली पीयूषपाणी की चिकित्सा करायी गई। किंतु ऐसी अवस्था में भी अविरत रूप से इन्होंने साहित्यिक सेवा की। उस समय भी ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जिसमें ये दस-पंद्रह चिट्ठियाँ अपने मित्रों को न लिखते हों (उस समय सेवा के लिए कवि ‘शंकर’ (पं. नाथूराम शर्मा के पुत्र) इनके पास थे) और इनके पास भी बड़े-बड़े साहित्यकारों की चिट्ठियां रोज आती थीं। उनका उत्तर ये अपनी भाषा में ही दिलवाते थे। डेढ़ मास तक इनकी चिकित्सा चलती रही। कोई लाभ न होने पर इन्होंने महाविद्यालय ज्वालापुर में आने की इच्छा प्रकट की ओर कहा-‘चलो महाविद्यालय चलो; मरना तो है ही, उसी पुण्य भूमि में प्राण त्यागूँगा, गंगा की गोद में।’ अतः स्पष्ट है महाविद्यालय के प्रति उनमें आत्मीयता एवं श्रद्धा का भाव था। उन्हें महाविद्यालय लाया गया; साथ में पं. भीमसेन शर्मा भी थे। उस समय महाविद्यालय में श्री विश्वनाथ मुख्याधिष्ठाता थे। यहाँ आने पर पं. हरिशंकर शर्मा वैद्यराज की पहली पुड़िया से ही इन्हें बहुत लाभ हुआ और ये बीस-बाईस दिन में ही पूर्ण स्वस्थ हो गए।

पं. पद्मसिंह शर्मा को पाँच बातें बहुत पसंद थी- 1. स्वाध्याय,  2. नवीन लेखकों को प्रोत्साहन,  3. साहित्यिकों से मिलना-जुलना,  4. अतिथि सत्कार,  5. मित्रमंडली के साथ यात्रा। वे साहित्यिक यात्रा बहुत करते थे। अपनी मृत्यु से पूर्व भी उनका विचार श्रावण में ब्रज की यात्रा करने का था। उनका कहना था-‘भाई अब की बार श्रावण में ब्रज की यात्रा करनी चाहिए। आगरे के मिश्र भी साथ हों, कलकत्ते से बनारसीदास जी तथा श्रीराम जी को भी बुलाया जाए। किंतु इस साहित्यिक यात्रा से पूर्व ही वे जीवन की अंतिम यात्रा पर निकल पड़े।

कविजी (पं. नाथूराम शर्मा) के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। कवि जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अनुराग रत्न’ लिखी और उसका समर्पण काव्य कानन केसरी पं. पद्मसिंह को ही किया जबकि एक सज्जन उन्हें इसके लिए पाँच हजार रुपए देने को तैयार थे। उन सज्जन के कहने पर उनका कहना था कि-मैं अपना प्रचुर परिश्रम एक कलाविद को ही अर्पण करूँगा और मेरी राय में पं. पद्मसिंह शर्मा इसके लिए सर्वश्रेष्ठ हैं।

हिंदी जगत में ‘भारतोदय’

‘भारतोदय’ का प्रारंभ सन् 1909 ई. (ज्येष्ठ शुक्ल सं. 1966) में हुआ था। इसके संपादक, पद्मसिंह शर्मा और सहायक संपादक पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ थे। इसे पं. शंकरदत्त शर्मा ने अपने प्रेस ‘धर्मदिवाकर प्रेस’ मुरादाबाद में छापा और पं. भीमसेन शर्मा ने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से प्रकाशित किया। इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपए तथा विद्यार्थियों के लिए एक रुपया था। यह गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर का ‘मासिक पत्र’ घोषित किया गया।

पत्रिका के आवरण पर सबसे ऊपर सूचना दी गई थी कि ‘‘अगली संख्या में कविवर ‘शंकर’ की मज़ेदार कविता ‘अंधेर खाता’ छपेगी’’ तत्पश्चात एक आकर्षक बार्डर और फिर ।।ओ3म।। के बाद आकर्षक साज-सज्जा के साथ लिखा गया था ‘भारतोदय’। पत्रिका के शीर्षक के नीचे ध्येय स्पष्ट किया गया था-

‘‘निशम्यतां लेखललाम संचय, प्रकाशने येन कृतोऽतिनिश्चयः।

गृहीतसद्धर्मविशेषसंशय, श्वकास्तिसोयंभुवि ‘भारतोदयः’’।।

‘भारतोदय’ के नियम इस प्रकार बनाए गए -

1. यह पत्र प्रतिमास गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर से प्रकाशित होता है।

2. उसका वार्षिक मूल्य सर्वसाधारण से डेढ़ रुपए लिया जाएगा। विद्यार्थियोें को एक रुपया में और महाविद्यालय के सभासदों को मुफ्त, पुस्तकालयों और असमर्थ विद्यारसिकों को डाकव्यय लेकर।

3. पत्र का मुख्य उद्देश्य महाविद्यालय ज्वालापुर को लोकप्रिय बनाना तथा तत्संबंधी समाचारों का प्रकाशित करना होगा।  इसमें धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा संबंधी तथा लोकोपयोगी लेख रहा करेंगे, हिंदी साहित्य का सुधार भी इसका लक्ष्य होगा। किसी मत, जाति या व्यक्ति पर कोई असभ्य, अरुंतुद या कलहात्मक लेख इसमें प्रकाशित न होंगे।

4. बाहर से आये लेखों में काट छांट और न्यूनाधिक करने का पूरा अधिकार संपादक को रहेगा।

5. समालोचना की पुस्तकें, बदले के पत्र, लेख, संपादक के नाम आने चाहिएँ। और पत्र न पहुंचने की सूचनाएं, ग्राहक होने की दरख्वास्तें, मूल्य आदि, प्रकाशक अथवा प्रबंधकर्ता ‘भारतोदय’ के नाम।

6. पत्र में किसी प्रकार के असभ्य और धोखा देनेवाले विज्ञापन नहीं छपेंगे न तकसीम होंगे, ऐसे महाशयों को यह बात ध्यान में रखकर प्रार्थना करनी चाहिए। सब प्रकार का पत्रव्यवहार महाविद्यालय ज्वालापुर जिला सहारनपुर, इस पते पर होना चाहिए।

‘भारतोदय’ के प्रथम अंक के पृष्ठ संख्या 33 पर ‘‘भारतोदय की उदयकथा’’ शीर्षक से भी जानकारी दी गई है-

महाविद्यालय के संबंध में एक पत्र की आवश्यकता का अनुभव करके कमेटी के एक विशेष अधिवेशन में निश्चित हुआ कि विद्यालय की ओर से एक मासिक पत्र निकाला जाय जिसका मुख्य उद्देश्य विद्यालय को लोकप्रिय बनाना और तत्संबंधी समाचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचाकर हितसाधन की चेष्टा तथा तद्र्थ सहाय्य प्राप्ति का उद्योग हो। इसके अतिरिक्त मतसंबंधी वितंडावादों से बचकर धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा विषय पर भी उस में लिखा जाया करे, हिंदी साहित्य की पूर्ति और सुधार भी उस का प्रधान लक्ष्य हो। इत्यादि प्रयोजनों को सामने रखकर ‘भारतोदय’ का उदय हुआ है। जैसा कि पत्रों में सूचना दी गई थी, 1 म (प्रतिपदा), वैशाख से पत्र निकालने का विचार था, परंतु कई अनिवार्य विघ्नों से पत्र प्रतिज्ञात समय पर न निकल सका। जिसकारण अनेक भारतोदयाभिलाषी, सज्जनों ने बड़े उत्कंठा और उत्साह भरे शब्दों में पत्र प्रकाशन के लिए अनुरोध किया और इच्छा प्रकट की जिससे प्रकाशकों का उत्साह द्विगुणित हो गया। पत्र को रोचक और उपयुक्त बनाने का यथाशक्ति प्रयत्न किया जाएगा। प्रसिद्ध विद्वान और कवियों के लेख इसमें रहा करेंगे। बहुत से विद्वानों ने अपनी लेखमालिका द्वारा पत्र को अलंकृत करने का प्रण कर लिया है, जिनमें से दो चार के नाम प्रकाशित किये जाते हैं। यथा-श्रीयुत रावबहादुर मास्टर आत्मारामजी। श्रीमान् कविवर पण्डित नाथूराम शंकर शर्मा। श्रीयुक्त प्रोफेसर पूर्ण सिंहजी इंपीरियल फारेस्ट केमिस्ट। श्री बा.गंगा प्रसाद जी बी.ए., श्री बा. आशाराम जी बी.ए., श्री पं. रामनारायण मिश्र बी.ए., श्री पं. रामचन्द्र शर्मा इंजीनियर, वैद्यराज श्रीकल्याण सिंह जी, श्रीस्वामी मंगलदेव जी संन्यासी, इत्यादि।

पत्र का मूल्य बहुत ही कम। नाममात्र डेढ़ रुपए रखा गया है, इस पर विद्यार्थियों को एक में ही दिया जायगा, और विद्यालय कमेटी के मेम्बर मुफ्त पावेंगे। ऐसी दशा में ‘भारतोदयाभिलाषी’ महाशयों का कर्तव्य है कि वे स्वयं इसके ग्राहक बनें और दूसरों को बनावें, जिन सज्जनों के यहाँ अतिथि के रूप में ‘‘भारतोदय’’ पहुँचे, आशा है कि वे अपनी आतिथेयता का परिचय देंगे और इसे विमुख और निराश न लौटाएंगे क्योंकि:-

 ‘‘अतिथिर्यस्य भग्नाशो, गृहात्प्रतिनिवर्तते।

 स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा, पुण्यमादाय गच्छति।।’’

भारतोदय का विषयवार अनुक्रम इस प्रकार था-

1. वेदमन्त्रार्थप्रकाश.........कृवेदतीर्थ                                                                 1

2. भारतोदय (कविता)......श्री पं. नाथूराम शंकर शर्मा                                         4

3. सुखवाद.........श्री मास्टर गंगाप्रसाद बी.ए.                                                     9

4. महिलामंडल.........एक ब्राह्मण                                                                   14

5. भ्रातृभाव......सहायक संपादक                                                                     18

6. प्रकृतिस्तवः (संस्कृत कविता) ...... श्री पं. भीमसेन शर्मा                               21

7. मेसमेरिज़्म और संध्या...... रा.ब.मा. आतमाराम जी                                    22

8. महाविद्यालय समारंभ.........                                                                     25

9. म.वि. समाचार, लोकवृत्त इत्यादि............                                                  34

लोकवृत्त के अंतर्गत जो समाचार प्रथम अंक में प्रकाशित किएगए थे, उनमें- ’देशभक्त.. श्री अरविंद घोष, कवि अध्यापक और बैरिस्टर (प्रो. इक़बाल संबंधी), अमीर की उदारता (अमीर काबुल के प्राणहरण की साज़िश संबंधी समाचार), फ़ारस और टर्की (दोनों राज्यों में खूनखराबी के बाद शांति संबंधी समाचार), जल प्रलय (दक्षिण में 7-8 मई को 48 घंटे के अंदर 23 इंच पानी की बरसात से आई जलप्रलय संबंधी समाचार हैदराबाद से प्राप्त हुआ था), सिंहल द्वीप (सिलोन) में विश्वविद्यालय स्थापना का समाचार आदि समाचारों के अतिरिक्त अनेक समाचार भी प्रकाशित किए जाते थे।

-ता. 11 मई की अमृत बाज़ार पत्रिका में किसी मुम्बई के व्यापारी महोदय के टाइम्स आफ इंडिया में लिखे हुए लेख का सारांश छपा है। उससे ज्ञात होता है कि अहर्निश स्वदेशी माल की ओर व्यापारियों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। यह ज्ञात हुआ है कि पूर्व वर्ष की अपेक्षा मुम्बई में डेढ़ लक्ष कपास के गट्ठे अधिक आए। जापान ने 290000 गट्ठे मँगाए। इससे बढ़कर स्वदेशी की कृतकार्यता का क्या प्रमाण होगा कि 12 वर्ष पूर्व स्वदेशी माल पर टैक्स द्वारा ग्यारह लाख प्राप्त हुए थे। आज उसी पर सरकारी आय 33 लक्ष हो गई है।

- अमेरिका में बिनौलों से घी बनाने के पचासों कारखाने हैं। अब समाचार पत्रों में चर्चा है कि बम्बई में भी ऐसा कारखाना खुलने वाला है। (आशा है दुग्धद्रोही ला. देवीदास जी आर्य यह सुनकर बहुत खुश होंगे)। भारतवर्ष का करोड़ों मन घी परदेश चला जाता है। अब वह दिन आने वाला है जब बिनौलों का घी मिलेगा, अमेरिका वालों की खूब बनेगी। स्वदेशी के प्रेमी उद्योग करें कि भारत का घी भारत ही में रहे। परमात्मा इस नवीन घृत से बचावे।।

- पाश्चात्य विद्वानों के बुद्धिवैशद्य को देखकर आह्लाद हुए बिना नहीं रहता, पेरिस में प्रसिद्ध अनुभवी ज्योतिशास्त्र विशारदों की एक सभा होने वाली है जिसमें आकाश के प्रत्येक भाग का चित्र खींचा जावेगा। आकाश के 22054 विभाग किए गए हैं। प्रत्येक भाग का पृथक् पृथक् चित्र रहेगा, तारे, उनकी गति व उनका स्थिति स्थान आदि का भी अद्भुत दृश्य रहेगा। ग्रीनिच की वेधशाला की ओर से इसी विषय पर दो अद्भुत ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं जिनमें 19000 तारों का सचित्र वर्णन है। इस विषय में अन्वेषण करने के लिए अन्य वेधशालाएं भी यत्न कर रही हैं।

- एक ज्योतिर्विद् का कथन है कि ये इतने असंख्य तारागण क्यों बनाए गए। हमारे प्रकाश के लिए तो इन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जितना चंद्रमा है उससे वह कुछ और बड़ा हो तो रात्रि का काम और भी अच्छा चल सकता है। हमको वृथा संदेह में डालने के लिए कहें, तो ईश्वर का इस में क्या प्रयोजन है। इससे विदिता होता है कि तारे भी सूर्यवत् स्वतंत्र प्रकाश के गोलक हैं। और न जाने क्या क्या है।

- मिलौनी नामक विद्वान् का कथन है कि चंद्रमा की किरणों में भी उष्णता का कुछ अंश होता है। वेनिस, ल्फोरेन्स व पदना के वनस्पतिगृह में कई विद्वान ने इस विषय में बहुत कुछ अनुभव करके देखा है (कहीं यह विद्वान शकुंतला के दुष्यंत तो नहीं! उन्होंने भी चंद्रमा से अग्नि झड़ते देखी थी)

- रंगून के समाचार से विदित होता है दो जर्मन विद्वान पथिक मेकांग नदी के स्रोत की खोज लगाने के लिए जा रहे थे, मार्ग में किसी दुष्ट ने उनको मार दिया। वस्तुतः पाश्चात्य विद्वान ‘‘नाह्मस्मीति साहसम्’’ इस तत्व पर चलने वाले हैं। इसीलिए प्रत्येक कार्य में ऋद्धि व सिद्धि इनके सन्मुख हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं। इन दो महानुभावों का नाम ब्रनहेबर व हरस्क्मिट्ज है। ‘‘लिखे जब तक जिए सफरनामे, चल दिए हाथ में कलम थामे।’’

- मिस्टर एफ़. ड्यूक चीफ सेक्रेटरी बंगाल गवर्मेन्ट ने एक प्रसिद्ध पत्रक निकाला है जिसमें पुलिस को दंगे फिसाद के मौके पर बंदूकें कैसी दाग़नी चाहिए और फिसादी लोगों पर रोब डालने के लिये क्या करना चाहिए इसका वर्णन किया है। अब तक सिर्फ डराने के लिए खाली बंदूकें छोड़ी जाती थीं अब सचमुच भरी हुई छोड़ी जावेंगे।

- लोकमान्य श्रीयुत तिलक भगवद्गीता पर कुछ लिख रहे हैं। गीता के भाग्य खुले। देखें यह महापुरुष गीता पर क्या लिखते हैं। आपके दो सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘‘द आर्कटिकहोम इन द वेदाज़’’(1903), ‘ओरिअन’(1893) देखने योग्य हैं-अगाध पांडित्य का प्रमाण हैं। आपका गीता भाष्य भी उज्ज्वल गुणों से उज्ज्वल होगा।

- बड़ोदा राज्य में प्राथमिक शिक्षा बिना शुल्कादि लिए ही दी जाती है। भारतवर्ष में यह एक ही स्टेट है जहाँ यह प्रबंध हुआ है। इस विषय में सरकार सोचते ही सोचते रह गई। आज तक कुछ न कर सकी बड़ौदा महाराज ने इस प्रथा का प्रारंभ ही कर डाला।

आर्य ‘सामाजिक समाचार’ भी अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित किए गए-

- गुरुकुल महाविद्यालय के उत्सव से लौटते हुए पं. गणपति शर्मा जी ने दो व्याख्यान सहारनपुर में अत्यंत प्रभावशाली दिए। फिर वहाँ से दिल्ली पहुँचे, और वहाँ एक सप्ताह व्याख्यानों की धूम मचा दी, दिल्ली वासियों पर उनका बहुत प्रभाव पड़ा।

- अप्रैल में गुरुकुल गुुजरांवाला का वार्षिकोत्सव बड़ी रौनक से हुआ। धर्मचर्चा में भिन्न भिन्न मतवादी सम्मिलित हुए थे, अच्छा आनंद रहा, म.वि. से श्री पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ भी पधारे थे। गुरुकुल गुजरांवाला में इस समय 57 ब्रह्मचारी प्रविष्ट हैं। 3200 के करीब धन एकत्र हुआ। श्रीमान ला. रलारामजी का पुरुषार्थ प्रशंसनीय है।

- उसके पीछे आर्य समाज गुजरात (पंजाब) का उत्सव भी सानंद समाप्त हुआ। हमारे मुख्याधिष्ठाता श्री पं. नरदेव जी वहाँ भी पधारे थे।

- 28.05.09 से 1-6 तक दिल्ली सदर आर्य समाज का उत्सव बड़े समारोह से होगा, 3 दिन धर्मचर्चा के लिए रक्खे हैं। उस पर श्री पं. गणपति शर्मा जी, श्री पं. भीमसेन जी और श्री पं. नरदेव जी शास्त्री आदि अनेक विद्वान पधारेंगे।

अंत में ‘निवेदन’ किया गया

जिन सज्जनों ने ‘भारतोदय’ में समालोचना के लिए पुस्तकें भेजी हैं उनसे प्रार्थना है कि अगली संख्या में समालोचना निकलेगी, तब तक संतोष रखें। जिन सहयोगियों की सेवा में ‘भारतोदय’ पहुँचे, उनसे विनय है कि इसके बदले में अपने अमूल्य पत्र भेजकर अनुगृहीत करें। ‘भारतोदय’ को प्रथम अंक के बाद रजिस्ट्रेशन नं. । 476 प्राप्त हो गया। अगले अंक में यह नंबर प्रकाशित किया गया।

‘भारतोदय’का संघर्ष 

‘भारतोदय’ सा.प.(साप्ताहिक प्रकाशन) वर्ष 1 पुनर्जन्म में प्रकाशित इस लेख से पता चलता है-भारतोदय-इस नाम में कितनी जादू भरी है, यह नाम चित्त को जितना आह्लाद् देता है, इस नाम से रह रहकर जिन जिन बातों की याद आती है और याद कर कर जिस तरह जी भर आता है वह सब अनुभव करने की बातें हैं और प्रत्येक भारतवासी स्वयं अनुभव कर ही रहा है। शब्दों से मानसिक स्थिति का घणान अशक्य है। पर भारतोदय शब्द के अर्थ को प्राप्त करने के मार्ग में जो विकट घाटियाँ हैं उनको पार करते करते कभी कभी जो निराशा छा जाती है, वह भी अवर्णनीय है। पर सच्चे यात्री को यह निराशा स्वल्पकाल तक ही घेर सकती है। जिसकी दृष्टि उद्दिष्ट स्थल पर लगी हुई है वह कब कठिनाइयों की परवाह करता है? वह कब चैन लेता है? वह अपनों की हँसी मज़ाक भी सहता है, दूसरों की मनमानी भी सहता है, और पार हो ही जाता है। जब घाटी पर चढ़कर नीचे देखने लगता है तब पहले हँसने वाले लज्जा के मारे अपनी गर्दन झुका कर खड़े रहते हैं। ऐसे वीर पुंगव का आदर करने लगते हैं, उसके पीछे चलना सीखते हैं। जो दशा असली भारतोदय के सम्मुख है वही दशा कागज़ी भारतोदय के सम्मुख है। यह किस प्रकार मासिक रूप में निकला, फिर साप्ताहिक हुआ, फिर कटारपुर के दंगल के समय घबराकर पूर्व प्रकाशक ने किस प्रकार बिना सूचना दिए ही घर बैठे डिक्लेरेशन ख़ारिज कराया, किस प्रकार अनेक विपत्तियों से महाविद्यालय की व संचालकों की जान बची, किस प्रकार फिर उद्योग हुआ और प्रथम बार 1000 रुपए की व द्वितीयवार 2000 की जमानत माँगी गई। इन सब बातों के लिखने की आवश्यकता नहीं। हम चाहते, तो भारत भर में इस बात का हल्ला मचा देते पर महाविद्यालय के संचालक चुपचाप काम करना ही अधिक पसंद करते रहे इस विश्वास पर कि कभी तो इन कठिनाइयों का अंत होगा। सुदीर्घ परिश्रम के पश्चात् अब कहीं जाकर मुरादाबाद के कलेक्टर ने बिना जमानत ‘‘भारतोदय’’ के प्रकाशन की आज्ञा दी है और इसीलिए अब यह आपकी सेवा में फिर पहुँच रहा है। इसको अपनाइए, इसको पुचकारिए, इसकी सहायता कीजिए, इसका उत्साह बढ़ाइए। इसकी अनुपस्थिति में महाविद्यालयों में भी युगांतर उपस्थित हो गया था। उस युगांतर की राम कहानी लिखने का यह प्रसंग नहीं है। उनको याद कर जी भर आता है। जिन्होंने भुगता वही जान सकते हैं कि युगांतर था, कि बला थी, महाविद्यालय के जीवन का प्रश्न था, कि मरण का। भगवान की कृपा से युगांतर आया व गया। बलाएं आईं और गईं आगे की राम जाने। अब तक राम जी ने ही रक्षा की है। ‘चढ़ जा राम भली करेंगे’-यही तत्व संचालकों के सम्मुख है। भारतोदय की पुरानी नीति उस समय की उन उन परस्थितियों के कारण ‘स्वात्म-रक्षा’ थी। क्योंकि चहुँ ओर की मारधाड़ और जटिल तथा क्रूर संघटनों में उस नीति के बिना ‘महाविद्यालय’ की रक्षा होना असंभव था। अब समय बदल गया, शत्रु तथा मित्रों के दृष्टिकोण भी बदल गए, इसलिए भारतोदय में आगे बेहूदा खंडन-मंडन को स्थान न मिलेगा। रागद्वेषात्मक लेख रद्दी की टोकरियों में फेंक दिए जाएंगे। समय की गति के अनुसार जिससे भी भारतोदय होगा उन सब कार्यों में सहायक होना भारतोदय की नीति रहेगी। प्रमुख भाग निःशुल्क प्राचीन शिक्षा का रहेगा।

कुल मिलाकर ‘भारतोदय’ का प्रारंभ हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत में महत्वपूर्ण घटना है। पत्रिका में हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी शब्दों से कोई परहेज नहीं रखा गया है, न ही पत्रिका के पाठक को।

संदर्भ

1. भारतोदय का प्रथम अंक

2. भारतोदय साप्ताहिक का पुनर्जन्मांक

3. गुरुकुल महाविद्यालय की स्मारिका (हीरक जयंती)

बाबू बालमुकुन्द गुप्त / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



श्री गुप्त जी हिंदी के उन यशस्वी पत्रकारों में अग्रणी रखते थे जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा जहाँ हिंदी-पत्रकारिता के गौरव को बढ़ाया, वहाँ साहित्य-निर्माण की अन्य दिशाओं में भी अपनी अपूर्व मेधा का प्रखर परिचय दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने ‘सरस्वती’ के यशस्वी तथा ख्यातनामा संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रयुक्त ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर अपने पत्र ‘भारत मित्र’ में जो आंदोलन चलाया था, उसके माध्यम से उनके ‘भाषा-परिष्कार’-संबंधी विचारों से समस्त हिंदी जगत् में एक अभूतपूर्व हलचल सी मच गई थी। आपने अपने संपादन-काल में जहाँ ब्रिटिश नौकरशाही की आलोचना अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक की थी, वहाँ समाज सुधार की दिशा में भी अपनी लेखनी का पूर्ण सदुपयोग किया था। मुख्यतः उर्दू के पत्रकार होते आपने हिंदी के परिष्कार और सुधार में जो सहयोग दिया, वह अपना एक विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व रखता है। 

श्री गुप्तजी का जन्म हरियाणा प्रदेश के रोहतक जनपद के ‘गुड़ियानी’ नामक ग्राम में 14 नवम्बर सन् 1865 ईस्वी को हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने ग्राम को ही पाठशाला मंे उर्दू में हुई थी। सन् 1886 में आपने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और इस बीच अपने उस्ताद मंुशी मुहम्मद की कृपा से आपने उर्दू लिखने का अच्छा अभ्यास कर लिया था और आपकी उर्दू रचनाएँ लखनऊ के अवध पंच, लाहौर के ‘कोहेनूर’ तथा मुरादाबाद के ‘रहबर’ आदि पत्रों में अप्रकाशित होने लगी थी। जब चुनार के सुप्रसिद्ध रईस बाबू हनुमानप्रसाद ने अपने यहाँ से ‘अखबारे चुनार’ निकाला तब उन्होंने बाबू बालमुकुन्द गुप्त को ही उसका संपादक बनाया था। आपके पत्रकार-जीवन का प्रारम्भ का प्रारम्भ यहाँ से ही होता है। आप मूलतः उर्दू के पत्रकार थे, किंतु बाद में आप हिंदी में आ गए थे। उर्दू के जिन पत्रों का आपने संपादन किया था, उनमें ‘अखबारे चुनार’ (1886-1888 ई0) के अतिरिक्त ‘कोहेनूर’ (1888-1889 ई0) के नाम प्रमुख है। ‘कोहेनूर’ के बाद आप हिंदी के क्षेत्र में आ गए थे और सन् 1907 ई0 तक आपने अपनी जागरूक प्रतिभा से हिंदी के परिष्कार और प्रचार में जो योगदान दिया, वह सर्वथा अप्रतिम हे। हिंदी-पत्रकारिता के क्षेत्र में गुप्त जी सनातनधर्म के सुप्रसिद्ध नेता पंडित दीनदयाल शर्मा व्याख्यान वाचस्पति की प्रेरणा पर आए थे। 

कालाकाँकर (उत्तरप्रदेश) के राजा रामपालसिंह ने इंग्लैण्ड से आकर जब अपने राज्य से दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का प्रकाशन आरम्भ किया, तब उसके आदिसंपादक महामना मदनमोहन मालवीय थे। जिन दिनों सनातन धर्म महामण्डल का अधिवेशन वृन्दावन में हुआ था, तब वहाँ पर श्री मालवीय जी की भेंट श्री बालमुकुन्द गुप्त से हुई थी। वे पं0 दीनदयालु शर्मा के साथ वहाँ पधारे थे। मालवीय जी ने जब शर्मा जी से गुप्त जी को कालाकाँकर भेजने  का अनुरोध किया, तब शर्मा जी की प्रेरणा पर गुप्त जी कालाकाँकार चले गए और आपने सन् 1889 से 1891 ई0 तक दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का सफलतापूर्वक संपादन किया। इसके उपरान्त सन् 1893 ई0 में आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदी बंगवासी’ के सहकारी संपादक होकर वहां चले गए। 

उन दिनों ‘हिंदी बंगवासी’ के संपादक श्री अमृतलाल चक्रवर्ती थे। ‘हिंदी बंगवासी’ के कार्यकाल में आपकी लेखनी में जो प्रखरता आई थी उसका उदात्त रूप आगे चलकर हिंदी-पाठकों को उस समय देखने को मिला जब आपने सन् 1899 ई0 में ‘हिंदी बंगवासी’ से पृथक होकर ‘भारत मित्र’ में जाकर आपने पूर्ण तन्मयता से ‘हिंदी-पत्रकारिता’ के उन्नयन तथा विकास के लिए जो काय्र किया, वह आपकी सतर्क तथा सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। आपने जहाँ ‘भारत मित्र’ को सभी प्रकार की उपयोगी सामग्री से समन्वित किया, वहाँ आपके द्वारा किये गए ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ तथा ‘चिट्ठे और खत’ नामक कालमों में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य-लेखों के कारण उसकी विशेष ख्याति हुई थी। 

आपने ‘भारत मित्र’ के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा ‘सरस्वती’ में प्रयुक्त ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर जो आन्दोलन चलाया था, और ‘आत्माराम’ नाम से जो लेखमाला लिखी थी, उसके कारण अखिल हिंदी जगत् का ध्यान आपकी ओर अत्यधिक आकर्षित हुआ था। इसी प्रकार ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के संपादक मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त ‘शेष शब्द की सार्थकता तथा निरर्थकता के संबंध में भी आपने जो विवाद ‘भारत मित्र’ के द्वारा किया था, उससे भी भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में बड़ी चहल-पहल मची थी। आप क्योंकि मूलतः उर्दू के पत्रकार रहे थे, इसलिए आपकी भाषा ने उर्दू की सहज चपलता रहती थीं आपनी इन तीखी समालोचनाओं के कारण गुप्त जी उन दिनों हिंदी पत्रकारों में शीर्ष-स्थान पर प्रतिष्ठित हो गए थे। अंग्रेती शासन की निरंकुशता तथा उसके द्वारा दिन-प्रतिदिन जनता पर किये जाने वाले अनेक निर्मम अत्याचारों की गुप्तजी ने जिस निर्भीकता से आलोचना की थी, उससे आपको ‘गूंगी जनता का मुखर वकील’ के रूप में अभिहित किया जाने लगा था। आपकी निर्भीकता, दृढ़ता, ओजस्विता और विनोदप्रियता आदि सभी ने मिलकर हिंदी-पत्रकारिता में जो नई चेतना उदभूत की थी, वह बाद के पत्रकारों के लिए ‘ज्वलन्त प्रकाश-स्तम्भ’ सिद्ध हुई। आपकी व्यंग्योक्तियाँ कितनी प्रखर होती थी, इसका परिचय गुप्तजी द्वारा लार्ड कर्जन के संबंध में लिखित इस अंश से भी प्रकार मिल जाता है। --

‘अंहकार, आत्मश्लाषा, जिद और गाल-बजाई में लार्ड कर्जन अपना सानी आप निकले। जब से अंग्रेजी राज्य प्रारम्भ हुआ है, तब से इन गुणों में आपकी बराबरी करने वाला एक भी बड़ा लाट इस देश में नहीं आया। भारतवर्ष को बहुत सी प्रजा के मन में धारणा है मिक जिस देश में जल न बरसता हो, लार्ड कर्जन पदार्पण करे तो वर्षा होने लगती है और जहाँ के लोग अति वर्षा और तूफान से तंग हो, वहाँ कर्जन के जाने से स्वच्छ सूर्य निकल आता है।’’

यह भी एक सौभाग्य की बात समझी जाएगी कि मूलतः उर्दू के पत्रकार और लेखक होने पर भी आपने ‘भारत मित्र’ तथा दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के अपने हिंदी-पत्रकारिता के कार्य-काल में हिंदी की हिमायत जिस दृढ़ता से की थी, वह आपकी ध्येयनिष्ठा की परिचायक है। उर्दू और हिंदी के विवाद में आपने सदैव हिंदी का ही पक्ष लिया था। तुलनात्मक समीक्षा की पद्धति प्रचलित करने की दिशा में भी आपका बहुत बड़ा योगदान था। अनुवादक के रूप में भी आपकी शैली की प्रखरता सर्वथा असन्दिग्ध थी। आपके द्वारा किये गए ‘रत्नावली’ तथा ‘मडेल भगिनी’ नामक कृतियों के अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण है। 

आपके चुने हुए लेखों का संकलन ‘गुप्त निबन्धावली’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। आपके द्वारा लिखित ‘हरिदास’, खिलौना, ‘खेल-तमाशा’ और ‘सर्पाघात चिकित्सा’ नामक पुस्तके विशेष चर्चित रही है। जहाँ आपकी कविताओं का एक संकलन ‘स्फुट कविता’ नाम से प्रकाशित हुआ था, वहां ‘हिंदी भाषा’ नामक पुस्तक में हिंदी के व्यापक रूप पर प्रकाश डाला गया है। आपके निधन के पश्चात प्रख्यात पत्रकार पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और पंडित झाबरमल्ल शर्मा के प्रयत्न से सन् 1950 में आपकी स्मृति में ‘बालमुकुन्द गुप्त स्मारक-ग्रंथ’ नामक जो ग्रंथ प्रकाशित किया गया था, उससे आपके व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। आपका निधन 18 सितम्बर सन् 1907 ई0 को दिल्ली की लक्ष्मीनारायण धर्मशाल में हुआ था। 

आचार्य द्विवेदी जी के प्रति गुप्त जी की कितनी आस्था एवं श्रद्धा थी, इसका परिचय उनके उन शब्दों से भली-भांति मिल जाता है जो उन्होंने अपनी ‘भाषा की अनस्थिरता’ नामक निबन्ध को लिखने के स्पष्टीकरण में लिखे थे ‘‘आत्माराम ने जो कुछ लिखा है, बड़ी नेकनीयती और साफदिली से लिखा है। हिंदी के पुराने और नये सुलेखकों और सेवकों की, उनके दर्जे के अनुसार जैसी कुछ इज्जत उसके जी में है, उसी हिसाब से एक रत्ती भी कम इज्जत वह द्विवेदीजी की नहीं करता।’’ इससे आप यह अनुमान लगा सकते है कि वे भाषा-परिष्कार और औचित्य के लिए बड़े-से बड़े लोगों से टक्कर लेते रहते थे। उन्होंने लार्ड कर्जन जैसे अत्याचारी और असहिष्णु गवर्नर को खरी-खरी सुनाई थी, वहीं दूसरी और आचार्य द्विवेदी जी जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली पंडित के व्याकरण ज्ञान पर संदेह प्रकट करके उनसे अनूठा युद्ध ठान लिया था और भाषा-विवाद को लेकर उलझ गए थे। 


श्री राधामोहन गोकुल जी / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



राधामोहन गोकुलजी हिंदी-जगत की ऐसी विभूति थे जिन्होंने पत्रकारिता के साथ-साथ राष्ट्रीय जागरण में अत्यन्त उल्लेखनीय भूमिका अदा की थी। उन्होंने अपनी लेखनी से जहाँ वैचारिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रचार किया था, वहाँ अनेक ऐसे युवकों को भी तैयार किया था, जिन्होंने सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन को आगे बढ़ाया था। जिसको भारतीय राजनीति के क्षेत्र में आज ‘भगतसिंह युग’ कहा जाता है उसके सूत्रधारों में अधिकांशतः उनकी ही शिष्य-मण्डली थी। आज हमारे देश में साम्यवाद की जो विचारधारा दृष्टिगत होती है, उसके मूल प्रेरणा-बिंदु श्री गोकुलजी ही थे। आपकी ही प्रेरणा पर श्री सत्यभक्त ने सर्वप्रथम कानपुर में 1 सितम्बर 1924 को ‘कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना की थी। उनकी ‘कम्युनिज्म क्या है?’ पुस्तक के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने उनका संबंध सरदार भगतसिंह के क्रान्तिकारी दल से सिद्ध कर दिया था। 

श्री गोकुलजी का जन्म सन् 1865 में उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद जनपद के लाल गोपालगंज नामक स्थान में हुआ था। आपके पूर्वज वैसे राजस्थान के खेतड़ी राज्य के निवासी थे और दो-ढ़ाई सौ वर्ष पूर्व आजीविका की तलाश में यहाँ चले आए थे। गोकुलजी के प्रपितामह लाला परमेश्वरीदास इलाहाबाद के निकटवर्ती भदरी राज्य के राजा साहब के यहाँ खजान्ची का काम करते थे। श्री गोकुलजी के पिता का नाम गोकुलचन्द था। उनके मकान ‘लालगोपाल गंज’ और ‘बिहार’ नामक दो स्थानों पर थे, और दोनों का फासला केवल 4 मील था। राधामोहन जी की प्रारम्भिक शिक्षा बिाहर के ग्रामीण स्कूल में ही हुई थी। प्रारम्भ में आपने हिंदी पढ़ी थी, परंतु फिर 3 महीने बाद आपको उर्दू के अध्यापक के आग्रह पर उर्दू की क्लास में भेज दिया गया था। आपने वहाँ एक ‘मकतब’ में फारसी भी पढ़ी थी। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए आपको जब कानपुर भेजा गया तो वहां जाकर भी गोकुलजी ने अपने अंग्रेजी-विरोधी स्वभाव के कारण फारसी और बहीखाता ही सीखना जारी रखा। 

जब आप 13 वर्ष के थे तो आपका विवाह कर दिया गया। विवाह के उपरान्त आप अपने चाचा के पास आगरा चले गये और वहां के ‘सेण्ट जान्स काॅलिजिएट स्कूल’ में अंग्रेजी पढ़ी। सनृ 1884 ई0 में एक व्यापारिक दुर्घटना के फलस्वरूप आपके परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई और आप नौकरी की तलाश में इलाहाबाद चले गए। इलाहाबाद में सरकारी अकाउंटस डिपार्टमेण्ट’ में आपको 20 रूपये की नौकरी मिल गई। किंतु वहां गोरे कर्मचारी से झगड़ा हो जाने के कारण आप उस नौकरी को छोड़कर चले आए और भविष्य में नौकरी न करने की प्रतिज्ञा की। यह घटना सन् 1886 की है। सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और ‘स्वदेशी’ का पूरा प्रचार देश में हो रहा था। आपने इसी भावना के वशीभूत होकर आर्थिक दशा ठीक न होते हुए भी इलाहाबाद में बनी ‘स्वदेशी व्यापार कम्पनी’ का 25 रूपयें का एक शेयर भी खरीदा था। इससे ‘स्वदेशी’ के प्रति आपके प्रेम का परिचय मिलता है। 

इलाहाबाद में कोई रोजगार न मिलने पर आप रीवा चले गए और एक डेढ़ वर्ष वहां रहकर फिर कानपुर आ गए। कानपुर में उन दिनों श्री प्रताप नारायण मिश्र के पत्र ‘ब्राह्मण’ की बड़ी धूम थी। गोकुलजी का झुकाव उनकी तरफ हो गया और आप श्री मिश्रजी के साथ मिलकर ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के उपासक बन गए। उन दिनो ‘ब्राह्मण’ पर आपका नाम ‘आनरेरी-मैनेजर’ के रूप में छपता था। इससे पूर्व इलाहाबाद में ही आप कविता लिखने लगे थे और पंडित बालकृष्ण भट्ट के ‘हिंदी प्रदीप’ में आपके लेख छपने लगे थे। उन्हीं दिनो ंआपने कानपुर में देश की तत्कालीन दशा पर एक पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक इतनी उग्र भाषा में लिखी गई थी कि कानपुर के सुप्रसिद्ध समाज-सेवी वकील पंडित पृथ्वीनाथ के परामर्श पर उसे जला दिया गया। उनका कहना था कि ऐसी रचनाओं का समय पचास वर्ष बाद आयेगा। इस बीच आपके परिवार की स्थिति और भी जटिल हो गई और आप हसनपुर (गुड़गांव) तथा कोसी कलाँ (मथुरा) चले आए। उन्हीं दिनों आपकी पुत्री और धर्मपत्नी का भी देहान्त हो गया। दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा न छोड़ा। सन् 1901 में 15 वर्ष की आयु में आपके एक-मात्र पुत्र का भी देहावसान हो गया। इससे फिर आप आगरा चले गए और वहीं रहने लगे। 

जब आपके ऊपर सब ओर से आपत्तियों के बादल मंडरा रहे थे, तब सन् 1904 के अंतिम दिनों में आप कलकत्ता पहुंच गए। वहां पर आप गए तोथे आजीविका की तलाश में, किंतु परिस्थितिवश वहां क्रंातिकारियों के संपर्क में आकर मारवाड़ी युवकों को इस आंदोलन में सहायता करने के लिए प्रेरित करने लगे। वहां पर आपने कलकत्ता आर्यसमाज के सहयोग से ‘सत्य सनातन धर्म ’ नामक एक पत्र निकालकर समाज में फैली हुई कुरीतियों का भंडाफोड़ करना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1907 में जब लाला लाजपतराय को देश-निकाला दिया गया तब आपने ‘देश-भक्त लाजपत’ नामक एक पुस्तक लिखी बाद में ‘प्रणवीर कार्यालय, नागपुर से प्रकाशित हुए थे। जब ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ काशी’ ने अपनी ‘मनोरंजन’ पुस्तक माला’ का प्रकाशन आरम्भ किया तो गोकुलजी को ‘नेपोलियन  बोनापार्ट’ नामक पुस्तक के अंतर्गत ही प्रकाशित हुई थी। इसके बाद आपकी लेखनी ने विश्राम ही नहीं लिया और ‘गुरू गोविन्द सिंह, ‘नीति दर्शन’ तथा ‘देश का धन’ आदि कई पुस्तकें आपने लिखीं

नागपुर के श्री सतीदास मूंधड़ा नामक एक युवक के संपर्क में आकर आपने नागपुर से ‘प्रणवीर’ नामक एक अर्ध साप्ताहिक पत्र का संपादन भी प्रारम्भ किया। वहां पर एक भाषण देने के अभियोग में आपको 6 माह का कारावास भी भोगना पड़ा था। 

इसके उपरान्त आप सन् 1925 में कानपुर आकर कम्युनिस्ट-कांग्रेस में सहयोगी बने। यहां पर आपने एक ‘क्रांतिकारी दल’ का गठन किया तथा श्री सुरेशचंद्र भट्टाचार्य के मकान में श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और भगतसिंह से भी आपका संपर्क हुआ। ‘काकोरी केस’ के बाद बचे-खुचे युवको को बटोरकर आपने और भी सुदृढ़ संगठन किया। उन्हीं दिनों काकोरी केस से फरार होकर श्री चंद्रशेखर आजाद ने कुछ दिन तक श्री गोकुलजी के घर पर ही कानपुर में निवास किया था। सन् 1929 में जब श्री सांडर्स की हत्या के कारण देश में बहुत हलचल मची थी, तब आगरा में भी श्री गोकुलजी के मकान की तलाशी ली गई थी। पुलिस ने गोकुलजी की ‘कम्युनिज्म क्या है? नामक पुस्तक को अपने कब्जें में कर लिया था। आपकी ‘क्रान्ति’ का आगमन’ नामक पुस्तक भी ऐसी ही थी। आपने आगरा ने सन् 1923 में ‘नवयुग’ नामक एक दैनिक भी निकाला था। 

जब आप पर सब ओर से संकट के बादल मंडराने लगे और आपका स्वास्थ्य भी खराब हो गया तो जून सन् 1935 में आप स्वामी ब्रहमानन्द द्वारा संस्थापित एक विद्यालय (खोही, हमीरपुर) में चले गए और वहां रहकर ही गुप-चुप क्रान्ति दल का संगठन-कार्य करने लगे। उन्हीं दिनों आपको अचानक पेचिश हो गई और चिकित्सा के अभाव में 3 सितम्बर 1935 को अपनी इहलीला समाप्त कर दी। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने आपकी स्मृति में समाज-सुधार-संबंधी उत्कृष्ट पुस्तक लिखने पर ‘राधामोहन गोकुलजी पुरस्कार’ देने की घोषणा की थी। 20 फरवरी, 1972 को आगरा की ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के भवन में गोकुलजी का एक चित्र भी उनकी 108 वीं जयन्ती पर लगाया गया था। इस चित्र का निर्माण गोकुलजी के पौत्र श्री प्रकाशचंद्र ने कराया था। 

आपके मानस में देश के लिए कुछ कर गुजरने की इतनी उत्कट आकांक्षा थी कि आप उन दिनों राजा महेन्द्रप्रताप से भेंट करने के उद्देश्य से नेपाल गये थे जिन दिनों वे विदेशी नौकरशाही के विरूद्ध जापान जाकर अपनी क्रान्तिकारी योजना बना रहे थे। वे बिना किसी को बताए शिवरात्रि के अवसर पर नेपाल के पवित्र मन्दिर ‘पशुपतिनाथ’ की यात्रा के बहाने वहां चले गए थे। लेकिन जब वहां जाकर भी उन्हें राजा साहब तक पहुंचने का कोई उपाय न सूझा तो वे वापिस भारत आ गए। आपकी देश-भक्ति तथा अटूट कार्य-निष्ठा के सम्मान में ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ नामक पुस्तक के लेखक और प्रख्यात पत्रकार पण्डित सुन्दरलाल ने यह ठीक ही लिखा है-‘‘स्वर्गीय पत्रकार भाई राधामोहन गोकुलजी को मैं उन लोगों में गिनता हूं जिन्होंने अपना सर्वस्व और सारा जीवन इस पराधीन देश को स्वाधीनता दिलाने में तथा ऊपर उठाने में खपा दिया और मैं उन्हें तथा उनके सारे जीवन को बुनियाद (नींव) के उन पत्थरों में गिनता हूँ जिनके ऊपर उस समय के और उसके बाद के लोगों ने स्वाधीन भारत की इमारत को ऊँचा किया है।’’

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी / क्षेमचंद्र ‘सुमन’

 


आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के इतिहास में युग-प्रवर्तक के रूप में विख्यात है। वे मुख्यतः निबन्धकार और समालोचक थे। उन्होंने साहित्यिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक और वैज्ञानिक आदि अनेक विषयों पर निबन्ध लिखे थे। वे कठिन से कठिन विषय को सरल भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत करते थे कि पाठक उसे सहज ही में हृदयांगम कर लेता था। हिंदी-गद्य की समृद्धि और भाषा-परिष्कार के क्षेत्र में आपकी देन सर्वथा अप्रतिम कही जा सकती है। खड़ी बोली को गद्य की भांति पद्य की भाषा बनाने का आन्दोलन ीाी आपने ही चलाया था। ‘सरस्वती’ के सफल संपादन द्वारा आपने हिंदी भाषा और साहित्य की जो उल्लेखनीय सेवा की थी, उसीके कारण आपको ‘आचार्य’ का शीर्ष अभिधान प्राप्त हुआ था। सन् 1903 से निरन्तर 20 वर्षो तक ‘सरस्वती’ का संपादन करके आपने हिंदी को नई गति और शक्ति प्रदान की थी। 

आचार्य द्विवेदीजी का जन्म उत्तरप्रदेश के रायबरेली जनपद के दौलतपुर नामक ग्राम में सन् 1864 ईस्वी में हुआ था। आपके पिता श्री रामसहाय द्विवेदी महावीर हनुमान के परम भक्त थे और इसी कारण उन्होंने पुत्र का नाम ‘महावीर सहाय’ रखा था, जो बाद में आचार्य द्विवेदी के अध्यापक की भूल से ‘महावीरप्रसाद’ हो गया। यह यहां भी उल्लेखनीय है कि आचार्य जी के जन्म के आधे घण्टे बाद ‘जात कर्म’ होने से पूर्व पंडित सूर्यप्रसाद द्विवेदी नामक एक ज्योतिषी ने उनकी जीभ पर ‘सरस्वती’ का बीज मंत्र लिखा था। कदाचित् इस मंत्र ने ही आगे चलकर यह करिश्मा दिखाया कि ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में आचार्य द्विवेदी जी ने चरम कोटि की प्रसिद्धि प्राप्त की थी। प्रारम्भ में आपने घर पर ही संस्कृत की ‘दुर्गा सप्तशती’, विष्णु सहस्र नाम’, ‘शीघ्रबोध’ तथा ‘मुहूर्त चिन्तामणि’ आदि कई पुस्तकें कण्ठस्था कर ली थी। गांव के प्राइमरी स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करके आप 13 वर्ष की आयु में अंग्रेज पढ़ने के लिए अपने ग्राम से 32 मील दूर रायबरेली के हाई स्कूल में प्रविष्ट हुए।

अंग्रेजी के साथ आपने दूसरी भाषा फारसी रखी। क्योंकि उन दिनों स्कूलों में संस्कृत नहीं पढ़ाई जाती थी, इसलिए द्विवेदी जी उसका ज्ञान घर पर ही प्राप्त कर लिया था। क्यांेकि रायबरेली का स्कूल दौलतपुर से दूर था, अतः आप सुविधा की दृष्टि से पास के उन्नाव जनपद के ‘रणजीतपुरवा’ नामक स्थान पर स्थित स्कूल में आ गये। किंतु जब वह स्कूल किसी कारण से बंद हो गया तब आपको फतहपुर के स्कूल में जाना पड़ा। यहां से भी आप किन्ही असुविधाओं के कारण आगे पढ़ने के लिए उन्नाव चले गये। इस प्रकार जगह-जगह मारे-मारे फिरने और अनेक स्कूल बदलते रहने के कारण आपकी शिक्षा व्वयस्थित रूप से न हो सकी और आपने अंत में स्कूल को नमस्कार करके अजमेर जाकर 15 रूपये मासिक की रेलवे की नौकरी कर ली। 

जिन दिनों आपने यह नौकरी प्रारम्भ की थी, तब आपके पिता बम्बई मे ं थे। कुछ दिन तक अजमेर में कार्य करने के उपरान्त आप नागपुर और फिर कार्य करते हुए धीरे-धीरे आपकी उन्नति होती गई और महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के अनेक नगरों में रहकर फिर आप झांसी आकर जी0आई0पी0 रेलवे के ‘डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट’ के कार्यालय में हैड क्लर्क हो गए। झांसी में रहते हुए आपने अपने कुछ बंगाली मित्रों की कृपा से बंगला भाषा का ज्ञान भी बढ़ा लिया। मराठी का अध्ययन आपने महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कार्य-काल में कर लिया था। यहां रहते हुए भी आपने संस्कृत के काव्य तथा अलंकार शास्त्र का विधिवत अध्ययन करके साथ-साथ अपने काव्य रचना के अभ्यास को बढ़ाया। अपनी इस साहित्य-साधना के क्रम में आपके संस्कृत ग्रंथो की कई पुस्तकें तथा समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। द्विवेदी जी ने नौकरी छोड़कर ‘साहित्य सेवा’ के क्षेत्र में अवतरित होने का विचार पहले से ही बना  रखा था। इसी बीच एक ऐसी घटना घट गई जिसके कारण आपको तुरन्त नौकरी छोड़ने का निश्चय करना पड़ा। एक दिन आपकी अपने कार्यालय के नये सुपरिण्टेण्डेण्ट से खटपट हो गई और आपने तुरन्त त्यागपत्र दे दिया। 

सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण से मुक्ति पाकर आपने इंडियन प्रेस प्रयाग के स्वत्वाधिकारी श्री चिन्तामणि घोष के आग्रह पर ‘सरस्वती’ के संपादन का जो कार्य सन् 1903 को संभाला था, उसे लगभग 20 वर्ष तक पूर्ण तत्परता एवं लगन के साथ निबाहते रहे। आपके संपादन में जहाँ सरस्वती की बहुमुखी उन्नति हुई वहां आपके द्वारा हिंदी-साहित्य के उत्कर्ष का नया अध्याय ही प्रारम्भ हुआ। आपने अपनी कर्मठता से यह सिद्ध करके दिखा दिया कि एक पुरूष अपने ही उद्योग से विद्वता प्राप्त करके साहित्य-निर्माण की दिशा में उन्नति के शिखर पर किस प्रकार प्रतिष्ठित हो सकता है। आपने अपना पारिवारिक स्थति और तत्कालीन परिवेश का वर्णन करते हुए अपने जीवन संघर्षो के संबंध में जो विचार प्रकट किये थे,वे हम सब के लिए प्रेरणाप्रद है। उन्होंने लिखा था- मैं एक ऐसे देहाती का एक मात्र-आत्मज हूँ, जिसका मासिक वेतन सिर्फ 10 रूपये था। अपने गांव के देहाती मदरसे में थोड़ी सी उर्दू और घर पर थोड़ी सी संस्कृत पढ़कर 13 वर्ष की आयु में मैं 36 मील दूर रायबरेली के जिला-स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने लगा। आटा-दाल घर से पीठ पर लादकर ले जाता था। दाल ही में आटे के पेड़े या टिकिया पका करके पेट पूजा किया करता था। रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था। दो आने फीस देता था। संस्कृत भाषा उस समय स्कूल में वैसी ही अछूत समझी जाती थी, जैसे कि मद्रास के नम्नूदिरी ब्राह्मणों में शूद्र जाति समझी जाती है। विवश होकर अंग्रेजी के साथ फारसी पढ़ता था। एक वर्ष किसी तरह वहां काटा। फिर पुरवा, फतहपुर और उन्नाव के स्कूल में चार वर्ष काटे। कौटुम्बिक दूरवस्था के कारण मैं इससे आगे न पढ़ सका। मेरी स्कूली शिक्षा यही समाप्त हो गई।’’ आपको आजीवन संघर्षो से जूझकर अपने लिए नये मार्ग का निर्माण करना पड़ा था। 

आपकी प्रतिभा का ज्वलन्त प्रमाण यही है कि इतने संघर्षो में रहते हुए भी आपने अपनी लेखनी को कभी विराम नहीं दिया और प्रतिवर्ष कोई न कोई नई रचना हिंदी-साहित्य को देते रहे। आपने जहां संस्कृत में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद प्रस्तुत किया, वहां कई अंग्रेजी की उपयोगी पुस्तकों के हिंदी अनुवाद भी साहित्य-संसार को प्रदान किये। 

आपकी ऐसी कृतियों में ‘कुमार-संभव-सार’, ‘नैषध चरित चर्चा’, ‘विक्रमाकदेव चरित चर्चा’, ‘कालिदास की निरंकुशता’, ‘हिंदी कालिदास की समालोचना’, ‘किरातार्जुनीय की टीका’ और ‘मेघदूत की टीका’ के अतिरिक्त ‘स्वाधीनता’(जान स्टुअर्ट मिल की लिबर्टी का अनुवाद) और ‘शिक्षा’ (हर्बर्ट स्पेंसर की ‘एजुकेशन’ का अनुवाद) उल्लेखनीय है। आपने लार्ड बेकन के प्रमुख निबन्धों का भी अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ नाम से किया था। आपके समीक्षात्मक तथा वर्णनात्मक निबन्धों के आकलन आपकी ‘अद्भुत आलाप’ ‘आध्यात्मिकी’, ‘आलोचनांजलि’, ‘कोविद कीर्तन’, ‘नाट्यशास्त्र’, ‘प्राचीन चिन्ह’, ‘प्राचीन पण्डित और कवि’, ‘पुरातत्व-प्रसंग’, ‘रसज्ञ-रंजन’, ‘लेखांजलि’, ‘विचार-विमर्श’, ‘संकलन’, ‘साहित्य-सन्दर्भ’, ‘साहित्य-सीकर’, ‘सुकवि-संकीर्तन’ तथा ‘हिंदी भाषा की उन्नति’ विशेष उल्लेखनीय है। आपकी ‘सुमन’, ‘कविता-क्लाप’, द्विवेदी काव्यमाला’ और ‘काव्य मंजूषा’ नामक पुस्तकें कविताओं के संकलन है और ‘आख्यायिका सप्तक’, ‘चरित-चर्चा’, ‘जल चिकित्सा’ ‘वनिता विलास’ ‘नगर विलास’, ‘विदेशी विद्वान’, ‘विज्ञान-वार्ता’, ‘वैचित्रय चित्रण’, ‘संपत्ति शास्त्र’ और ‘हिंदी महाभारत’ आदि अन्य पुस्तकों का हिंदी के बहुमुखी विकास में बहुत बड़ा योगदान है। इन पुस्तकों के अतिरिक्त आको ‘विनय विनोद’ (भर्तृहरि के वैराग्य शतक का दोहो में अनुवाद) ‘विहार वाटिका’ (गीतगोविन्द का भावानुवाद), ‘स्नेह माला’ (भर्तृहरि के श्रंगार शतक’ का दोहो का अनुवाद), ‘भामिनी विलास’ (पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रंथ का छायानुवाद) आदि पुस्तकंें भी प्रकाशित हुई थी। आपने वाइरन के ‘ब्राइडल नाइट’ का छायानुवाद भी ‘सोहाग रात’ नाम से किया था, जो अप्रकाशित ही रह गया। आप संस्कृत के भी सुलेखक तथा कवि थे। आपकी संस्कृत की प्रकाशित रचनाओं में ‘देवी स्तुति शतक’, ‘कान्यकुब्जावली व्रतम्’ तथा ‘समाचारपत्र संपादक-स्तवः’ आदि प्रमुख हैं आपकी स्वाध्यायशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि इतना बहुबिध लेखन आपने किया था। 

अपने 20 वर्ष के संपादन-काल में आचार्य द्विवेदी जी ने जहाँ भाषा के परिष्कार और उसके स्वरूप-निर्धारण के लिए अथक संघर्ष किया था, वहां हिंदी में लेखकों तथा कवियों की एक पीढ़ी का निर्माण ही आपने कर दिया था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे प्रतिभाशाली कवि और अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी- जैसे तेजस्वी पत्रकार आपकी ही देन है। अपने कार्य-काल में द्विवेदी जी ने जहां हिंदी में अनेक आंदोलनों का सूत्रपात किया था, वहाँ साहित्य-क्षेत्र में व्याप्त बहुत-सी अराजकताओं का निराकरण करने में भी आप नहीं चूके। अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू जब हिंदी में लिखना अपमान समझते थे, तब आपने हिंदी का वातावरण बनाकर सैकड़ो हिंदी-लेखक तैयार किये थे। आप ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त के कट्टर विरोधी थे। आपकी ऐसी धारणा का परिचय इन पंक्तियों से मिलता है। केवल कविता के लिए कविता करना एक तमाशा है।’’ भाषा की एकरूपता तथा सरलता के संबंध में भी आपके विचार अनुकरणीय और माननीय है। इस संबंध में हिंदी में व्याप्त विषमता का विवेचन करते हुए आपने यह ठीक ही लिखा था-‘‘ गद्य और पद्य की भाषा पृथक-पृथक नहीं होनी चाहिए। हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसके गद्य में एक प्रकार की और पद्य में दूसरे प्रकार की भाषा लिखी जाती है। सभ्य समाज की जो भाषा हो, उसी भाषा में गद्य-पद्यात्मक साहित्य होना चाहिए, बोलना एक भाषा, और कविता में प्रयोग करना दूसरी भाषा प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध हैं जो लोग हिंदी बोलते है और हिंदी ही के गद्य-साहित्य की सेवा करते है, उनके पद्य में ब्रजभाषा का आधिपत्य बहुत दिनों तक नहीं रह सकता।’’

हिंदी भाषा तथा साहित्य-संबंधी आपकी उल्लेखनीय सेवाओं के उपलक्ष्य में काशी नगरी प्रचारिणी सभा ने जनवरी सन् 1931 में जब आपकों अभिनन्दन-पत्र अर्पित किया था तब आचार्य शिवपूजनसहाय ने सभा की ओर से उन्हें एक अभिनन्दन -ग्रंथ समर्पित करने की योजना भी प्रस्तुत की थी। 2 मई, सन् 1933 ई0 को सभा ने बड़े समारोहपूर्वक काशी में वह अभूतपूर्व ‘अभिनन्दन-ग्रंथ’ भेट करके अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की थी। इसके 2 दिन बाद प्रयाग में भी ठाकुर श्रीनाथसिंह, मुंशी कन्हैयाला एडवोकेट तथा श्री लक्ष्मीबर वाजपेयी आदि अनेक महानुभावों के उद्योग से ‘द्विवेदी-मेला’ आयोजित करके उसमें भी द्विवेदी जी का अभिनन्दन किया गया था। आचार्य द्विवेदीजी ‘प्रचार और विज्ञापन’ से इतना दूर रहते थे कि अनेक बार प्रयास करने पर भी उन्हें ‘अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता के लिए तैयार न किया जा सका। हाँ, स्वागत-सत्कार करने में आप सबसे आगे रहते थे। इसका प्रमाण हमें इस बात से मिल जाता है कि जब कानपुर में हिंदी साहित्य सम्मेलन का तेरहवां अधिवेशन सन् 1922 में किया गया था तब उसकी ‘स्वागत-समिति’ की अध्यक्षता का भार आपने ही सहर्ष संभाला था। ‘सरस्वती’ से अलग होने पर अपने जीवन के 18 वर्ष आपने अपने गाँव में रहकर ही व्यतीत किये थे। इण्डियन प्रेस से आपको पेंशन से जो पचास रूपये मिलते थे, द्विवेदी जी उसी में अपना जीवन-यापन करते थे। स्वाभिमानी इतने थे कि कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया और अपनी गरीबी मेें ही मस्त रहे। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने आपको अपनी सर्वोच्च उपाधि ‘साहित्य वाचस्पति’ से सम्मानित किया था। 

आपका निधन 21 दिसंबर सन् 1938 को हुआ था।


श्री अमृतलाल चक्रवर्ती / क्षेमचंद्र ‘सुमन’


श्री अमृतलाल चक्रवर्ती हिंदी के ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने बंग-भाषी होते हुए भी दरिद्रता को अपनाकर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए निरन्तर अभावों और कष्टों में रहते हुए हिंदी-सेवा का पावन व्रत लिया था। उनका यह स्पष्ट मत था कि जन-भाषा जनता की जीभ हुआ करती है, जिसके कटते ही राष्ट्र गूंगा हो जाता है। श्री चक्रवर्ती यदि चाहते तो वकालत के पेशे को अपनाकर काफी धन अर्जित कर सकते थे, परंतु ‘हिंदी सेवा’ करने की पुनीत भावना के कारण उन्हें निरन्तर कष्टों का वरण करना पड़ा और नौकरी के लिए दर-दर की खाक छाननी पड़ी। अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उन्होंने पत्र-संचालकों की स्वेच्छाचारिता के समक्ष कभी भी अपने घुटने नहीं टेके और निरन्तर नई-नई राहें बनाते रहे। यदि वे चाहते तो समझौता करके कलकत्ता में ही जमे रहकर  अपना जीवन-यापन कर सकते थे, किंतु वे किसी के सामने झुकें नहीं। उन्होंने अपने पत्रकार-जीवन में ‘हिंदी बंगवासी’ तथा ‘भारत मित्र’ (कलकत्ता) के अतिरिक्त ‘हिंदोस्थान’ (कालाकाँकर) और ‘वेंकटेश्वर समाचार’(बम्बई) आदि कई पत्रों का संपादन किया था। 

श्री चक्रवर्ती का जन्म अपनी ननसाल ‘इलाची’ नामक ग्राम में सन् 1863 ई0 में हुआ था। यह ग्राम कलकत्ता से पूर्व में है। आपके पूर्वजों का निवास-स्थान बंगाल के ‘चैबीस परगना’ जिले का ‘नौवरा’ ग्राम था। कुछ समय तक इलाहाबाद के रेलवे के लोको विभाग में नौकरी करने के उपरान्त वहाँ से प्रकाशित होने वाले ‘प्रयाग समाचार’ नामक पत्र में कार्य करने लगे। चक्रवर्ती जी ने अपनी पारम्परिक परिपाटी के अनुसार बचपन में संस्कृत पढ़ी थी और किशोर वय में उनका संपर्क हिंदी-प्रदेश से हो जाने के कारण हिंदी में उनकी गति अच्छी खासी हो गई थी। वे जिन दिनों अपने मामा और मौसी के साथ गाजीपुर में रहे थे, उन दिनों उन्होंने फारसी का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया था। इलाहाबाद ‘प्रयाग समाचार’के उपरान्त आपने कुछ दिन तक कालाकाँकर राज्य की ओर से प्रकाशित होने वाले राजा रामपाल सिंह के ‘हिंदोस्थान’ नामक पत्र के संपादन का दायित्व भी अपने ऊपर लिया था। 

‘हिंदोस्थान’ की नौकरी छोड़ने के बाद चक्रवर्ती जी कलकत्ता चले गये और वहाँ पर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन करके सन् 1890 में उन्होंने बी0ए0 (आनर्स) की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। फिर जब कलकत्ता से ‘हिंदी बंगवासी’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तो आपने उसका संपादन लगभग 10 वर्ष तक किया था। वहाँ पर कार्य करते हुए ही आपने सन् 1894 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0एल0 की परीक्षा भी उत्तीर्ण की थी। ‘हिंदी बंगवासी’ के प्रकाशन के संबंध में श्री बालमुकुन्द गुप्त की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है- ‘हिंदी बंगवासी’ एकदम नये ढंग काउ अखबार निकाला। हिंदी में उससे पहले वैसा अखबार कभी न निकला था।...... बहुत सी ऐसी बातें उसमें छपने लगी थी जोकिसी और हिंदी अखबार में न होती थी। थोड़े ही दिनों में इसकी ग्राहक संख्या दो हजार हो गई थी।’’ सन् 1900 तक ‘हिंदी बंगवासी’में कार्य करने के उपरान्त आप बाबू बालमुकुन्द गुप्त के अनुरोध पर ‘भारत-मित्र’ में चले गए। अनेक छोटी-मोटी कहानियाँ लिखने के अतिरिक्त उसमें ‘शिवशम्भू का चिटठा’नामक स्तम्भ भी अपने ही प्रारम्भ किया था। उन्हीं दिनों आपने ‘सती सुखदेई’ नामक एक मौलिक उपन्यास भी लिखा था। जो ‘भारत मित्र’ कार्यालय से ही प्रकाशित हुआ है। ‘हिंदी बंगवासी’ कार्यालय से आपकी ‘शिवाजी की जीवनी’ तथा ‘सिख युद्ध’ नामक पुस्तको के अतिरिक्त ‘महाभारत’ ‘भगवद्गीता’ तथा संस्कृत के कई ग्रन्थों के अनुवाद भी प्रकाशित हुए थे। 

लगभग डेढ़ दो वर्ष तक भारत मित्र में रहने के उपरान्त आप बम्बई के ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में चले गए। उन्हीं के प्रयास से उसका दैनिक संस्करण भी प्रकाशित हुआ था। फिर उन्होंने चतुर्वेदी पं0 द्वारकाप्रसाद शर्मा के सहयोग से प्रयाग आकर ‘उपन्यास कुसुम’ नामक एक मासिक पत्र प्रकाशित किया, किंतु एक ही अंक निकलने के बाद वह बंद हो गया, क्योंकि उसी समय आप ‘अखिल भारतीय भारत धर्म महामंडल’ के मैनेजर नियुक्त होकर मथुरा चले गये थे। वहाँ पर लगभग सवा दो वर्ष रहकर आपने ‘निगमागम चन्द्रिका’ नामक पत्र का संपादन किया था। जब मण्डल का कार्यालय मथुरा से काशी चला गया तब आप फिर ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में कार्य करने के लिए बम्बई चले गये। बंगाल में जब स्वदेशी का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब सन् 1906 से 1909 तक आपने अपनी जन्मभूमि में आकर स्वदेशी वस्त्रों का प्रचार किया। जब वे ‘कलकत्ता समाचार’ में कार्य करते थे, तब ‘भारत मित्र’के संपादक श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर से अनेक विषयों पर उनके मतभेद भी हुए थे। जिसका उन्होंने अपने पत्र में खुलकर विरोध किया था। उन पत्रों में कार्य करने के अतिरिक्त आपने ‘श्री सनातन धर्म’ और ‘फारवर्ड’ आदि कई पत्रों में कार्य किया था, परंतु सैद्धान्तिक मतभेद होने के कारण वे उनमें अधिक दिन तक हीं टिक सके। 

श्री चक्रवर्ती जी की संपादन-शैली का निखार-परिष्कार ‘हिंदी बंगवासी’ के कारण हुआ था। उनके संपादन-काल में उसमें सभी प्रकार की सामग्री प्रकाशित होती थी। मूलतः बंगला-भाषाभाषी होते हुए भी आपने हिंदी सेवा का जो व्रत लिया था, कदाचित् उसी के कारण आपको अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के वृन्दावन में नवम्बर सन् 1925 में संपन्न हुए सोलहवें अधिवेशन का सभापति भी बनाया गया था। सन् 1885 से लेकर सन् 1925 तक निरन्तर चालीस वर्ष आपने हिंदी की सेवा की थी। कुछ दिन तक आप कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘उपन्यास तरंग’ और ‘श्री कृष्ण संदेश’ के संपादकीय विभाग में भी रहे थे। आपके द्वारा लिखित ‘चंद्रा’ नामक उपन्यास अनेक वर्ष तक हिंदी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं में पाठ्यक्रम के रूप में रहा था। आपका निधन सन् 1936 में कलकत्ता में हुआ था। 

जब आप हिंदी साहित्य सम्मेलन के वृन्दावन में संपन्न होने वाले ‘षोडश अधिवेशन’ के अध्यक्ष बनाए गए, तब ‘विशाल भारत’ के ख्यातनामा संपादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनके व्यक्ति तथा कृतित्व की सराहना करते हुए जो विचार प्रकट किये थे, उनसे श्री चक्रवर्ती जी की विशेषताओं का परिचय भली प्रकार मिल जाता है। उन्होंने लिखा था- ‘‘षोडश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति ने अपने जीवन में अनेक व्यवसाय और अनेक काम किये है, पर आपकी प्रकृति हिंदी-पत्र संपादन की ओर ही रही है। आपकी जीवन-परिधि का केन्द्र जर्नलिज्म ही रहा है। सन् 1885 से लेकर जबकि आप ‘हिंदोस्थान’ के संपादकीय विभाग में काम करने के लिए कालाकाँकर चले गए थे, सन् 1925 तक यानी इन चालीस वर्षो में आपने हिंदी जर्नलिज्म का खूब अनुभव प्राप्त किया। मातृभाषा बंगला होने पर भी राष्ट्रभाषा गांधी, माधवराव सप्रे और अमृतलाल चक्रवर्ती को, जिनकी मातृभाषाएँ क्रमशः गुजराती, मराठी, और बंगला थी,हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति निर्वाचित कर हिंदी जनता ने अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया है। हिंदी के राष्ट्रभाषा होने का इससे उत्तम प्रमाण और क्या मिल सकता है।’’

जिन दिनों आप हिंदी सहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनाए गये थे, तब आप अपना जीवन अत्यन्त विपन्न अवस्था में व्यतीत कर रहे थे। आपके पास वृन्दावन तकजाने के लिए न तो किराये के पैसे थे और न पहनने के लिए उपयुक्त वस्त्र ही थे। मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव के अनुरोध पर ‘मतवाला’ के संचालक महादेवप्रसाद सेठ ने जब इस संबंध में उनकी कुछ सहायता करनी चाही तो उन्होंने पहले तो लेने से इन्कार कर दिया, किंतु बाद में उसके बदले कुछ काम कर देने की शर्त पर आपने यह सहायता स्वीकार कर ली। उन दिनों ओढ़ने के लिए एक फटा-सा कम्बल और जीर्ण-जर्जर चटाई के सिवा आपके पास कुछ न था। यहाँ तक कि एक बार किसी व्यक्ति का ऋण न चुका पाने पर आपको कठिन कारावास की सजा भी भुगतनी पड़ी थीं 

आपके मानस में हिंदी के प्रति प्रेम किस प्रकार उत्पन्न हुआ इसका परिचय उनके ‘मेरे संस्मरण’ नामक एक लेख की इन पंक्तियों से भली-भांति मिल जाता है- ‘‘एक दिन मैं मित्रों के साथ प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर माघ मेला देखने गया। अनेकानेक साधु एक से एक दर्शनीय आसन लगाये बैठे थे। सभी साधु केवल हिंदी बोलते थे। भारत के सभी प्रान्तों के मनुष्य उन साधुओं में थे। मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, बंगाली आदि को युक्तप्रान्तीय की तरह बोलते देखकर मैंने समझा कि हिंदी ही सर्व भारत की भाषा है। यदि गुण में वह अंग्रेजी के जोड़ की हो जाये और अंग्रेजी के बदले प्रान्त-प्रान्त के परस्पर मनोभावों के आदान-प्रदान का माध्यम हो, तो जातीय अपमान और अभाव-बोध की ग्लानि का अंत करके देशात्म-बोध जाग्रत कर दे।....... हिंदी लिखने की वासना मुझमें जाग्रत हुई।‘प्रयाग समाचार’ के संपादक पण्डित देवकीनन्दन त्रिपाठी और ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट हमारे हिंदी लिखने के प्रेरक बने।’’

जिन दिनो आप अत्यन्त आथ्रिक कठिनाइयों में थे, तब आपने ‘विनम्र निवेदन’ शीर्षक से एक ऐसी कविता लिखी थी जिसमें आपने हिंदी-जगत से अपनी विपन्नावस्था के प्रति सहायता की याचना की थी। यह कविता वास्तव में श्री चक्रवर्ती जी की स्थिति की ही नहीं, प्रत्युत उस समय के प्रायः सभी पत्रकारों एवं साहित्यकारों के कष्टों की गाथा है। ‘सरस्वती’ के जनवरी सन् 1929 के  अंक में प्रकाशित यह कविता अविकल रूप में यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। 

होता स्मृत हिंदी लेखक चिता में जलने पर।

जलता मैं चिता से बढ़, हे हिंदी प्रेमिकवर।।

ऋणी, निरन्न रूग्ण,वृद्ध अब धनार्जन अक्षम।

दो सहस्र मुद्रा अर्थ महाजन दिखते यम।।

चिर-हिंदी-व्रती सेवक की आज दीन दशा यही।

अध्ययन-रत पुत्र-पठन रोके बिना गति नहीं।।

हिंदी-गद्य चला जब से तभी का हूं लेखक।

छियालीस सुदीर्घ वर्ष रहा पत्र-संपादक।।

धन-न्यूनता उठवाती कुटी में आत्र्त-नाद।

सहवाता दारिद्रय को सुनाता देव वाद।।

बी0एल0 में धन-राशि पर होता कर वकालत।

सरकारी नौकरी भी लाती पिनसिन सतत।।

रेलादि भी प्रोविडेण्ट फण्ड से देती धन।

न किसी ओर हुआ लुपित हिंदी-रस- विलसित मन।।

जाति-भाषा हिंदी की करने में निजाया।

उस आदि से निष्किंचन जीवन को बनाया।।

बुध परस्पर प्रान्तों के चलाते नृप-भाषा।

देश-भाषा एक बिना जाति-गठन दुराशा।।

भावार्थ सुख-साध बर्ज मनाया आत्म-तोष।

अब असमर्थ निःसहाय असाध्य निःस्व दोष।।

जब साहित्य सम्मेलन सभापति पद मिला।

तो हिंदी-पे्रमियों का प्रेम-सुमन खिला।।

अब जब रूज ऋण दारिद्रय रूलाते वृद्ध-प्राण।

तो क्या फण्ड प्रोविडेण्ट गढ़ेंगे क्षम सुजान।।

हे समर्थ संपादको यदि कृपा करें आप।

तो हो लुप्त चुटकी से, अन्ततः ऋण अभिशाप।।

दो दो सौ पाठकों से यदि बस ही महाशय।

ले एकेक दे मुद्रा तो उऋण हो जाऊँ जय।।

अमृतलाल चक्रवर्ती विनम्र का निवेदन।

करूणाकर महोदयों कीजै भय-निवारण।।

क्या आप आज यह कल्पना कर सकते है कि कभी चक्रवर्ती जी को ऐसी विपत्तियों का सामना करना पड़ा होगा।


मेहता लज्जाराम शर्मा / क्षेमचंद्र ‘सुमन’


मेहता लज्जाराम शर्मा हिंदी-पत्रकारों की उस पीढ़ी में अग्रण्य स्थान रखते है, जिन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी न होते हुए भी उसे राष्ट्र सेवा की पवित्र भावना से अपनाया थाद्य। गुजराती-भाषी होते हुए भी आपने हिंदी सेवा का जो पावन संकल्प लिया था, उसे आजीवन निभाया और ‘वेंकटेश्वर समाचार’में जाने से पूर्व आपने बूंदी से ‘सर्व हित’ नामक जिस पत्र का संपादन किया था उसमें आपकी पत्रकारिता के प्रारम्भिक चिन्ह देखे जा सकते है। 

श्री मेहताजी का जन्म बूँदी (राजस्थान) के एक गुजराती ब्राह्मण-परिवार में सन् 1863 में हुआ था। आपके जन्म के सम्बन्ध में यह सर्वविदित तथ्य है कि ईश्वरीय नियम के विपरीत आप माता के गर्भ में 9 मास के बजाय 18 मास तक रहे थे। इसका उल्लेख मेहताजी ने अपनी ‘आत्मकथा’ में इस प्रकार किया है-‘‘यह ठहरी हुई बात है कि बिना किसी बीमारी के प्रकृति के नियत समय के अतिरिक्त बालक गर्भ में निवास नहीं कर सकता। मैं 18 मास तक गर्भ में रहा। इसके लिए मेरी माता कभी-कभी कुछ कहा भी करती थी, किंतु इतना निश्चय है कि मेरी बीमारी ने मेरे साथ-साथ ही जन्म ग्रहण किया था। जन्म से लेकर आज तक चैसठ वर्षो का अधिक भाग मेरा बीमारी ही बीमारी में व्यतीत हुआ है।’’ आपके जीवन में एक बात और नई थी। आप दाहिने हाथ की बजाय बाएँ हाथ से लिखा करते थे। आपके बचपन का नाम ‘लल्लू’ था, जो कालान्तर में विद्यालय में जाने पर ‘लज्जाराम’ हो गया था। 

यद्यपि आपकी मातृभाषा गुजराती थी, किंतु हिंदी-भाषा के प्रचार तथा प्रसार के लिए आपने अपना समस्त जीवन ही खपा दिया था। आपकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई थी और गुजराती के अतिरिक्त् आपने हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। आपके पिता श्री गोपालराम नौकरी की तलाश में सन् 1854 के आस-पास बूँदी आए थे। इससे पूर्व आपके पितामह श्री गणेशराम जी कुछ समय तक अनूपशहर (बुलन्दशहर) भी रहे थे और वहाँ रहते हुए उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक व्यापार भी किया था। अनूपशहर में आपके परिवार की उन दिनो अच्छी ख्याति थी। बूँदी में क्योकि आपके पिता राज्य की नौकरी में थे, अतः आपका परिवार भी स्थायी रूप से बही का निवासी हो गया था। आपके पिताजी ने सन् 1854 से सन् 1881 तक निरन्तर 27 वर्ष तक बूँदी राज्य की नौकरी अत्यन्त निष्ठापूर्वक की थी। 

बाल्यावस्था से ही स्वाध्याय की प्रवृत्ति होने के कारण आप प्रायः पुस्तको में खोए रहते थे। इस कारण आपको ‘ग्रन्थ चुम्बक’ भी कहा जाता था। अपने निरन्तर अभ्यास के कारण उन्हीं दिनों आपने ‘मराठी’ भाषा का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस प्रकार अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त आपने संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी आदि भाषाओं में इतना नैपुण्य बना लिया था कि आप उनमें अपना कार्य-व्यवहार सरलतापूर्वक कर सकते थे। 

प्रारम्भ में आपने अपने पिताजी के निधन के कारण सन् 1881 में एक कपड़े की दुकान पर नौकरी की थी और बाद में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गए थे। इस बीच आपने अपने गुरूदेव श्री गंगासहाय जी के आग्रह से बूँदी के राजकीय प्रेस से ‘सर्वहित’ नामक एक पाक्षिक पत्र सन् 1890 में प्रकाशित कराया और लगभग 6 वर्ष तक उसका सफलतापूर्वक संपादन किया था। यहाँ पर भी आपका मन अधिक समय तक नहीं जम सका और आप बम्बई से प्रकाशित होने वाले ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के सहकारी संपादक होकर वहाँ चले गए। उन दिनों बाबू रामदास वर्मा ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के सहकारी संपादक होकर वहाँ चले गए। उन दिनों बाबू रामदास वर्मा ‘वेंकटेश्वर समाचार’ के प्रधान संपादक थे। उस समय मेहताजी का वेतन केवल 35 रूपये मासिक निश्चित  किया गया था। इस बीच जब ‘वेंकटेश्वर समाचार’ की व्यवस्था कुछ बिगड़ गयी और उसकी ग्राहक संख्या कम होने लगी तो संचालकों की अनुमति से मेहता जी ने अपने एक संबंधी श्री रामजीवन नागर को उसकी व्यवस्था ठीक करने के लिए वहाँ बुला लिया। जिन दिनों मेहता जी ने यह कार्य-भार संभाला था, तब उसमें राजनीतिक विषयों तथा अन्य विश्व-रंगमंच की घटनाओं के समाचारों का सर्वथा अभाव रहता था और केवल धार्मिक तथा सांस्कृतिक समाचार ही छपा करते थे। मेहताजी ने कार्य संभालते ही सारी रीति-नीति बदल डाली और उसमें देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थतियों का भी सम्यक् होने लगा। आपने अपने संपादन काल में उसमें प्रकाशित होने वाले लेखों का स्तर इतना उन्नत कर दिया था कि उस क्षेत्र के अधिकांश मराठी तथा गुजराती भाषाओं के प्रमुख पत्र भी ‘वेंकटेश्वर समाचार’ में प्रकाशित रचनाओं को अपने पत्रों में प्रकाशित करने लगे थे। 

‘वेंकटेश्वर समाचार’ के माध्यम से मेहताजी ने जहाँ बम्बई जैसे अहिंदी भाषा प्रदेश में हिंदी का गौरव बढ़ाया, वहाँ आपने अटूट लगन तथा अनन्य कर्मठता से उसे देश के प्रतिष्ठित पत्रों में एक उल्लेखनीय स्थान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त अपने संपादन-का में आपने ऐसे अनेक साहित्यिक आंदोलनों का भी सूत्रपात किया जिनके कारण उसकी ओर देश के सभी बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित हो गया और भारत के सभी अंचलों में उसका उत्सुकतापूर्वक स्वागत किया जाने लगा। आपने अपने संपादन काल में पत्र सब ग्राहकों को प्रत्येक वर्ष अच्छी-अच्छी उपहार पुस्तकें देने की योजना भी चालू की थी। 

इस योजना के अन्तर्गत भेंट की गई सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा मूल बंगला में लिखित ‘देशेर कथा’ का हिंदी अनुवाद ‘देश की बात’ तथा प्रख्यात विचारक बेकन के गम्भीर निबन्धों का हिंदी अनुवाद ‘बेकन विचार रत्नावली’ नामक पुस्तकें विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें से पहली पुस्तक का अनुवाद श्री माधवप्रसाद मिश्र तथा दूसरी का अनुवाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया था। इस बीच पारिवारिक परिस्थितियों के कारण आपको सन् 1905 की बसंत पंचमी को निरन्तर 7 वर्ष तक कार्य करने के उपरान्त बम्बई छोड़नी पड़ी और आप वहाँ से आकर बूँदी राज्य की सेवा में लग गए। बूँदी में रहते हुए ही आपने जहाँ ‘बूंदी राज्य की सेवा में लग गए। बूंदी में रहते हुए ही आपने जहाँ ‘बूँदी का इतिहास’ लिखा वहाँ अपने को पूर्णतः साहित्य की समृद्धि के लिए ही समर्पित कर दिया। 

बम्बई में रहते हुए आपने जहाँ हिंदी-पत्रकारिता के गौरव में अभिवृद्धि की थी, वहां बूँदी आकर आपने अपनी प्रतिभा का सर्वागीण परिचय दिया। आपकी ऐसी प्रतिभा के दर्शन आपके सभी गं्रथों को देखने से हो जाते है। आपने लगभग 23 ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें से 13 उपन्यास तथा अन्य ऐतिहासिक पुस्तकें है। काल-क्रम से आपकी मौलिक रचनाओं की सूची इस प्रकार है। - उपन्यासः ‘धूर्त रसिकलाल’ (1898) ‘स्वतन्त्र रमा और परतन्त्र लक्ष्मी’ (1899), ‘हिंदू गृहस्थ’ (1901), ‘आदर्श दम्पति’ (1902),‘सुशीला विधवा’ (1907), बिगड़े का सुधार’ (1907), विपत्ति की कसौटी, (1925), तथा ‘आदर्श हिंदू’-तीन भाग, (1915), कहानीः बीरबल विनोद (1986) शिल्प तथा कारीगरीः ‘भारत की कारीगरी’ (1902) इतिहास एवं चरित्र ग्रंथः विक्टोरिया चरित्र’ (1901), अमीर अब्दुर्रहमान’ (1902) 

‘उम्मेदसिंह चरित्र, ‘बूंदी का इतिहास’(1912), जुझारू तेजा’ (1915) ‘पराक्रमी हाडाराव’, ‘बूँदी के हाडा-वंशी राजाओं का इतिहास’ (1915)‘ पं0 गंगासहाय जी का जीवन-चरित्र’ (1928), ‘ओक्षणम् गोत्र का वंश-वृक्ष, आत्म जीवनीः ‘आप बीती (1833)। इन मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त आपने गुजराती से भी कुछ उपन्यासों के हिंदी-अनुवाद प्रस्तुत किये थे, जो इस प्रकार है।- ‘विचित्र स्त्री चरित्र’, धूर्त चरित्र, ‘शराबी की खराबी’, पन्द्रह लाख पर पानी’ (1896) और ‘कपटी मित्र’(1900)। मेहताजी ने अपनी लेखनी के द्वारा पत्रकारिता-क्षेत्र की अभिवृद्धि करने के साथ-साथ अपने उपन्यासों के माध्यम से साहित्य में समाज-सुधार की भाव-धारा का प्रचलन भी किया था। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विवेकी समीक्षक ने अपने इतिहास में आपको ‘उपन्यासकार’ न मानकर केवल ‘अखबार-नबीस’ के निकृष्ट विशेषण से क्यो याद किया है?

यद्यपि ‘वेंकटेश्वर समाचार’ से अवकाश ग्रहण करके बूँदी वापस लौटने के उपरान्त आपने लेखन से सन्यास सा ही ले लिया था, किंतु ‘कलकत्ता-समाचार’ के संपादक श्री झाबरमल्ल शर्मा और ‘माधुरी’ ‘सुधा’ ‘मनोरमा’, वीणा, ‘कल्याण’ और ‘सौरभ’ आदि तत्कालीन अनेक मासिक पत्रों के अतिरिक्त ‘कलकत्ता समाचार’ ‘हिंदू संसार’ और वेंकटेश्वर समाचार’ आदि अनेक साप्ताहिक पत्रों की फाइलों में देखे जा सकते है। 

आप स्वभाव से कितने विनम्र तथा संकोची थे, इसका सुस्पष्ट प्रमाण यही है कि जब सन् 1928 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए ‘माधुरी’ के अप्रैल 1928 के अंक में उसके संपादक ने मेहताजी के नाम की संस्तुति की और देश के प्रायः सभी साहित्यकारों एवं मनीषियों ने एक स्वर से इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया तब मेहताजी ने स्पस्ट रूप से यह लिखकर क्षमा याचना की थी-‘सम्मेलन का सभापति ऐसा होना चाहिए जो साहित्य का पूर्ण विद्वान होने के अतिरिक्त् साल भर तक सम्मेलन के सिद्धान्तों का प्रचार करने में सिद्धहस्त हो।.... आपने मेरे जैसे अकिंचन लेखक का नाम भी इस पद के योग्य विद्वानों में संयुक्त कर दिया है, यह आपका अनुग्रह है। ...मैं क्षमा मांगकर निवेदन करता हूं कि मुझे आजीवन इस कोने में ही पड़ा रहने दीजिए।’’ और वास्तव में आप एकान्त में रहकर ही हिंदी की सेवा करते रहे। आप हिंदी को राष्ट्र-भाषा के पावन पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए सत्त प्रयत्नशील रहा करते थे। इस संबंध में आपकी यह निश्चित धारणा थी-‘‘ अब वह समय अधिक दूर नहीं, जब देश में एक छोर से दूसरे छोर तक हिंदी का सार्वजनिक डंका बजेगा, भारत के भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति करते हुए एक तन्त्र से नत-मस्तक हो, हाथ जोड़े हुए हिंदी की आरती करेंगे और इसकी छोटी बहन, या यदि कोई छोटी कहने से बुरा मानते हो तो बड़ी बहन उर्दू पास खड़ी हुई इसकी बलैयां लेगी और राजभाषा अंग्रेजी अपने ठाठ, अपने गौरव, अपनी प्रतिभा और अपने आतंक को अपने हृदय-कोष में धारण किये हुए भी इसे फूलों की माला पहनाएगी।’’

आपका निधन 29 जून, सन् 1931 को हुआ था।

पीएम अब कारगिल-लद्दाख के नेताओं से करेंगे बात

एक जुलाई को बुलाई बैठक




केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को लेकर सर्वदलीय बैठक बुलाने के बाद अब कारगिल और लद्दाख की पार्टियों के नेताओं से मुलाकात करने की पहल की है। इसके तहत 1 जुलाई को कारगिल और लद्दाख के नेताओं और समाजसेवियों को बैठक के लिए आमंत्रित किया गया है। कश्मीर की मौजूदा स्थिति और भविष्य को लेकर केंद्र सरकार यह पहल कर रही है। 24 जून को हुई सर्वदलीय बैठक के संबंध में पीएम मोदी ने जम्मू-कश्मीर के नेताओं से कहा था कि दिल की दूरी और दिल्ली की दूरी को खत्म करने के लिए यह बैठक हुई। बैठक के बाद पीएम मोदी ने ट्वीट कर कहा कि हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत एक मेज पर बैठने और विचारों का आदान-प्रदान करने की क्षमता है।

24 जून की बैठक के बाद पीएम मोदी ने कहा था कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर के नेताओं से अपील की है कि लोगों को, खासकर युवाओं को जम्मू-कश्मीर को राजनीतिक नेतृत्व देना है और यह सुनिश्चित करना है कि उनकी अपेक्षाएं पूरी हों। सर्वदलीय बैठक में आठ दलों के 14 नेता शामिल हुए थे। इन नेताओं में नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता फारूक अब्दुल्ला, उनके पुत्र व पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रमुख महबूबा मुफ्ती और पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद प्रमुख रूप से मौजूद थे। 

इस सर्वदलीय बैठक के बाद कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि सरकार के सामने उन्होंने कुछ मांगें जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा मिले, तुरंत चुनाव कराने और कश्मीरी पंडितों पर ध्यान देने, अनुच्छेद 370 के प्रावधान खत्म होने के बाद से हिरासत में लिए गए नेताओं को छोड़ने  आदि की रखी। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में युवाओं को रोजगार और जमीन की गारंटी देने की भी सरकार से मांग की है।

अब डरा रहा डेल्टा प्लस



कोरोना महामारी की दूसरी लहर कमजोर पड़ने के बाद देश ने अभी राहत की सांस ली भी नही है कि अब डेल्टा प्लस दस्तक दे चुका है। केंद्र सरकार लगातार हालात की समीक्षा कर रही है। अब तक 12 राज्यों में डेल्टा प्लस के 52 केस मिले हैं। मप्र में दो की मौत हो चुकी है। मौत उन्हीं लोगों की हुई है, जिन्हें वैक्सीन नहीं लगी थी। वैक्सीन इस वेरिएंट से भी बचाव में मदद्गार होगी। 

हिंदू साम्राज्य दिवस पर व्याख्यान​

 भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत और नोएडा इकाई द्बारा "हिंदू साम्राज्य दिवस" पर "शिवाजी महाराज की राज्य और पर्यावरण संरक्षण व्यवस्था" पर व्याख्यान​ 




हिंदू साम्राज्य दिवस पर भारतीय प्रज्ञान परिषद मेरठ प्रांत और नोएडा इकाई द्वारा अलग-अलग संपन्न हुआ। कार्यक्रम का संचालन भारतीय प्रज्ञान परिषद के जिला मीडिया प्रबंधन डॉ अमित अवस्थी और धन्यवाद ज्ञापन डॉ दिनेश शर्मा ने किया। कार्यक्रम क्षेत्र संयोजक माननीय भगवती प्रसाद राघव जी के सानिध्य में संपन्न हुआ! कार्यक्रम में मुख्य वक्ता प्रांत शोध संयोजक डॉ शीला टावरीजी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जिला प्रचारक श्रीविशालजी, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा रहे। नोएडा इकाई द्वारा कार्यक्रम गूगल मीट एप पर संपन्न हुआ। मेरठ प्रांत फेसबुक कार्यक्रम प्रबंधन प्रांत संयोजक इंजी. अवनीश त्यागी द्वारा रहा। मेरठ प्रांत कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर बीरपाल सिंह की उपस्थिति द्वारा हुई!

कार्यक्रम की मुख्य वक्ता के रूप में डॉ शीला टावरीजी रही जिन्होंने भारत के प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालते हुए महाराजा छत्रपति शिवाजी के बारे में बताया ।उन्होंने महाराज शिवाजी के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं को श्रोताओ के सामने रखा जिससे सभी प्रबुद्ध चिंतको एवम श्रोताओ को बहुत ही प्रेरणा  मिली । आपने बताया कि जब अफजल खान छत्रपति शिवाजी महाराज से मिलने के लिए उनके यहां आना चाहता था तो किस प्रकार से शिवाजी महाराज ने अफजल खान के मंसूबों पर पानी फेर दिया था ,अफजल खान बहुत ही ज्यादा  कपटी और धोखेबाज  बादशाह था वह चाहता था कि मैं छत्रपति शिवाजी को सन्धि के बहाने उसके यहां जाकर धोखे से मौत के घाट उतार दूंगा इसीलिए उसने शिवाजी के यहां जाने की योजना बनायी।  वह छत्रपति शिवाजी महाराज से डेढ़ गुना लंबा और 4 गुना वजनदार था उसे इस बात का अभिमान था कि वह शिवाजी को अपनी मुट्ठी में बोचकर मार डालेगा परंतु उस मूर्ख को छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ और बुद्धिमत्ता का ज्ञान नहीं था। जब उसके आग्रह पर छत्रपति शिवाजी ने उस का प्रस्ताव स्वीकार किया और उसे अपने यहां मिलने के लिए बुलाया तब   शिवाजी महाराज जानते थे कि यवनो को वैभवशाली महल और शान शौकत अधिक प्रिय हैं इसीलिए उन्होंने उसके लिए बहुत ही सुंदर और मनोरम स्थान पर मिलने का प्रस्ताव भेजा उधर अफजल खान भी अपनी पूरी तैयारी के साथ था उसने लगभग 32000 यवनों को अपने साथ सेना के रूप में रखा हुआ था वह चाहता था कि मौका पड़ने पर वह शिवाजी और उसके साम्राज्य को खत्म कर देगा। परन्तु इधर छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने सैनिकों को भी पर्दो के पीछे छुपा कर रखा रखा था उनकी दूरदृष्टि यह कहती थी की अफजल खान जैसा  बेईमान प्यार मोहब्बत का नाटक करके धोखा जरूर देगा इसीलिए शिवाजी ने अपने यहां का पूरा पुख्ता प्रबंध किया हुआ था। छत्रपति का विचार था की यदि अफजल खान सच में ही संधि करना चाहता है तो ठीक बात है उसको जाने देंगे परन्तु यदि उसने जरा सी भी होशियारी दिखायी तो उसे अच्छा जवाब दिया जाएगा। शिवाजी के सभी सैनिक पूरी तरह से तैयार थे । शिवाजी ने सुरक्षा का ध्यान रखते हुए अपनी पगड़ी के  नीचे एक लोहे का कवच पहना हुआ था और अपना धातु का अंगवस्त्र पहन कर उसके ऊपर कपड़े धारण किए थे और उंगली में अंगूठी के रूप में जहर लगे हुए औजार पहने हुए थे ।इस तरह की दूरदर्शिता छत्रपति शिवाजी  में विद्यमान थी । जब अफजल खान शिवाजी के दरबार में आया तो शिवाजी लगभग ढाई घंटे तक उसके सामने नहीं आए अफजल खान को लग रहा था की शिवाजी  उससे भयभीत है जिसके कारण वह सामने नहीं आ रहा है परन्तु शिवाजी की आंतरिक भावों उसे कहां मालूम थे शिवाजी ढाई घंटे बाद धीरे-धीरे पैर रखता हुआ अफजल खान के सामने आया ।अफजल खान शिवाजी को देखकर बोला ,"आओ शिवा आओ ,  मेरे गले लग जाओ"  जब शिवाजी उसके  करीब आया तो अफजल खान ने शिवाजी पर चाकू से वार करते हुए उसे मारने का प्रयास किया परंतु शरीर में दुबला पतला होने के बावजूद भी शिवाजी ने अपने साहस और चतुराई से वह खंजर अफजल खान के सीने में ही घोप दिया और  सैनिकों को आदेश दे दिया कि आक्रमण कर दे । उन 7000 सैनिकों ने 32000 यवनो को मौत के घाट उतार दिया । इस प्रकार के चातुर्य और ज्ञान के साथ छत्रपति शिवाजी ने अफजल खान जैसे हैं विशालकाय दानव पर विजय प्राप्त की ।

इसी के साथ साथ डॉ शीला टावरीजी ने एक ग्वालन के किस्से पर भी प्रकाश डाला जिसमें उस ग्वालिन के चातुर्य का परिचय मिलता है उसके बारे में बताते हुए कहा कि  वह महिला बड़ी निडर और साहसी थी उसने लगभग समुद्र तल से 4400 फीट ऊंची गढ़ से भागकर अपनी और अपने बच्चे की सुरक्षा किस प्रकार से की है यह विचारणीय और प्रशंसनीय है उसने उस ऊंचाई से आने वाली  कंदरा  मैं से रास्ता खोज कर नीचे आने का प्रयास किया और वह पूर्णता सफल भी हुई जब नीचे उसे छत्रपति शिवाजी मिले तो उन्होंने उसकी भूरी भूरी प्रशंसा की और उस स्थान का नाम हिरकणी  बुर्ज रखा आज तक बहुत ही प्रसिद्ध है, हिरकनी उस  ग्वालिन का ही नाम था। यदि हम शिवाजी के राज्य प्रबंधन का जिक्र करे तो वह भी विशिष्ट है क्योंकि छत्रपति शिवाजी ही ऐसे राजा हुए हैं जिन्होंने अष्टप्रधान मंत्री मंडल की स्थापना की थी राज अभिषेक के बाद  उन्होंने आठमंत्रियों में विभाग वितरित कर दिए थे । उनमें से प्रत्येक मंत्री अपने स्थान की खबरें सीधे राजा तक पहुंचाते थे फिर शिवाजी इस पर संज्ञान लेते थे । छत्रपति शिवाजी का मानना था कि किसी देश या राज्य में एक ही भाषा का प्रयोग प्रशासन कार्यो में होना चाहिए प्रशासनिक कार्य एक ही भाषा में हो तो जनता को दुविधा नही होती यदि किसी राज्य में विभिन्न प्रकार की भाषाएं प्रयोग की जाएंगी तो वहां की जनता को भाषाओं को समझने में बड़ी दिक्कत होगी उन्हें यह भी मालूम  नहीं होगा कि उनके साथ क्या हो रहा है इसीलिए उन्होंने राज्य भाषा कोष की स्थापना की जो कि बहुत ही प्रशंसनीय है। 

डॉ०शीला टावरीजी ने ऐसा बताते हुए कहा कि जब औरंगजेब राजा था शिवाजी ने  औरंगजेब को कहा था कि," क्या मुग़ल साम्राज्य इतना दरिद्र और गरीब हो गया है जो उसने जनता पर जजिया कर लगा डाला"  ऐसे निडर महान शासक शिवाजी थे ।  जब यह सब हो रहा था उस समय आपने स्वराज्य की स्थापना की जिसके चलते आपने राज्य में कृषि की तरफ विशेष ध्यान दिया । यदि कृषि कार्यों में लोग लिप्त रहेंगे और फसलें होंगी तभी राज्य से भुखमरी और अकाल को खत्म किया जा सकता है एक पोषित राज्य की स्थापना की जा सकती है ऐसी कहावत है कि ,"भूखे पेट ना होय भजन गोपाला " सिद्ध होती है यदि किसी राज्य में भुखमरी होगी वहां की जनता कुपोषित हो जाएगी बीमारियों से पीड़ित होकर सभी लोग मर जाएंगे राज्य में ऐसा नहीं होना चाहिए इसीलिए शिवाजी ने कृषि की ओर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने कृषि के लिए जल की व्यवस्था करने का पूरा प्रयास किया जिसमे वे सफल भी हुए,  वर्षा के जल को रोककर बांध बनाए गए  तालाब खुदाई की गई जिससे कृषि के लिए  पानी और पेयजल की व्यवस्था की गई । पुणे में आज भी पार्वती नाम की पहाड़ी के पास एक बांध है ,एक बांध  कोंडवा स्थान पर बना हुआ है जो शिवाजी के ही समय के है। शिवाजी को कृषि का ज्ञान इतना अधिक था कि  जिसकी कोई सानी नही हो सकती। शिवाजी हमेशा फसल चक्र को अपनाने के लिए जोर देते थे जिससे फसलों को नुकसान देने वाले कीड़े मकोड़े नष्ट हो जाये और दूसरी फसलों के साथ नुकशान न  पहुंचाए।विभिन्न  प्रकार की फसलों की उपज पैदा हो । यदि राज्य में अकाल भुखमरी ,बाढ़ ,अनावृष्टि जैसी आपदाय भी आ जाती थी तो वहां की जनता को  धन ना देकर उनको कृषि यंत्र दिए जाते थे जिनमें हल और बैल की जोड़ी प्रमुखता से दी जाती थी । छत्रपति शिवाजी को अपने राज्य के लोगों के साथ हल चलाते हुए भी दिखाया गया है जिससे यह पूर्णतया स्पष्ट होता है कि छत्रपति शिवाजी कृषि के प्रति आस्थावान थे कृषि और धरती मां को राज्य लक्ष्मी कहते थे।  कृषि के पश्चात उन्होंने पेड़ों पर विशेष ध्यान दिया क्योंकि पेड़ वातावरण के लिए अति आवश्यक होते हैं जिससे पर्यावरण भी शुद्ध रहता है और इनसे नाव बनाने में भी बहुत ही लाभ मिलता है शिवाजी आम और कटहल जैसे फलदार वृक्षों को काटने से सदैव मना करते थे और जो फलदार वृक्ष सुख जाते थे केवल उनकी ही  कटाई की जाती थी उनका मानना था कि पेड़ों में  भी जीव होता है जिससे उन्हें कटने पर दुख होता था। छत्रपति शिवाजी को वेदों का भी ज्ञान था इनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता था उन्होंने वेद अच्छे से पढ़ रखे हो । छत्रपति शिवाजी नौसेना के जनक भी कहे जाते हैं उन्होंने ही सर्वप्रथम नौसेना की स्थापना की। वह धार्मिक जरूरत है परंतु अंधविश्वासी नहीं थे उन्होंने सदैव अंधविश्वास का खंडन किया है प्राचीन काल में कहावत है कि कभी समुद्र को लांघना नहीं चाहिए परंतु आपने अपनी नौसेना को समुद्र के पार भेजा था । उन्होंने आम और सागौन जैसी लकड़ी को काटने से मना किया उनसे अच्छी नाव का निर्माण किया जा सकता है जो नौसेना के लिए अति आवश्यक है इसके साथ-साथ अपने राज्य के पर्यावरण को बचाने में भरसक प्रयास करते थे । शिवाजी कहते थे कि दूसरे राज्य से कीमती लकडी खरीदो परन्तु अपने राज्य से लकड़ी ना काटो यदि कहीं से कोई एक लकड़ी काटनी होती तो उसके माली से आज्ञा मांगनी होती थी। इसके पश्चात  डॉ शीला टावरीजी बताती है कि उस समय हिंदुओं की बहू बेटियों को मुगल उठाकर ले जाते थे उनके साथ अनाचार किया जाता था परंतु शिवाजी ने इस तरह के कार्य पर रोक लगाने का पूरा पूरा प्रयास किया मुगलों के साथ युद्ध भी किए। शिवाजी महिलाओं की पूरी पूरी इज्जत करते थे प्रत्येक महिला को अपनी माता समान मानते थे इसका प्रमाण हमे इस किस्से में मिल जाता है एक बार की बात है जब शिवाजी का सेनापति कल्याण राज्य को जीतकर महाराज के पास आया और खुश होकर खबर सुनायी की आज हमने कल्याण राज्य जीत लिया है और मैं वहां से आपके लिए एक बेशकीमती तोहफा लेकर आया हूं आशा करता हूं कि वह आपको पसंद आएगा। शिवाजी ने आश्चर्य से देखा और कहा कि बताओ क्या तोहफा हमारे लिए लेकर आए हो तभी सेनापति ने पास में रखी हुई एक पालकी की ओर इशारा किया और जो पालकी के पर्दे उठाए गए तो उसमें एक अद्वितीय सुंदरी बैठी हुई थी जिसको देखकर शिवाजी ने उत्तर दिया ,"वाह यदि हमारी माता इतनी सुंदर होती तो हम भी इतने ही सुंदर होते" यह बात प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेरणादायक है उन्होंने उस महिला को अपनी माता समान समझा और उनको कहा कि माता प्रणाम!  इसके पश्चात शिवाजी ने आदेश दिया की इस महिला को उसके राज्यों में छोड़ दिया जाए।  जब वह महिला उसके घर पहुंचा दी गई तो शिवाजी ने अपने सैनिकों को डांट फटकार लगाई और कहा कि तुमने आज मेरे राज्य और मेरे सेनादल की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया मुझे बहुत ही कष्ट हो रहा है इस तरह के थे हमारे महाराज शिवाजी।  हमें छत्रपति शिवाजी से सीख लेनी चाहिए इतना बड़ा राजा होने के बाद भी वह प्रत्येक स्त्री का सम्मान करता था जनता का सम्मान करता था उन सभी को अपना संरक्षण प्रदान करता था।

कार्यक्रम में प्रांत अध्यक्ष प्रोफेसर बीरपाल सिंह, प्रांत संयोजक अवनीश त्यागी, गौतम बुद्ध जिला संयोजक डॉ भूपेंद्र सिंह, गाजियाबाद जिला संयोजक योगेश शर्मा, गाजियाबाद महानगर संयोजक डॉ पूनम शर्मा, श्रीकांत कुमार, हस्तिनापुर संदेश पत्रिका के संपादक डॉ सूर्य प्रकाश अग्रवाल, कार्यकारी संपादन डॉ वंदना वर्मा, डॉ चित्रा, डॉ जी.आर. गुप्ता, डॉ नितिन कुमार सिंह, डॉ बिंदु शर्मा, डॉ पृथ्वी काला देवभूमि विचार मंच, डॉ विवेक मिश्रा, डॉ मनीषा अग्रवाल, डॉ मोहित त्यागी, डॉ राज आर्यन, डॉ शुभ्रा चतुर्वेदी, सुमन शुक्ला, डॉ श्यामलेंद्रु, डॉ नीरज मौर्य,  डॉ निशा अग्रवाल, भास्कर द्विवेदी, डॉ वेगराज, डॉ संजीव पंवार, डॉ श्वेता बंसल, ललित शर्मा, डॉ शैलेंद्र, आरती मलिक, सुभाष भारद्वाज, डॉ सुशील राजपूत, डॉ ओमवीर, प्रकाश चंद, डॉ आरती मलिक, डॉ शैलेंद्र, डॉ सुधीर यादव, डॉ मनीषा, मयंक पांडेय, डॉ नीलम गुप्ता, मनीष, डॉ ओवी सिंह, डॉ अनुराधा मिश्रा, डॉ अभिषेक, अनुज, विमलेश, मानवी शर्मा, मनमोहन सिंह, सत्यम मिश्रा, महेंद्र परमार, डॉ विवेक शुक्ल, डॉ सुदेश शुक्ला, विकास गर्ग, सुशील कुमार, सुशांत शर्मा, रमेश चंद्र, डॉ अक्षय, डॉ सतीश, देवीसिंह, अरविंद कुमार, अनुज कुमार, अभिषेक आदि अनेक शिक्षाविद, प्रबुद्ध जन सहभागी रहे। 

-अवनीश त्यागी

प्रांत संयोजक

भारतीय प्रज्ञान परिषद प्रज्ञा प्रवाह मेरठ प्रांत

किसानों और मजदूरों के मसीहा थे स्वामी सहजानंद सरस्वती

 


दिव्येन्दु राय

आज 26 जून 2021 को किसानों तथा मजदूरों के मसीहा दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी को गये 71 साल हो गए। 26 जून 1950 में उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर में अपने प्राण त्यागे थे। उनके निधन पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि आज दलितों का संन्यासी चला गया।

बनारस से ट्रेन से मऊ जाते समय रास्ते में एक छोटा सा रेलवे स्टेशन पड़ता है दुल्लहपुर, यह उसी गॉव देवा का स्टेशन है जिस गॉव में महाशिवरात्रि के दिन ऐसे एक संन्यासी का अवतरण हुआ, जो भगवान शिव का भक्त था, शंकराचार्य की परंपरा वाले दशनामी संन्यासियों की जमात में दीक्षित, लेकिन जिसने बाद में किसानों को ही भगवान कहा और रोटी को भगवान से भी बड़ी बताया। 

हम बात कर रहे हैं स्वामी सहजानंद सरस्वती की, जिनको पूरा भारत आजादी की लड़ाई का अग्रणी सेनानी और भारत में संगठित किसान आंदोलन का जनक मानता है। उस स्वामी सहजानंद की यादों से जुड़े कई गांव और स्थान पुराने भोजपुर जिले में हैं, जहां स्वामीजी आते थे, ठहरते थे और किसान आंदोलन के दौरान वहीं से अपना आंदोलन चलाते थे। स्वामी सहजानंद के नाम पर भोजपुर में कई विद्यालय, दो महाविद्यालय, स्मारक और पुस्तकालय, वाचनालय आज भी उनकी स्मृतियों की लौ जलाए हुए हैं और लोगों को प्रेरणा देने का काम कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गांव देवा में महाशिवरात्रि के दिन 1889 में सहजानंद सरस्वती का जन्म हुआ। पिता बेनी राय साधारण किसान थे। मां का छाया बचपन में ही उठ गया। लालन-पालन चाची ने किया। तब कौन जानता था कि बालक नौरंग राय आगे चलकर एक शाश्वत विद्रोही संन्यासी बनेगा। पूर्व जन्म के संस्कारों ने बचपन में सांसारिक मोह-माया से विरक्ति का भाव इतना प्रबल किया कि वे दंडी संन्यासी बन गये। बचपन से ही मेधावी छात्र रहे नौरंग राय के युवा मन में विद्रोह की पहली चिंगारी तभी फूटी जब घर वालों ने जबरन शादी करा दी थी और साल भर के भीतर पत्नी के स्वर्गवास के बाद दोबारा शादी की जुगत में लगे थे। स्वामीजी ने परिवार, रिश्तेदार और समाज की परवाह किये बिना शादी से मना कर दिया और चुपके से भागकर काशी चले गये। वहां दशनाम संन्यासी से दीक्षा लेकर दंडी स्वामी बन गये। लेकिन धर्म-कर्म के पाखंड ने उनका वहां से भी उनका मन उचाट दिया।

देश की तत्कालीन परिस्थितियों को देख गांधीजी के कहने पर 1920 में स्वामी सहजानंद आजादी की लड़ाई में कूदे पड़े। बिहार को अपने आंदोलन का केन्द्र बनाया। इस दौरान गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, फैजाबाद और लखनऊ जेल उनका ठिकाना बना। कुछ समय पटना के बांकीपुर जेल और लगभग दो साल हजारीबाग केन्द्रीय कारा में सश्रम कारावास की सजा झेली। लेकिन कारावास के दौरान गांधीजी के सुविधाभोगी चेलों की करतूतों को निकट से देखने और गांधीजी का जमींदारों के प्रति नरम रुख को देख बिदक गये। बिहार में 1934 के भूकंप से तबाह किसानों को मालगुजारी में राहत दिलाने की बात को लेकर गांधीजी से उनकी अनबन हो गयी। एक झटके में ही कांग्रेस से से अलग होकर किसानों के लिए जीने और मरने का संकल्प ले लिया।

किसान आंदोलन को बनाया जीवन का लक्ष्य

स्वामी सहजानंद ऐसे युगपुरुष संन्यासी रहे, जिसने अपना जीवन देश की आजादी और किसानों की भलाई के लिए होम कर दिया। परमार्थ चिंतन के परंपरागत मूल्यों से एकाकार होते हुए उन्होंने उस समाज में भगवान का दर्शन किया, जिसे हम किसान कहते हैं। किसानों की भलाई औऱ उनको शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने अपने आप को समर्पित कर देते हैं। बिहार में आजादी की लड़ाई के दौरान भ्रमण करते हुए स्वामीजी ने देखा कि बड़ी संख्या में लघु-सीमांत किसान अपनी ही जाति के जमींदारों के शोषण और दोहन के शिकार हैं। उनकी स्थिति गुलामों से भी बदतर है।

विद्रोही सहजानंद ने अपनी ही जाति के जमींदारों यानी भूमिहारों के खिलाफ ‘लट्ठ’ उठा लिया और आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी। उन्होंने देशभर में घूम घूमकर किसानों की रैलियां की। स्वामीजी के नेतृत्व में सन् 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई लड़ाईयां किसानों ने लड़ीं। इस दौरान जमींदारों और सरकार के साथ उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें भी हुई। उनमें बड़हिया, रेवड़ा और मझियावां के बकाश्त सत्याग्रह ऐतिहासिक हैं। इस कारण बिहार के किसान सभा की पूरे देश में प्रसिद्धि हुई। दस्तावेज बताते हैं कि स्वामीजी की किसान सभाओं में जुटने वाली भीड़ तब कांग्रेस की रैलियों से ज्यादा होती थी। किसान सभा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर दो लाख पचास हजार हो गयी।

इतिहास साक्षी है कि सहजानंद सरस्वती ने ही भारत में पहली बार किसानों का संगठित आंदोलन शुरू किया और उसे अखिल भारतीय स्वरुप दिया। किसानों को भगवान मानने वाले जननायक दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती आजीवन त्याग और संघर्ष की प्रतिमूर्ति बने रहे। उन्होंने जमींदारी प्रथा के खिलाफ जिस आंदोलन की शुरुआत की कालांतर में वहीं किसान आंदोलन बिहार से जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का आधार बना। जब बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कानून बनाकर जमींदारी प्रथा खत्म कर दी, जबकि श्रीकृष्ण सिंह खुद भूमिहार जाति से ताल्लुक़ रखते थे एवं जमींदार थे।

स्वामी सहजानंद सरस्वती का एक नारा, जो किसान आंदोलन के दौरान चर्चित हुआ-

‘जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा।

यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन भी वहीं चलायेगा।'

किसान आंदोलन में मन- प्राण से जुटे स्वामी सहजानंद की नेताजी सुभाषचंद्र बोस से निकटता रही। दोनों ने साथ मिलकर समझौता विरोधी कई रैलियां की। स्वामीजी फारवॉर्ड ब्लॉक से भी निकट रहे। एक बार जब स्वामीजी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया। सीपीआई जैसी वामपंथी पार्टियां भी स्वामीजी को वैचारिक दृष्टि से अपने करीब मानती रहीं। यह स्वामीजी का प्रभामंडल ही था कि तब के समाजवादी और कांग्रेस के पुराने शीर्ष नेता मसलन- एमजी रंगा, ईएमएस नंबूदरीपाद, पंडित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुनाकार्यी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी सुंदरैया, भीष्म सहनी, बाबा नागार्जुन, बंकिमचंद्र मुखर्जी जैसे तब के नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे।

स्वामी सहजानंद उस दौर में असहमतियों की आवाज थे। जहां कहीं भी गलत देखा तुरंत आंदोलन पर उतारु हो गये। परिणाम की चिंता नहीं की। जिस जाति में जन्में और जिस जाति के स्वाभिमान जगाने के लिए वर्षों तक काम किया, उसी जाति के जमींदारों के खिलाफ लठ उठा ली। मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी में उन्होंने कई प्रसंगों की चर्चा की है। उनको स्वजातीय लोगों की स्वार्थपरायणता से काफी पीड़ा मिली। एक बार तो बिहार के बेहद प्रभावी नेता सर गणेशदत्त के चालाकी भरे वर्ताव से स्वामीजी इतने दुखी हुए कि उनसे सारा संबंध तोड़ लिया और जब मुंगेर में जातीय सम्मेलन कर सर गणेशदत्त को सभापति चुनने की कोशिश हुई तो स्वामीजी ने भूमिहार-ब्राह्मण महासभा को सदा के लिए भंग कर दिया। यह सन् 1929 की बात है।

स्वामी जी का जीवन संघर्ष और सृजन को समर्पित रहा। जब जेल में रहते तो नियमित तौर पर गीता के पठन-पाठन का काम करते। साथी कैदियों की प्रार्थना पर उन्होंने जेल में गीता भी पढ़ाई। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के अलावे किसान कैसे लड़ते हैं, क्रांति और संयुक्त मोर्चा, किसान-सभा के संस्मरण, खेत-मजदूर, झारखंड के किसान और गीता ह्रदय नामक छह पुस्तकें लिखी।

स्वामीजी ने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिसमें सामाजिक व्यवस्था पर भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय-मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति आदि। उनकी आजादी की लड़ाई और किसान संघर्षों की दास्तान- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी, अब क्या हो, गया जिले में सवा मास आदि पुस्तकों में दर्ज है। उन्होंने श्रीमदभागवद का भाष्य ‘गीता ह्रदय’ नाम से लिखा।

भोजपुर में स्वामी सहजानंद जीवंत हैं

तत्कालिन भोजपुर जिले के सिमरी (अब बक्सर) और गाजीपुर के विश्वम्भरपुर गांव में रहकर उन्होंने आजादी की लौ को गांवों-किसानों तक पहुंचाया। सिमरी गांव में स्वामी जी द्वारा स्थापित पुस्तकालय आज भी है। उनके नाम पर यहां कॉलेज भी चलता है, जिसे उनके सहयोगी ने पंडित सूरज नारायण शर्मा ने स्थापित किया था। आरा का सहजानंद ब्रह्मर्षि कॉलेज अंगीभूत कॉलेज है, जबकि पकड़ी मोहल्ले में उनके नाम पर सरकारी हाई स्कूल है। आरा के ही पीरबाबा मोड़ के समीप सरकार द्वारा दी गयी जमीन पर ब्रह्मर्षि सहजानंद सरस्वती का स्मारक है जहां पुस्तकालय और वाचनालय चलता है। उनके गृह जनपद गाजीपुर से लगायत आज़मगढ़, मऊ एवं देश के कई प्रान्तों में उसके विचारों को आत्मसात करने वालों ने उनके नाम से शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की है। पटना से सटे बिहटा के पास सीताराम आश्रम स्थापित कर असहयोग आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक में स्वामी जी ने भाग लिया था।

आज स्वामी सहजानन्द सरस्वती के 71 वें महाप्रयाण दिवस पर देश में किसानों की जो स्थिति है, यह किसी से छिपी हुई नहीं है। किसानी का धंधा घाटे का सौदा हो गया है। किसान आंदोलन पर हैं, लेकिन उनकी आवाज सत्ता में बैठे लोगों को झकझोर नहीं पा रही है। कल्पना करिये कि आज स्वामी जी होते तो क्या चुप बैठते? नहीं, वे सत्ता में बैठे हुक्मरानों की नींद हराम कर दिये होते। उनके जीते-जी किसानों की ये स्थिति नहीं होती। किसानों को शोषण से मुक्त कराने और जमींदारी प्रथा की खात्मा के लिए संघर्ष करते हुए 26 जून 1950 को स्वामी जी बिहार के मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये। सच पूछिए तो स्वामीजी के महाप्रयाण करने के साथ ही न केवल संगठित किसान आंदोलन का सूरज अस्त हुआ बल्कि उनका सबसे बड़ा रहनुमा भी चला गया, जो किसानों को केवल हक नहीं, बल्कि उनके हाथों में शासन की बागडोर सौंपने का हिमायती था। 


- स्वतन्त्र टिप्पणीकार, राजनीतिक विश्लेषक

इन्द्रदेव भारती और उनके गीतों में लोक भावना

 


गीतकार इन्द्रदेव भारती ने, उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर की तहसील नजीबाबाद के ग्राम लालपुर के संभ्रांत किसान पंडित अनूपदत्त शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र मास्टर चिरंजीलाल शर्मा के कनिष्ठ पुत्र रत्न के रूप में 4 नवंबर 1945 को जन्म लिया। आपकी मातु श्री श्रीमती रक्षा देवी जी सीधी-सादी धर्म परायण महिला थीं। तख़्ती, बुतका, कलम और हिंदंी का ‘‘क़ायदा’’ पढ़ते हुए आपने एमए ;हिंदीद्ध, साहित्य रत्न ;हिंदीद्ध, बीएड, आईजीडी बंबई की कला परीक्षा जैसी शैक्षिक योग्यताएं प्राप्त कीं। 1961 में हाईस्कूल में पढ़ते-पढ़ते तुकबंदियों में बात कहने की आपकी अभिरुचि, आपको पैरोडी लिखने तक ले गई। आपके पिताश्री के प्राथमिक शिष्य रहे जिन्हें हिंदी ग़ज़ल सम्राट ‘‘दुष्यंत कुमार’’ के नाम से दुनिया जानती है, एक दिन अपने प्राथमिक गुरु जी से मिलने जब नजीबाबाद आए तो उन्होंने पैरोडी लिख रहे इन्द्रदेव शर्मा के अंदर पनप रहे ‘‘कवि’’ को पहचान इन्हें पैरोडी लिखना छोड़, कविता लिखने के लिए प्रेरित किया और समय-समय पर आते-जाते इनका समुचित मार्गदर्शन किया। 1965 में लायन्स क्लब नजीबाबाद के मंच पर आपने जनपदीय कवियों, हुक्का बिजनौरी, मुच्छड़ बिजनौरी, दीप मुरादाबादी, अशोक मधुप, विजय वीर त्यागी, राधेकृष्ण बुंध, कमलेश सारथी, चन्द्रशेखर शर्मा, अनिरुद्ध शेरकोटी, भानू प्रकाश धामपुरी जैसे कवियों के सान्निध्य में रहते अपनी पहली कविता मंच से पढ़ी। कलम चलने लगी, काग़ज़ रंगने लगे, कविता उगने लगी, कवि गोष्ठियाँ सजने लगीं और कवि सम्मेलन मिलने लगे। हास्य कवि ‘‘भौंपू मुजफ्फरनगरी’’ ने आपको उपनाम दिया ‘‘देव भारती’’। इसी नाम से आपने 1992 तक अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में खूब प्रशस्तियाँ बटोरीं। तत्कालीन सभी शीर्षस्थ मंचीय कवि- कवियत्रियों के साथ आपने खूब मंच सांझा किए। 1968 में आपकी नियुक्ति स्थानीय मूर्ति देवी सरस्वती इंटर काॅलेज में ‘‘कला-अध्यापक’’ के रूप में हो गई। शिक्षण कार्य और सृजन साधना के चलते आप 1973 में कविराज दीप मुरादाबादी की ज्येष्ठ पुत्रीरत्न ज्योत्स्ना के साथ परिणय सूत्र में बंधे। कवि श्वसुर और कवि पत्नी के सामिप्य से आपको जो ऊर्जा मिली, उसके चलते आपकी असंख्य रचनाएं एक संदूक, और अनेक थैलों के साथ संजोकर रक्खे गए प्रकाशित रचनाओं के अख़बारों में सुरक्षित है जो कि पांडुलिपियों का आकार लेने की तैयारियों में है। कवि सम्मेलन छोड़ चुकने का कारण ‘‘मंचीय भ्रष्टाचार, गंदगी, शबाब और शराब के साथ फूहड़ता का प्रदर्शन’’ बताते हुए आप आज 75 वर्ष की आयु में भी साहित्य सृजन में व्यस्त हैं। 2008 में सेवानिवृत्त हो, मूल नाम ‘‘इन्द्र देव शर्मा’’ और उपनाम ‘‘देव भारती’’ को जोड़ते हुए आप आज ‘‘इन्द्रदेव भारती’’ के नाम से जाने जाते हैं। 

अस्थाई विचारों का स्थाई व्यक्तित्व

 गीतकार अस्थाई विचारों के स्थाई व्यक्ति हैं। यह बात अजीब जरूर लग रही है मगर सौ प्रतिशत सही है। उनका गीतकार स्थाई है मगर उनके विचार निरंतर गतिमान हैं। ऐसा सभी लोगों के साथ होता है मगर यहां कुछ दूसरी चीज़ें देखने को मिलती हैं। वह सुबह जो सोचते हैं दोपहर होते होते उसमें दरार आने लगती है और रात होते होते लगभग संपूर्ण परिवर्तन हो जाता है। ऐसा खाने से लेकर काम करने तक में होता है। सेवानिवृत्ति के बाद इस आदत में इजाफा ही हुआ है। उदाहरण के लिए उनका यदि आज कोई गीत लिखने का मूड है और उसका मुखड़ा भी सुबह ही मस्तिष्क में आ गया, वह काग़ज़ पर भी उतर गया और दोपहर होते-होते आधा गीत तैयार भी हो गया तब भी वह गीत रात होते-होते पूरा नहीं होगा। जब आप अगले दिन उनसे कल वाले गीत पर चर्चा करेंगे तो आपको कहा जाएगा-‘अरे यार बस शाम को एक दूसरी लाईन दिमाग़ में आ गई और बस पूरी रात उसी में लगा रहा, गीत पूरा होने के बाद ही सोया।’ ऐसा अकसर होता है। जिससे सिद्ध होता है कि गीतकार को नितांत एकांत की दरकार है जो उन्हें रात ही में मिल पाता है। सुबह से लेकर रात तक उनके मन-मस्तिष्क में जो विचार हिलोरे मारते हैं? वह किसी ज्वार-भाटे के समान होते हैं ज्वालामुखी तो रात को ही फूटता है जिसका परिणाम सुबह पता चल पाता है। यही कारण है कि देर रात तक जागना और फिर देर तक सोना उनकी आदत में शामिल हो गया है। जिसका परिणाम उन्हें अनिद्रा और पेट में बनने वाली गैस के रूप में भुगतना पड़ता है। 

न स्थाई शत्रुता न स्थाई मित्रता

 गीतकार शत्रुता और मित्रता दोनों के साथ ही जीवन जी रहे हैं। उनका न कोई स्थाई मित्र है और न ही स्थाई शत्रु। जो सुबह मित्र है वही रात तक उनका शत्रु भी बन सकता है और फिर वही अगले दिन मित्र भी। उनका अपना एक सीमित दायरा है। उनकी आभासी मित्रों की सूची पांच हज़ार से घटकर पांच सौ रह गई है। वास्तविक मित्र तो उंगली पर ही गिने जा सकते हैं, जिनमें साहित्यकार और असाहित्यकार दोनों ही हैं। साहित्यकार मित्रों की हर पंक्ति पर ध्यान रखने की उनकी आदत प्रतिदिन नए शत्रु और मित्र बनाने का काम करती है। उनकी बहस गीत-अगीत से होती हुई कब व्यक्तिगत हो जाती है उन्हें पता ही नहीं चल पाता है और जब पता चलता है तब तक मित्र शत्रु हो चुका होता है और शत्रु मित्र बन चुका होता है। 

नहीं जाता चटोरापन

 चटोरेपन की तो हद ही समझो। रायपुर अड्डे पर खड़े होने वाले ठेले की मूंग की दाल और दीवान की पकौड़ी में उनकी जैसे जान बसती है। मजाक-मजाक में भी ये दोनों चीज़ें सामने आ जाती हैं। दही-भल्ले, पानी के बतासे, इडली-डोसा और न जाने क्या-क्या सभी का स्वाद यदि एक साथ उन्हें लेना पड़ जाए तो इंकार नहीं है। पेट जितना कम खाने के लिए प्रार्थना करता है जीभ उतना ही अधिक स्वाद लेने के लिए उत्साहित करती है। कम ही खाते हैं मगर जीभ की भी तो माननी पड़ती है। स्वाद के लिए जीभ की मानी गई बात पेट को सजा के रूप में भुगतनी पड़ती है। 

सोशल मीडिया के खिलाड़ी

 सोशल मीडिया, खासकर फेसबुक के तो जैसे महारथी हैं। पूरी रात भी जाग सकते हैं और टिप्पणी करते करते किससे क्या शत्रुता मोल ले लें नहीं कहा जा सकता है। कभी कभी तो लगता है कि आभासी दुनिया ही उनकी वास्तविक दुनिया हो गई है। घर में पत्नी है बेटा और बहू है। इनके अलावा दो प्यारे से पोते-पोती भी हैं मगर जब कभी आभासी दुनिया का क्रोध इन सब पर उतरता है तो अच्छा नहीं लगता। स्वयं भी मानते हैं-‘फेसबुक ठीक नहीं है, बंद करूंगा।’ लेकिन ऐसा होता नहीं है। कभी हिम्मत की भी तो कुछ ही समय बाद फिर हुड़क उठ जाती है और पुनः वही सब।

बिन मांगी राय देने का जुनून 

 बिन मांगी राय देने में गीतकार का कोई सानी नहीं है। आप यदि मकान बनवा चुके हैं तो एक बार बुलवाकर दिखा दीजिए। राय देते समय न तो वह ध्यान रखेंगे कि आपकी माली हालत क्या है और नहीं उन्हें इस बात का खयाल होगा कि किस निर्माण में कितना समय लगा है। बस वह चालू हो जाएंगे और देखते ही देखते आपका जीना, बाथरूम, किचन, बैडरूम सब बदल जाएंगे। ऊपर से तुर्रा यह कि भाई हमने तो बता दिया आगे तुम्हारी मर्जी मानो या न मानो। इतना ही नहीं हद तो तब हो जाती है जब किसी के मकान के आगे खड़ा बिजली का खंभा उन्हें अखरता है और बिना राय मांगे मकान मालिक से कह देते हैं -‘यह खंभा उखड़वाकर दूसरी तरफ लगवा लो।’  मकान मालिक हैरत से कहता है-‘ऐसा कैसे संभव है?’ तब जवाब होता है-इसमें कौन सी बड़ी बात है, बिजली विभाग वालों से कहो कि खंभा दूसरी तरफ लगवा दो, बस हो जाएगा।’

समर्पण भी, क्रूरता भी

 वह क्रूर हैं मगर समर्पित भी। या यूं कह लीजिए कि उनके समर्पण में भी क्रूरता है। दिल के मरीज हैं, उम्र भी है। आप चाहते हैं कि बैठकर आराम करें मगर नहीं आपके साथ समर्पित भावना से लगे रहेंगे और अपने ही शरीर के साथ क्रूरता करते रहेंगे। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि उनका मूड नहीं है या आप को उनकी बेहद आवश्यकता है वह स्वयं भी जानते हैं किंतु अब उनके आराम का समय है तब आपको स्पष्ट इंकार कर देंगे और आराम करने चले जाएंगे। दूसरे लोगों को वह क्रूर लगेंगे मगर यही उनकी वास्तविक शैली है, यही उनका वास्तविक जीवन है। जिससे खुश हैं रात-रात भर उसके लिए जागेंगे और यदि उसी से नाराजगी है तो एक पल में ही उससे उसके आवश्यक काम के लिए भी ना कह देंगे। उनके इस स्वभाव के जानकार लोग उनकी तारीफ़ या चाटुकारिता कर लाभ उठा लेते हैं और बाद में अनजाना सा व्यवहार करने लगते हैं।

राजनीति के शिकार या शिकारी की राजनीति

 साहित्य में राजनीति का उनका खास शौक है, मगर वह स्वयं को राजनीतिज्ञ साहित्यकार नहीं मानते हैं। अपनी जेब से पैसे  देकर नई संस्था बनवाने और फिर उस संस्था से अलग हो जाने के बीच में जो घटनाक्रम होता है उसमें कहीं वह राजनीति के शिकार दिखाई देते हैं और कहीं उनकी राजनीति में शिकार दिखाई देता है। ‘न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ की भावना प्रदर्शित करते हुए वह भूल जाते हैं कि उनके दोस्त क्यों साथ खड़े थे और शत्रु क्यों शिकार कर रहे थे। ऐसे में हमदर्दों की दुर्दशा और शत्रुओं के आनंद देखने लायक होते हैं। ‘तेरी मेरी उसकी’ बात होती है और इन बातों में जब मेरी बात ही रह जाती है तब वह  स्वयं को राजनीति का शिकार मान लेते हैं। और बाद में एहसास होने पर रूठे हुए की तारीफ कर मना भी लेते हैं।

सच्चा हमदर्द

 वह सच्चे हमदर्द हैं। यदि उनके किसी परिचित को ऐसी किसी भी वस्तु की आवश्यकता है जो उनके पास है तो देने में एक पल भी नहीं लगाते हैं। यही नहीं वह स्वयं अपने मित्रों की परेशानी में उतने ही परेशान नज़र आते हैं जितना कि वह स्वयं।

गाँव के लिए तरसता मन

 वह मूलतः गाँव ही के रहने वाले हैं। उनके पिताश्री दुष्यंत कुमार के प्रारंभिक गुरु भी रहे हैं। परंतु पिता जी समीपस्थ कसबे में बस गए तो गाँव का परिवार अनेक कारणों से दूर होता चला गया। गीतकार के मन में गाँव की टीस अब भी उठती है वह गाँव जाना चाहते हैं मगर डाल से टूटे पत्ते की भांति जुड़ नहीं पाते। गाँव का गंवईपन उन्हें भाता है। गाँव का खाना और चैपालों की बातें उनके गीतों में अनायास नहीं आती बल्कि उनका ग्राम्यप्रेम खींच लाता है। उनके लिखे लोक गीतों में गाँव और गाँव का जीवनदर्शन है।

गीतों में लोक भावना

 भारती जी के गीतों में लोक भावना प्रत्येक रूप में नज़र आती है, वह चाहे कथ्य हो अथवा शिल्प। उनकी लोक शैली और लोक के शब्दों का सामंजस्य उनके गीतों को श्रेष्ठता प्रदान करता है। चूंकि लोक उनकी भावना है, उनका अंतःस्थल है, उनकी सोच है और उनका व्यवहार है। वह जितने पुरातनपंथी उतने ही आधुनिक भी हैं। कला के अध्यापक रहे हैं तो उनकी शैली और शिल्प में रेखाओं की भांति सधापन है। आड़ी तिरछी रेखाओं में जितनी महारत हासिल है उतना ही सीधी रेखाओं की भांति स्वीकार्यपन भी उनमें स्पष्ट नज़र आता है। रंगों के चितेरे हैं, प्रतिदिन अलग रंग के वस्त्र धारण करना उनकी प्रवृत्ति में शामिल है। यही सारे तत्व आधुनिकता में लिखे गए लोक गीतों को गेय और रोचक बना देते हैं। उनके गीतों में देशज शब्दों की भरमार है जिन्हें समझने में कतई  परेशानी नहीं होती है। उनके शब्द चूंकि लोक के शब्द हैं तो बात भी लोक की ही करते हैं। प्रकृति और खेती-किसानी के साथ-साथ दहलीज़ और दालान की बात करते हैं जो अब लुप्त होती जा रही है।  पुरवैया , दाता तोसे, अंगारे, अबकै, सनाका उगालै , तमाचै, पीपल, पिलखन, बरगद, अमुवा, नीम, छैया, दहकाय,  मुच्छै, आवै, जावै, गरजै, रिरियाय, हरिया, बुधिया, रोवै, धनिया, रधिया, मुनिया, मुनिया आदि न जानें कितने ही ऐसे शब्दों का प्रयोग भारती जी के गीतों में प्रायः देखने को मिल जाएगा। 

 राष्ट्रभक्ति को व्यक्त करने के लिए जब आल्हा की तर्ज पर देशगान की रचना करते हैं तो उसी में खो जाते हैं। देखें-

दोहा 

 तीन लोक नौ खंड मैं, ऐसो देश न पाय।

 धन-धन भारत-भारती, गाऊँ शीश नवाय।।


धन-धन भारत देश हमारो, तीन लोक मैं ऐसा नाय।

धन-धन भारत माता हमरी, जाकै गीत शहीदन गाय।।

धन-धन अपना अमर तिरंगा, नीले नभ लौ जो लहराय।

धन-धन जन, गण, मन अधिनायक, जाको कंठ करोड़ों गाय।।

धन-धन हर एक भारतवासी, जानै जन्म यहाँ पै पाय।

धन-धन कलमें उन कवियन की, जानै इसके गीत लिखाय।।

धन-धन वीर सपूती माता, जानै ऐसा पूत जनाय।

धन-धन ऐसी वीर जवानी, हँस-हँस अपना शीश कटाय।।

धन-धन अपना धवल हिमालय, जो भारत का भाल कहाय।

धन-धन हिंद महासागर जी, जो माता के चरण धुलाय।।

धन-धन झर-झर झरते झरने, मीठा-मीठा जल पिलवाय।

धन-धन अमृत जैसा पानी, पावन नदियाँ रही लुटाय।।

धन-धन चंदन माटी अपनी, जाकि सोनी गंध सुहाय।

धन-धन अपनी पुरवैया जी, तन-मन शीतल जो कर जाय।।

धन-धन अपने खेत सुभागे, सोने जैसी फसल उगाय।

धन-धन इन खेतन के राजा, जन-जन की जो भूख मिटाय।।

धन-धन आरती और अजानें, गुरुवाणी के शब्द सुनाय।

धन-धन सिक्ख, मुसलमाँ, हिन्दू, क्रिस्तानी जो एक कहाय।।


इसी प्रकार गर्मी से बेहाल होकर भी वह आल्हा की तर्ज पर गर्मी के लोक गीत की रचना करते हैं। देखें-

दोहा

दाता तोसे कर रही, यह घरा मुनहार।

अंगारे बरसाओ ना, बरसा दो जलधार।।


अरे अबकै गर्मी कैसी आ गई, ऐसी गर्मी देखी नाय।

दिन दहकै है, रात है सुलेगे, जनता पड़ी सनाका खाय।।

अंबर आग उगालै भैया, हवा मुखी देवै झुलसाय।

मौसम मारै गरम तमाचै, धरती सुलगी-सुलगी जाय।।

पीपल, पिलखन, बरगद, अमुवा, नीम की छैया दे दहकाय।

नदिया, पोखर, ताल, तलैया, कुइया रानी सूखी जाय।।

सूखे जानै कितने देखे, सूखा ऐसो देखो नाय।

चैन मिलै ना दिन मैं रामा, रातों अँखियन नींद न आय।।

अबकै जानै कौन-सी ग़लती, दाता हमसै हो गई हाय।

मन्नत कर-कर करकै हारे, पर जुल्मी तू बाज आय।।

उधर अकड़ के बैठा बदरा, मुच्छै नीची करता नाय।

इधर रुठ के बैठी बदरी, सियाणी मान कै देवै नाय।।

जहाँ तलक भी आँखैं फोड़ैं, खेताँ वहीं तलक फट जाय।

फटी पड़ी छाती रानी की, राजा का दिल फट-फट जाय।।

हरिया रोवै, बुधिया रोवै, जुम्मन, होरी रये रिरियाय।

धनिया, रधिया, मुनिया, मुनिया, छाती पीट-पीट रह जाय।।

काला मेघा आवै, जावै, गरजै लेकिन बरसै नाय।

सकल दिखायै, अर उड़ जावै, जानै कौन नगर बरसाय।।

हाथन नाव लियै काग़ज़ की, बच्चन बैठे आस लगाय।

अब तो रिमझिम जल बरसादे, सबका धीरज टूटा जाय।।

नून, मिरच घी, दाल न आटा, फाके सै बुढ़िया मर जाय।

बुड्ढा बुक्का फाड़ कै रावै, बुढ़िया बिन, लै मुझै उठाय।।

जंतर, मंतर, जादू, टोना, और कथा भी ली करवाय।

लेकिन राम, रमैया, अल्लाह, गौड़, गुरु भी सुनै हैं नाय।।


 गाँव की याद करते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं, जिसमें न तो कोई बनावट है और गीत गाते-गाते लगता है कि उसमें कोई बुनावट भी नहीं है। उनकी पीड़ा हर उस व्यक्ति को अपनी सी लगने लगती है जिसे अपने गाँव की याद आती है। देखें गीत -

याद बड़े ही, आए गाँव की, गुर्रक-गूँ के दिन।

वो ठेठ गाँव की बोली भैया, बुर्रक-बूँ के दिन।।

 वो दिन भी, क्या दिन थे भैया, गाँव में सस्ते के।

 वो शाला के तप्पड़, तख्ती, बुतका, बस्ते के।

 वो खेतों की डौल व बटिया, कच्चे रस्ते के।

 वो बूढ़ों से मिली दुआ, और उन्हें नमस्ते के।

 वो कोल्हू में पिरता गन्ना, पुर्रक-पूँ के दिन।


निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारती जी सुहृदय, सरल, हितैषी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। नगरीय जीवन जीते हुए गाँव को नहीं भूले हैं यही कारण है कि भारती जी के गीतों में गाँव स्पष्ट दिखाई देता है। भारती जी का लोक सबका लोक है और उनके शब्द लोक के शब्द हैं यही कारण है कि उनके गीत लोक के गीत बन गए हैं।

संदर्भ

1. भारती जी से लंबी बात-चीत

2. भारती जी के अप्रकाशित व प्रकाशित गीत

3. भारती जी के साथ बिताए गए क्षण।


अमन कुमार

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘धूप के अक्षर’ का लोकार्पण

हैदराबाद,  दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (उच्च शिक्षा और शोध संस्थान) तथा ‘साहित्य मंथन’ के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 4 जुलाई (सोमवार) को द...