भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



  भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र वास्तव में आधुनिक हिंदी के जन्मदाता थे। उसे सर्वात्मना विकसित करके जन-साधारण तक पहुंचाने में उनकी अत्यधिक रूचि थी। उन्होंने साहित्य की प्राचीन परम्परा के प्रति विद्रोह करके उसे नवीन न संस्कृत ही। उन्होंने मध्यम मार्ग ग्रहण किया था। अपनी रचनाओं में उन्होंने संस्कृत के उन्हीं शब्दों का व्यवहार किया था जो बोल-चाल की भाषा में आते  है और उर्दू के भी उन्हीं शब्दों को उन्होंने अपनाया था जिनको जनता ने अपने दैनिक जीवन में ग्रहण कर लिया था। एक जागरूक पत्रकार के रूप में भी उनका सुधारवादी दृष्टिकोण रहा था। 

भारतेन्दु बाबू का जन्म 9 सितम्बर, 1850 को अपनी ननसाल में हुआ था। जब आप 5 वर्ष के थे तो आपकी माता का और जब आप 10 वर्ष के थे तब आपके पिता का देहावसन हो गया था। आप आधुनिक हिंदी के निर्माता थे। आपने केवल 35 वर्ष की अल्पायु में ही वह क्रान्तिकारी कार्य कर दिया जिसे बड़े-बड़े लेखक इतने कम समय में नहीं कर पाते। अठारह वर्ष की आयु आते-आते आपने जहां ‘विद्यासुन्दर’-जैसा सशक्त नाटक लिखा वहां अपने लेखन को गति देने की दृष्टि से ‘कवि-वचन-सुधा’ नामक साहित्यिक पत्रिका का संपादन भी प्रारम्भ किया। 20 वर्ष की अवस्था में आप साहित्यिक और सामाजिक जागरण की ओर उन्मुख हुए, जिसका ज्वलन्त प्रमाण आपके द्वारा संस्थापित ‘कविता वर्द्धिनी सभा’ है। अपने साथी-संगियों में हिंदी के प्रति रूचि जाग्रत करके उनको कविता-लेखन की दिशा में उन्मुख करना ही आपकी इस सभा का मुख्य उद्देश्य था। इस सभा में उन दिनों सरदार, सेवक और दीनदयाल गिरि आदि कवि रूचि और उत्साह पूर्वक भाग लिया करते थे। इसके 3 वर्ष बाद आपने ‘पैनी-रीडिंग क्लब’, ‘तदीय समाज’, ‘यंगमैन एसोसिएशन’ और ‘डिबेटिंग क्लब’ आदि कई संस्थाओं की संस्थापना की थी। इन सब संस्थाओं का उद्देश्य समाज के नवयुवको में सांस्कृतिक और राजनीतिक जागृति उत्पन्न करके उन्हेें सुयोग्य वक्ता बनान भी था। 

भारतेन्दु ने जहां अपने संपर्क में आने वाले युवकों को देश की सांस्कृतिक, सामाजिक तथा राजनैतिक भाव-धारा से परिचित कराया, वहाँ उनमें राष्ट्रभाषा हिंदी के विभिन्न विषयों के लेखन की ओर अग्रसर होने की भावना भी उत्पन्न की। अपनी पत्रिका ‘कवि-वचन सुधा’ के माध्यम से आपने जहां लेखन की दिशा में अनेक प्रयोग किये, वहां आपके द्वारा संपादित तथा प्रकाशित ‘हरिश्चन्द  मैगजीन’, ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ और ‘बाला बोधिनी’ आदि पत्रिकाओं की भूमिका भी कम नहीं रखती। ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका तथा ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ ने जहां देश की शिक्षित जनता को राष्ट्रभाषा हिंदी में अपने विचारों के प्रचार करने का खुला मंच प्रदान किया, वहाँ ‘बाला बोधिनी’ के माध्यम से आपने महिलाओं को भी इस दिशा में आगे बढ़ाने का सराहनीय कार्य किया। यहां तक कि अक्टूबर सन् 1877 की ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ में तो आपने हास्य-रस की एक पत्रिका ‘पंच’ नाम से प्रकाशित करने की घोषणा भी कर दी थी। खेद है कि केवल 13 ग्राहक ही बन पाने के कारण आप अपने उस स्वप्न को पूरा नही कर सके। आपका विचार सौ स्थायी ग्राहक बन जाने पर ही उसे प्रकाशित करने का था। 

इस प्रकार भारतेन्दु ने पत्रकार के रूप में जहाँ समस्त देश को जागरण का नवसंदेश देने का अभूतपूर्व प्रयत्न किया, वहाँ एक उत्कृष्ट कवि, नाट्ककार और गद्य-लेखक के रूप में भी आपका अप्रतिम योगदान था। आपने पत्रकारिता के माध्यम से लेखकों का जो मण्डल तैयार किया था, उन्हें भी साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचना करने की प्रेरणा देने में आप पीछे नहीं रहे। एक ओर  भारतेन्दु जहाँ साहित्यिक अभिवृद्धि के लिए अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर रहे थे, वहां दूसरी ओर देश की दुर्दशा के प्रति भी आप पूर्णतः सजग और सचेष्ट थे। आपने अपने लेखन का विषय मुख्यतः देश की गरीबी, पराधीनता, शासको द्वारा दिन-प्रतिदिन किया जाने वाला शोषण और दीन-हीन जनता के उद्धार को ही बनाया था। वास्तव में यदि हम एक वाक्य में कहें तो आप ‘भारतीय नव-जागरण के अग्रदूत’ थे। 

जिस समय भारतेन्दु का जन्म हुआ था, उन दिनों भारत की जनता ब्रिटिश नौकरशाही के दमन-चक्र में बुरी तरह पिस रही थी। क्योंकि भारतेन्दु का परिवार एक राज-भक्त परिवार समझा जाता था अतः अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ भी आपने ‘प्यारी अमी की कटोरिया-सी, चिरजीवी सदा विक्टोरिया रानी’ और ‘श्री राजकुमार सुस्वागत पत्र’ जैसी रचनाओं से किया था। किंतु जब धीरे-धीरे आपके साहित्यकार ने आंखे खोली तब आपको यह लिखने के लिए विवश होना पड़ा। 

अंगरेज राज सुख साज सजै सब भारी।

पै धन विदेश चलि जात यही है ख्वारी।।

यही नहीं आपको देश के धन के विदेश चले जाने की मर्मान्तक पीड़ा थी, आपको तो यह भी दुःख था कि भारत की जनता दिन-रात शोषण की चक्की में क्यों पिसती जा रही है। आपके कवि ने अपनी पीड़ा को जहाँ-

रोबहु सब मिलिके आवहु भारत भाई।

हा-हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।।

यह लिखकर प्रकट किया, वहाँ राष्ट्रभाषा हिंदी के उत्कर्ष की भावना भी इन पंक्तियों में प्रकट की। 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न तन को शूल।।

आपने न केवल हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में अपनी प्रतिभा का पूर्ण प्रयोग किया, बल्कि अपनी प्रायः सभी रचनाओं में देश की तत्कालीन समस्याओं, बुराइयों और बेकारी पर खुले शब्दों में चोट की। 

यहां तक कि अंग्रेजी भाषा के व्यापक प्रचार को देखकर आपका कवि हृदय इस प्रकार चीख उठा। 

तीन बुलाए, तेरह आवे,

निज-निज विपता रोई, सुनावे।।

आंखो फूटें, भरा न पेट।

क्यों सखि सज्जन, नहिं ग्रेजुएट।।

आपकी अंग्रेजी और अंग्रेजों के प्रति यह भावना इन पंक्तियों में और भी मुखरता से प्रकट हुई है। 

भीतर-भीतर सब रस चूसे। 

हँसि-हँसि के तन-मन-धन मूसे।।

जाहिर बातन में अति तेज। 

क्यों सखि सज्जन, नहि अंग्रेज।।

आपने अंग्रेजों और उनके मुसाहिबों की झूठी लफ्फाजी का पर्दाफाश जिस सशक्त और प्राणदायी शैली में किया है, वह आगे चलकर हमारे साहित्य के अनेक महारथियों को प्रेरणा देने वाला बना। 

भारतेन्दु जहाँ एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्य लेखक, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार और जीवन्त गद्य-लेखक थे, वहाँ राष्ट्रीय जागरण की चेतना जगाने में भी आप किसी से पीछे नहीं रहे। आपकी ऐसा प्रतिभा का परिचय 8 जून, 1874 की ‘कवि-वचन-सुधा’  में प्रकाशित उन पंक्तियों से मिलता है, जिनमें आपने देशवासियों को विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने के लिए ललकारा था। आपने लिखा था-‘‘भाइयों! अब तो सन्नद्ध हो जाओ और ताल ठोक के इनके सामने खड़े हो जाओ। देखो, भारतवर्ष का धन देश से बाहर न जाने पाये, वह उपाय करो।’’

इस प्रकार हम देखते है कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र उत्कृष्ट साहित्यकार होने के साथ-साथ भारतीय मनीषा को चैतन्य प्रदान करने वाले ऐसे प्रेरणा बिंदु थे जिनके कार्य-कलापों के प्रभाव से आज समग्र देश में राष्ट्रभाषा हिंदी की पावन संदेश प्रसारित हो रहा है। 

आपका निधन 6 जनवरी सन् 1885 को केवल 34 वर्ष, 4 माह की अल्पायु में हुआ था। इतनी कम उम्र में भारतेन्दु बाबू ने नाटक, काव्य और इतिहास से सम्बन्धित लगभग सौ पुस्तकों की रचना की थी। अपना परिचय भारतेन्दु बाबू ने एक बार इस प्रकार दिया था। 

सेवक गुनी जन के चाकर चतुर के है,

कविन के मीत चित हित गुनगानी के। 

सीधन सों सीधे, महा बांके हम बाँकेन सो,

‘हरीचन्द’ नगद दामाद अभिमानी के।।

चाहिबे की चाह, काहू की न परवाह,

नेही नेह के दिवाने सदा सूरत निमानी के। 

सर्वस रसिक के, सुदास दास प्रेमिन के,

सखा प्यारे कृष्ण के, गुलाम राधा रानी के।।

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