पण्डित रूद्रदत्त शर्मा संपादकाचार्य / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



पण्डित रूद्रदत्त शर्मा संपादकाचार्य हिंदी के उन पत्रकारों में थे, जिनका जीवन निरन्तर अभावों और कठिनाईयों में जूझते हुए ही व्यतीत हुआ था। आपके व्यक्तित्व तथा कृतित्व की महत्ता का अनुमानन समालोचक-शिरोमणि पद्यसिंह शर्मा के उन शब्दों से लगाया जा सकता है जो उन्होंने शर्मा जी के निधन के उपरांत उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के मुरादाबाद में संपन्न हुए छठे वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष-पद से भाषण देते हुए कहे थे। उन्होंने कहा था-‘‘हिंदी संसार के सुप्रसिद्ध वृद्ध महारथी पण्डित रूद्रदत्त शर्मा संपादकाचार्य की मृत्यु एक बड़ी ही दुःखप्रद और करूणाजनक घटना है। इनकी मृत्यु से हिंदी को जो हानि हुई है, उसकी पूर्ति होनी कठिन है। पण्डित रूद्रदत्त जी हिंदी के एक बहुत पुराने अनुभवी और विद्वान लेखक थे। आपकी सारी आयु हिंदी-सेवा में ही बीती थी। एक लगन से हिंदी की सेवा करने का सौभाग्य बहुत कम लेखकों को प्राप्त हुआ है। आप हिंदी के सुलेखक ही नहीं सुवक्ता भी थे। संपादन-कला के तो वे सचमुच आचार्य थे। उनके सत्संग से कई आदमी अच्छे संपादक बन गए। उनकी साहित्य-सेवा पत्र-संपादन से ही आरम्भ हुई थी और संपादन में ही शरीर के साथ उसकी समाप्ति हुई। 

जब तक जिये लिखे खबरनामे

चल दिये हाथ में कलम थामे। 

यह प्रान्त पण्डित रूद्रदत्त जी जैसे बहुगुण-सम्पन्न साहित्य-सेवी की जन्म भूमि होने पर उचित गर्व कर सकता है। साहित्य-सेवा में सारी आयु खपाने वाले इन वृद्ध साहित्य-सेवी का अंतिम समय जिस दयनीय अवस्था में बीता, वह बड़ा ही करूणाजनक और शोचनीय दृश्य था। यह हिंदी के लिए दुर्भाय और हमारे लिए लज्जा तथा कलंक की बात है।’’

शर्मा जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद के धामपुर नामक कस्बे में सन् 1854 में हुआ था। आपके पिता पण्डित काशीनाथ संस्कृत वाकमय के प्रकाण्ड विद्वान तथा ज्योतिष और तन्त्रशास्त्र के पारंगत पण्डित थे। उनके ही निरीक्षण में शर्मा जी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर हुई थी। उनके ज्योतिषी पिता ने इस बात की कदाचित् कल्पना भी न की होगी कि उनका यह पुत्र कभी हिंदी का इतना यशस्वी पत्रकार होगा कि उसे ‘संपादकाचार्य’ के विशेषण से अभिषिक्त किया जायेगा और अनेक पत्रों का संपादन करने पर भी उसके अपने जीवन का अंत इतनी विपन्न अवस्था में होगा। आपकी शिक्षा-दीक्षा वृन्दावन, मथुरा और काशी में भी हुई थी। 

इक्कीस वर्ष की आयु में शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त आपने आर्यसमाज के एक उपदेशक के रूप में अपने कर्ममय जीवन का प्रारम्भ किया था। उपदेशकी के उन दिनों में आपने अपनी वक्तृत्व शैली से इतनी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी कि उन पर अनेक शास्त्रार्थो में भाग लेने का दायित्व भी समय-समय पर डाला जाता रहा था। अपनी प्रखर वाग्मिता और संस्कृत, वाड़्मय के गहन ज्ञान के बल पर आपने जिन अनेक पौराणिक पण्डितों से शास्त्रार्थ करने का अद्भुत साहस दिखाया था, उनमें संस्कृत के उपन्यास ‘शिवराज विजय’ के ख्याति-प्राप्त लेखक श्री अम्बिकादत्त व्यास अन्यतम थे। यहाँ तक कि जब आपने उपदेशकी का कार्य छोड़कर पूर्णतः पत्रकारिता को ही अपना लिया था तब भी आपको पण्डित अखिलानन्द शर्मा से आगरा में शास्त्रार्थ करना पड़ा था। उन दिनों आप आगरा में आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के साप्ताहिक मुखपत्र ‘आर्य मित्र’ का संपादन करते थे। आपने विधिवत्् पत्रकारिता कार्य 1 मई 1885 में तब प्रारम्भ किया था, जब आप मुरादाबाद से प्रकाशित होने वाले ‘आर्य विनय’ नामक पाक्षिक पत्र के संपादक बने थे। जिन दिनों वे ‘आर्य विनय’ का संपादन करते थे, तब उन्हें पत्र के प्रत्येक अंक की सामग्री को डिप्टी कलैक्टर को सुनाने जाना पड़ता था और काफी समय तक उनका यह क्रम जारी रहा। 

इस पत्र के 15 जनवरी, 1886 तक के केवल 16 अंको का संपादन आपने किया था और इसके उपरान्त आप कलकत्ता चले गये थे और वहां से प्रकाशित होने वाले आर्य प्रतिनिधि सभा बंगाल व बिहार के मुखपत्र ‘आर्यावर्त’ का संपादन करने लगे थे। लगभग 10 वर्ष तक आपने इस पत्र का संपादन किया। सन् 1897 के आस-पास जब इस पत्र का कार्यालय कलकत्ता से दानापुर (पटना) चला आया तो आप पटना आ गये। जिन दिनों आप पटना में ‘आर्यावर्त’ का संपादन करते थे, तब सरकार ने शर्मा जी पर मुकदमा चलाने का प्रयास किया था, किंतु हिंदी के अनन्य सेवक जार्ज ग्रियर्सन ने इस अभियोग से उनकी रक्षा की थी। ग्रियर्सन साहब उन दिनों पटना के कमिश्नर थे। 

इसके बाद आप आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश के पत्र साप्ताहिक ‘आर्यमित्र’ के संपादक होकर आगरा आ गये और वहां पर आपने लगभग 6 वर्ष तक उसका संपादन किया। इन पत्रों के अतिरिक्त आपने ‘इन्द्रप्रस्थ प्रकाश’ (दिल्ली), ‘भारत मित्र’ (पटना) ‘वेंकटेश्वर समाचार’ (बम्बई) ‘सत्यवादी’ (हरिद्वार) ‘प्रेम’ (वृन्दावन) और ‘मारवाड़ी’ (नागपुर) आदि अनेक पत्रों का संपादन भी समय समय पर किया गया था। सन् 1917 के आस-पास आप देवास (मध्यप्रदेश) रियासत के नरेश के आमन्त्रण पर ‘मालवा समाचार’ नामक साप्ताहिक का संपादन करने के लिए वहां गये थे, किंतु वहां वेतन इतना कम था कि परिवार का पालन कठिनाई से हो पाता था। परिणामस्वरूप आप वहां से त्यागपत्र देकर इन्दौर वापस चले गये। देवास जाने से पूर्व आप वृन्दावन से प्रकाशित होने वाले ‘प्रेम’ का संपादन मिकया करते थे। अपनी पत्रकारिता के जीवन में आपने अंग्रेजी के अतिरिक्त बंगला तथा गुजराती आदि कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जिन दिनों आप इन्दौर में थे, तब प्रख्यात पत्रकार श्री बनारसी दास चतुर्वेदी वहां के ‘डेली काॅलेज’ में हिंदी के अध्यापक थे। शर्मा जी उन दिनों टयूशन आदि करके अपना जीवन-यापन कर रहे थे। अपने पत्रकार जीवन में आपने पत्रकारिता के जो मानदण्ड स्थापित किये थे, वे आज भी हमारे सामने एक ज्वलन्त आदर्श प्रस्तुत करते है। हिंदी पत्रों के पुराने संपादकों में आपके जोड़ का कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। आपकी ऐसी प्रतिभा और योग्यता से प्रभावित होकर ही ‘आर्य विद्वत सभा’ गुरूकुल महाविद्यालय ज्वालापुर ने आपको ‘संपादकाचार्य’ की गौरवमयी उपाधि से विभूषित किया था। क्योकि शर्मा जी का अधिकांश जीवन आर्यसमाज की सेवा में ही व्यतीत हुआ था, इसलिए आर्य-जगत ने इस उपाधि के द्वारा अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की थी। 

उच्चकोटि के पत्रकार होने के साथ आपने जहां गूढ़तम रहस्यों के उद्घाटक कई गम्भीर ग्रंथों की रचना की थी, वहाँ व्यंग्य-विनोदमयी शैली में भी आपने अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया था। आपकी ऐसी कृतियों में ‘सांख्य शास्त्र का हिंदी अनुवाद’, ‘योगशास्त्र’ और ‘व्यास भाष्य’ (प्रहसन), शिक्षा विज्ञान, ‘ध्यान विधियोग’, ‘आर्यमत मार्तण्ड’, ‘मनोरंजनी’ (नाटक) तथा ‘नरसिंह दरोगा’ (उपन्यास) आदि उल्लेखनीय है। जिन दिनों आप इन्दौर में थे, तब ‘जर्मन जासूसी’ नामक एक दूसरा उपन्यास भी आपने लिखना प्रारम्भ किया था, किंतु दुर्भाग्यवश वह पूरा नहीं हो सका था। उन्हीं दिनों आपने श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के अनुरोध पर अपने पत्रकार-जीवन के संस्मरण भी लिखने प्रारम्भ किये थे। उस समय वे केवल 36 पृष्ठ ही लिख सके थे। अपनी आर्थिक विपन्नता की अवस्था में एक बार जब आपने ‘वेंकटेश्वर समाचार’ का संपादन-कार्य स्वीकार कर लिया था तो अनेक आर्यसमाजियों ने इस पर यह आपत्ति की थी आपने आर्य-पुरूष होकर एक पोप पत्र का संपादक बनकर अच्छा नहीं किया। इस पर शर्मा जी ने जो उत्तर दिया था, उससे उनकी तर्क-शक्ति का सुपुष्ट परिचय मिलता है-‘‘हम तो वकील है। जिसका मुकद्दमा होता है, उसकी पैरवी करते है।’’ यहाँ यह बात विशेष रूप से ध्यातव्य है कि इस पत्र में कार्य करते हुए उन्होंने सनातन धर्म के समर्थन में कभी कुछ भी नहीं लिखा था। 

इतना संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने पर भी आपने ‘अर्थ-संग्रह’ को कभी अपने जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया था। दूसरों को खिलाने-पिलाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। किसी भूखे-प्यासे को देखकर उसे तृप्तिपूर्वक भोजन कराने का उनका स्वभाव था। स्वयं आर्थिक अवस्था क्षीण होने पर भी वे दूसरों के अभाव दूर करने को सदैव तत्पर रहते थे। एक बार की बात है जब वे यायावरी में घूमते-घामते मुजफ्फरपुर से नेपाल पहुंच गये थे, तब ब्रिटिश सिपाहियों की छावनी में अचानक ही फँस गये । उस समय उन्होंने ‘मैं आर्य-समाज का उपदेशक हूँ’ कहकर अपने प्राणों की रक्षा की थी। 

यह अत्यन्त दुर्भाय की बात ही कही जाएगी कि हिंदी-पत्रकारिता का यह गौरव-स्तम्भ अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक-एक पैसे के लिए मोहताज रहा और इन्दौर जैसी वैभवशाली नगरी से निराश होकर वापिस आगरा लौट आया और 17 नवम्बर, 1918 को उपयुक्त औषधि-पथ्य आदि के अभाव में उसने अपने प्राण त्याग दिये। पत्रकार-प्रवर श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनके देहावसान पर यह सही ही लिखा था-‘‘चालीस-पैतालीस वर्ष तक साहित्य-सेवा तथा हिंदी पत्रों का संपादन करने के बाद औषधी पथ्य तथा भोजन के लिए तरस-तरस कर प्राण गँवाना, यह अकथनीय दुर्भाय था। संस्कृत के उस महान् विद्वान, आर्यसमाज के महोपदेशक तथा शास्त्रार्थकर्ता और हिंदी के उच्चकोटि के लेखक तथा पत्रकार का, जिसका संपूर्ण जीवन ही जनता को शिक्षित करने में बीता था, ऐसे चला जाना शोचनीय दुर्घटना हैं वैसे तो प्रायः सभी हिंदी-पत्रकारों का जीवन कष्टमय रहा है, फिर भी जैसे कष्ट रूद्रदत्त शर्मा संपादकाचार्य को अन्तिम दिनों में भोगने पड़े वैसे शायद ही किसी अन्य हिंदी-पत्रकार को भोगने पड़े हो। वे सचमुच भूखों मर गये। और इस दुर्दशामय मृत्यु के लिए आर्यसमाज तथा हिंदी-जगत् समान रूप से दोषी है।’’


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