केवल नाम से नहीं व्यावहारिकता में भी मुलायम हैं नेताजी

 


नेताजी पर ही भारी पड़ गया बेटे का पॉलिटिक्स ज्ञान और किस तरह पूरा ड्रामा हुआ.  अनामी शरण बबल ने नेता जी पर एक लेख्‍ा लिखा था. वही लेख प्रस्‍तुत है-

अनामी शरण बबल
उत्तर प्रदेश में कई बार मुख्यमंत्री रह चुके दिग्गज समाजवादी नेता मुलयम सिंह यादव को लेकर मेरे मन में कोई बड़ा लगाव या आकर्षण नहीं था। बसपा के कांशीराम और मायावती के साथ इनका प्यार भरा नाता रहा था और सपा बसपा मिलकर ही सत्ता सुख को भोगा मगर बसपा की बहिनजी से छले जाने के बाद इनके रास्ते अलग अलग हो गए। मुलायम सिंह से 1990 के बाद कई बार मिला,बातचीत भी की मगर इसे याराना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। मगर जब अपनी जान पहचान गहरी हो गयी तो मैं मुलायम सिंह का कायल हो गया। नाना प्रकार के आरोपों से नवाजे जाने वाले मुलायम (जिन्हें ज्यादातर लोग नेताजी कहते हैं)। ने अपने गांव सैफई की सूरत ही बदल दी है। मुलायम ने सरकारी धन का जमकर दुरूपयोग भी किया । कहने वाले कह सकते हैं कि एक गांव में एक बी ग्रेड का एयरपोर्ट बनवाने का क्या काम । मगर हवाई अड्डा सहित स्कूल कॉलेज तकनीकू सस्थान से लेकर इटावा के अपने इलाके को मीनी मुंबई का रूप दे दिया है।
 दुनिया मुलायम सिंह के बारे में चाहे जो करे या कहें मगर यहां के लोग इन्हें भगवान की तरह पूजते है। और किसी भी आदमी इटावा का होना ही नेताजी के लिए आज भी खास हो जाता है। दूसरी तरफ बड़ी बड़ी बातें करने वाले सभी दलों के लगभग एक सौ तूफानी नेताओं मे से करीब 20-22 नेताओं के पैतृक गांव और घर पर जाने का भी मौका मिला। मगर यह देखकर मैं हमेशा आहत हुआ कि गांव चाहे देवीलाल का हो या पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी, चंद्रशेखर का। भूत (पूर्व) मुख्यमंत्रियों में मायावती (जगत बहिनजी के गांव बादलपुर में इनका महल है, मगर गांव बेहाल सड़को का खस्ताहाल और तमाम बुनियादी सुविधाएं भी दम और दिल तोडने लायक है) कल्याण सिंह लालजी टंडन से लेकर चौधरी वंशीलाल का गांव हो । तमाम दिग्गजों के गांव में जाकर कभी लगा ही नहीं मैं किसी खास आदमी के गांव में हूं। भारत के सामान्य गांवों की तरह ही बदहाली अभावग्रस्त बेनूर और बुनियादी समस्याओं से जूझते पाया। दरिद्र ग्रामीणों को अपने तथाकथित महान नेता से कोई लाभ नहीं मिला।
हालांकि यह बात थोड़ी क्या बहुतो को बहुत ज्यादा बुरी भी लग सकती है मगर बाहुबली किस्म के नेताओं के इलाको में विकास की हरियाली है। सरकारी योजनाओं का प्रभाव दिखता है और आम नागरिक भी शरीफ नेताओं की अपेक्षा अपने इन कथित बदमाश नेताओं से ज्यादा खुशहाल मिले। नौकरशाहों और प्रशासन पर भी इन बाहुबलियों का खौफ भी दिखता था। प्रजातंत्र में विकास और नागरिकों की खुशीहाली का यही पैमाना रहा तो लोग पप्पू यादव शहाबुद्दीन से लेकर कुख्यात राजा भैय्या के चरणों में लेटकर खुद को धन्य नहीं मानते।. पूरे इलाके में शहाबुद्दीन या राजा भैय्या को शादी कार्ड देने का मतलब यही होता है कि उस गरीब कन्या की शादी का सारा खर्च ये बाहुबलियों द्वारा ही वहन की जाएगी।
उधर दूसरी तरफ अत्यधिक शरीफ और लोकप्रिय माने जाने वाले नेताओं में पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी हो या मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी की नजर से तो ज्यादातर बाप अपनी कन्याओं को छिपाकर रखना चाहते थे। शराफत और लोकप्रियता के बीच इन बाहुबलियों में कौन ज्यादा शरीफ है? यह एक बड़े विवाद का गरमागरम मुद्दा बन सकता है,। कथित तौर पर शरीफजादे नेताओं की पूरी फौज और इनके अलंबरदार इससे नैतिकता का हवाला देकर परहेज करेंगे। खैर मैं कोई मुलायम का चारण करने नहीं बैठा हूं, बल्कि मुलायम के अपनों और अपने इलाके के लोगों के प्रति प्रेम को देखकर लगता है कि लोगों की परवाह किए बगैर मुलायम ने हमेशा हर उस आदमी की मदद की है जिसको वाकई मदद की जरूरत थी। मुलायम सिंह के बहाने अपने महान भारत देश के महान नेताओं के कामकाज और विकास के नजरिए की कलई खुलती है कि लगातार जीतने वाले ये नेता अपनों और अपने इलाके के प्रति कितने उदासीन रहते है।
यूपी में 1993 में विधानसभा चुनाव की पूरी कमान मुलायम सिंह यादव अकेले संभाल रखा था। दिल्ली के प्रेस के सामने मुलायम अपनी जीत की बार बार हुंकार मारते फिर रहे थे। जून 1993 के दूसरे सप्ताह में मुलायम अपने कानपुर दौरे को लेकर दिल्ली में बड़ी बड़ी बातें उछाल रहे थे। मुझे आज भी याद है कि 22 जून 1993 को कानपुर रैली और शहर भ्रमण के बहाने चुनावी अभियान का आगाज होना था। संवाददाता सम्मेलन में ही मैने टोका और कानपुर रैली को मीडिया के सामने केवल पब्लिसिटी का स्टंट बनाने का आरोप लगाया । यह बात शायद नेताजीम को खटक गयी ।
संवाददाता सम्मेलन खत्म होते ही मुलायम मेरे पास आए और हाथ पकड़कर कहा कि आपको कानपुर चलना है। और कई पत्रकारों से पूछा कि कौन कौन कानपुर चलेंगे यह बताइए मैं व्यवस्था कराता हूं। मेरे साथ फोटोग्राफर अनिल शर्मा (जो अभी इंडियन एक्सप्रेस में है ) के अलावा कानपुर के ले कोई राजी नहीं हुआ। टिकट के लिए नाम पता लिखकर दे दिए थे। तीन चार दिन की खामोशी से लगा मानो कानपुर प्लान खत्म। तभी 21 जून को किसी मुलायम प्रेमी का फोन आया कि कल सुबह साढ़े पांच बजे की ट्रेन है। आपके घर पर तैयार रहेगे गाड़ी चार बजे आ जाएगी और अनिल जी को भी तैयार रखेंगे। अनिल शर्मा को फोन कर हमलोग सुबह के लिए लगभग तैयार थे। ट्रेन सही समय पर खुली और दोपहर 12 बजे मुलायम सिंह के चार आतिथ्य सत्कारी फौज के साथ हम दोनों मुलायम दरबार में थे । उस समय वे कानपुर प्रेस से रू ब रू थे । बीच में ही मैने कोई एक सवाल दाग दिया। उस पर जवाब देने की बजाय मुलायम अपनी जगह से उठकर मेरे पास आकर बैठ गए। मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर पूछा कि सफर में कोई दिक्कत तो नहीं हुई.। मेरे ना कहने पर मुलायम ने कहा कि मै भी आपके साथ ही ठहरा हूं रात में बात करेंगे । यह कहते ही अपने सिपहसालारों को मुलायम नें संकेत किया और प्रेस कांफ्रेस के बीच में ही हमलोग को लेकर उनकी टोली एक होटल में पहुंची। जिसके तीसरा तल सपा के नाम आरक्षित था। मुझे जिस कमरे मे ले जाकर ठहराया गया ठीक उसके बगल वाले कमरे में ही मुलायम रूके हुए थे।
शाम को जनसभा में जाने से पहले यह मुलायम का अजब गजब चेहरा था। कानपुर के मुख्य सड़क से लेकर गली मोहल्ले की लगभग एक दर्जन मंदिर मस्जिद गुरूद्वारा चर्च में जाकर अपना माथा टेका। कोई कहीं हनुमान मंदिर तो कोई काली मंदिर तो कोई सती देवी मंदिर मे जाने के लिए गली मोहल्ले का चक्कर काटा। और शाम ढलने से पहले जब मुलायम जनसभा स्थल पर पहुंचे, तो वहां करीब 50 हजार से ज्यादा श्रोताओं की भीड़ इंतजार कर रही थी। किसी नेता के संग एक ही गाड़ी में चलने का अपना दुख होता है। उनका एक सिपहसालार आगे की सीट पर तो मेरे और अनिल के बीच मुलायम होते या एक कभी खिड़की की तरफ वे तो दूसरे गेट से हम दोनों रहते। रैली बहुत शानदार रही और रात करीब 10 बजे हमलोग होटल में पहुंचे. थोड़ी देर के बाद डाईनिंग हॉल मे करीब एक सौ सपाई. के साथ नेताजी भोजन के लिए बैठे। मगर उससे पहले लगभग हर टेबल पर जा जाकर नेताजी ने सबों का हाल खबर खैरियत ली. किसी से हाथ मिलाया ,किसी से हाथ जोड़ा तो किसी के पीठ पर हाथ फेरते हुए आखिकार मुलायम के साथ खाना से अधिक बाते होती रही। करीब एक घंटे तक सामूहिक भोजन में मुलायम अपनी टेबल से उठकर कई बार पूरे हॉल का चक्कर काटते हुए लगभग हर आदमी को और खाने के लिए आग्रह किया। अपने कार्यकर्ताओं की इतनी चिंता करने वाले नेताजी सही मायन में केवल नाम के नहीं सही मायने में दिल से जुड़े हुए एक पारिवारिक नेता की तरह रहते हैं।
अगले दिन सुबह कानपुर के सारे पेपर मुलायम वंदना से भरे पड़े थे। सुबह सुबह अखबार देखते हुए हमलोग नेताजी के साथ ही चाय और नाश्ता की। तभी मुलायम ने कहा कि यहां से आपलोग लखनउ चलिए उसके बाद कोई कार्यक्रम बनाते हैं। कानपुर से हमलोग की करीब 10-12 गाड़ियों का काफिला लखनु के लिए निकला । और रास्ते में करीब 10 स्थानों पर गाड़ी रोककर मुलायम ने 10-15 मिनट की छोटी छोटी जनसभा की। आग के गोले के समान सूरज और 45 से पार पारा के बीच 23 जून 1983 की चिलचिलाती धूप में भी सड़क किनारे हजारों लोगों की भीड़ और लंबी कतार को देखकर मेरी आंखे फटी की फटी रह गयी। पहली बार मुलायम के प्रति जनता के बेशुमार प्यार को देखकर मेरा पूरा नजरिया ही बदल गया।
देर रात तक हमलोग की सवारी लखनऊ पहुंची। हमें किसी गेस्ट हाउल में ठहराया गया था। उनके कई सिपहसालार भी गेस्ट हाउस में ही ठहरे। हमलोग के साथ ही रात का खाना लेने के बाद नेताजी ने कहा कि सुबह 10 बजे आता हूं . अगले दिन सुबह वे कई घंटो तक साथ रहे और खान पान और गप शप तथा दिल्ली में लगातार बैठकर बातचीत करने की रणनीति के साथ ही भव्य सत्कार के बाद करीब 30-35 कार्यकर्ताओं ने पूरे आवभगत के साथ दिल्ली के लिए हम दोनों को रवाना किया। दिल्ली में आते ही मैने एक लंबी रिपोर्ट लिखी -भावी मुख्यमंत्री के अभिषेक की तैयारी- रपट को शब्दार्थ फीचर फाना न्यूज एजेंसी सहित कला परिक्रमा हिन्दुस्तान फीचर्स सहित दो और एजेंसी को रिपोर्ट में आंशिक हेर फेर कर दे दी। जिससे चार पांच दिन के अंदर यही रिपोर्ट देश की लगभग 100 से भी अघिक अखबारों में अलग अलग तरह और अलग शीर्षक के साथ छप गयी।
मैने करीब 50-60 पेपर की कतरनों का एक फाईल बनाकर मुलायम के सिपहसालारों को थमा दी। करीब एक सप्ताह के बाद दिल्ली आते ही नेताजी ने फोन कर यूपी निवास में मिलते का आग्रह किया। और जब मिले तो देखते ही मुझे अपनी बांहों में भर लिया। मैने नेताजी के साथ पैतृक गांव सैफई जाने की इच्छा जाहिर की । वे एकदम खुश हो गए। फिर तो इस तरह का सिलसिला बना कि दिल्ली से इटावा तक मैं कार से पहुंचाया जाता और उधर लखनउ से नेताजी इटावा आ जाते। कई बार ऐसा संयोग हुआ कि मेरे सिपहसालारों की गाडी देर से पहुंची तो मुलायम वेट कर रहे होते या जब कभी नेताजी अपने समर्थकों के बीच देर हो जाते तो मुझे अपने कई सिपहसालारों के साथ खान पान मिष्ठान के साथ नेताजी का इंतजार करना पड़ता। तीन चार बार सैफई जाने के बाद दो और मौके पर सैफई जाना हुआ तब तक हवाई अड्डा काम करने लगा था। मुझए इनकी दिवंगत पत्नी से भी मिलने का अवसर मिला। नेताजी से तो मैं हमेशा हाथ मिलाता रहा हूं मगर उनकी पत्नी को मैने पैर छूकर प्रणाम किया तो वे भाव विभोर हो गयी। मेरी आयु को देखते हुए उन्होने मेरा हाथ पकड़ा और स्नेह दिखाते हुए बाबू बाबू कहती रही। हमदोनों के वात्सल्य मिलन को देखकर नेताजी ने भी ठहाका लगाते हुए कहा अनामी तुम तो घर में आते ही रसोईघर तक अधिकार बना लिए। मैने फौरन टिप्पणी की इसीलिए तो मैं आपसे इतना करीब होकर भी सपा में नहीं आ रहा हूं केवल घर तक ही हूं नहीं तो आपको खतरा हो जाता। बड़े स्नेहिल माहौल में इनके घर की ज्यादातर महिलाएं बहू भाई भतीजे समेत बहुत सारे लोग मुझे जान गए।
इटावा से सैफई का काफिला एक सुखद सफर होता। क्या मस्त लंबी चौड़ी सड़के औरगांव में एक अति भव्य तालाब मंदिर स्कूल अस्पताल बड़े मकान इमारतों के बीच सैफई वाकई में एक नया आकार गढता गांव लगा। 1993 में सैफई में हवाई पट्टी नहीं बनी थी। 1993 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुलायम ने प्रदेश से ज्यादा केवल अपने गांव और इलाके के लिए किया।
नयी सदी के आरंभ में नेताजी अपने बेटे को लेकर काफी चिंतित थे। एक तरप कांग्रेस के बाबा राहुल गांधी में उस समय काफी जोश । और लगभग यूपी विधानसभा चुनाव की कमान अपने हाथों में थाम कर एक आक्रमक युवा नेता की तरह उभरे बाबा यूपी में काफी लोकप्रियता थे। बाबा को देखकर मुलायक का रक्तचाप हमेशा उपर भागता था कि कि अपना बेटा (गाली देकर) अखिलेश कोई सबक नहीं ले रहा। बेटे को लेकर नेताजी हमेशा दुविधा में रहते थे। .बकौल नेताजी राजनीति बड़ी बदचलन होती है एक बार गोद से निकल गयी तो दोबारा पाना कठिन हो जाता है। मगर लायक नालायक बेटे के प्रलापो के बीच 2012 में चुनावी जंग फतह करने के बाद अंतत खुद सीएम बनने की बजाय बेटे को गद्दी सौंप दी।
पिछले साल मेदांता गुड़गांव में भर्ती नेताजी से काफी समय के बाद मिला। भूलने की गजनी टाईप आदत्त या बीमारी इन पर हावी होता जा रहा है। मेरे को देखकर पहले तो नहीं पहचाना पर मैं पास में बैठकर उनका हाल चाल लेता रहा और एक हाथ को अपने हाथों में ले रखा था। तभी एकाएक खुशी से खिल पड़े। अरे मैं आपको कैसे भूल सकता हूं। आप तो मेरे आड़े समय के दोस्त है। मैने उन्हें खामोश रहने का संकेत किय तो अपनी अक्खड़ शैली में उबल पड़े अरे इन डॉक्टरों का बस चले तो हर आदमी को गूंगा बना दे। अपने सीएम बेटे के परफॉरमेंस पर नेताजी ने संतोष जताया। हंसते हुए बोले कि सरऊ है अहीर और तुम लालाओं जैसा शरीफ शांत और लिहाजी है। इसको तो मैने मांजा है और अब यही सलाह दी है कि प्यार से काम कर मगर दब्बू की छवि से बचना। खैर बेटे के निकम्मेपन से कभी आहत रहने वाले मुलायम को इसकी खुशी है कि बेटे को कोई चूतिया नहीं बना सकता क्योंकि यह सरल है शालीन है मगर अब इसको कोई मूर्ख नहीं बना सकता है। हंसते हुए नेताजी ने कहा कि वो भी राजनीति जान गया है।

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