महामना पं0 मदनमोहन मालवीय / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



पं0 मदनमोहन मालवीय का नाम हिंदी-पत्रकारिता के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने जहां कलाकाँकर के राजा रामपाल सिंह के द्वारा प्रवर्तित दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का कई वर्ष तक सफलतापूर्वक संपादन किया, वहां इलाहाबाद से भी ‘अभ्युदय’ नामक साप्ताहिक प्रकाशित किया था। जिन दिनों वे कालाकाँकर से दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का संपादन करते थे, तब से प्रति सप्ताह प्रयाग भी आते थे और वहां की राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लेते रहते थे। दैनिक ‘हिंदोस्थान’ में उनकी नियुक्ति डेढ़ सौ रूपये मासिक पर हुई थी और पन्द्रह दिनों बाद दो सौ रूपये कर दिये गये थे। जुलाई सन् 1887 में उन्होंने अध्यापन का कार्य छोड़कर यह कार्य प्रारम्भ किया था। बाद में मालवीय जी ने राजा साहब के परामर्श पर ही वकालत पढ़नी आरम्भ की थी और इसके लिए वे मालवीय जी को सौ रूपये मासिक भेजा करते थे। वकालत की पढ़ाई के दिनों में आप पण्डित अयोध्यानाथ के प्रयाग से प्रकाशित होने वाले अंगे्रजी दैनिक ‘इण्डियन ओपीनियन’ में सह संपादक का कार्य किया करते थे। 

मालवीय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर के अहियापुर (अब मालवीय नगर) नामक मोहल्ले में 25 दिसंबर सन् 1861 ई0 को हुआ था। आपके पूर्वज मध्य प्रदेश के ‘मालवा’ नामक क्षेत्र से आकर यहां बसे थे, इसी कारण आपका परिवार ‘मालवीय’ कहलाने लगा था। आपके पिता पंडित ब्रजनाथ जी संस्कृत साहित्य के उदभट विद्वान थे, इसी कारण आपकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘सर्वज्ञानोपदेश संस्कृत पाठशाला’ तथा ‘धर्मवर्द्धिनी सभा’ की पाठशाला में हुई थी। आपने सन् 1897 में मैट्रिक तथा 1884 में म्योर सेण्ट्रल काॅलेज से बी0ए0 की परीक्षा दी थी। पारिवारिक स्थिति ठीक न होने के कारण आपने आगे की पढ़ाई बंद करके स्थानीय गवर्नमेंट स्कूल में 50 रूपये मासिक की नौकरी कर ली थी। अपने छात्र जीवन के प्रारम्भ से ही आपमें समाज तथा साहित्य की सेवा करने की भावनाएं विद्यमान थी, इसलिए आपने इलाहाबाद में ‘लिटरेरी इन्स्टीट्यूट’ (साहित्य सभा) और ‘हिंदू समाज’ नाम संस्थाओं की स्थापना की थी। सन् 1886 ई0 में कांग्रेस का जो दूसरा अधिवेशन दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में कलकत्ता में हुआ था, आप अपने गुरू श्री आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ उसमें सम्मिलित हुए थे और अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक राष्ट्रोद्धार के कार्यो में ही लगे रहे। 

कलकत्ता की इसी कांग्रेस में आपकी निकटता कालाकाँकर (उत्तर प्रदेश) के राजा रामपालसिंह से हुई थी। उन्होंने उन्हीं दिनो अपने यहां से हिंदी का एक दैनिक पत्र ‘हिंदोस्थान’ नाम से निकालना प्रारम्भ किया था। आपकी योग्यता और सत्यनिष्ठा पर मुग्ध होकर उन्होंने आपको अपने इस पत्र का संपादक बनाकर कालाकाँकर बुला लिया। उन दिनों हिंदी के संपादकों को जो वेतन मिला करता था, यह राशि उससे बहुत अधिक थी। मालवीय जी ने हिंदी लेखन का अभ्यास अपने छात्र-जीवन से ही कर लिया था और आप श्री बालकृष्ण भट्ट द्वारा संपादित ‘हिंदी प्रदीप’ में प्रायः लिखा भी करते थे। इस प्रकार दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के संपादक के रूप में मालवीय जी ने अपने कर्ममय जीवन का शुभारम्भ किया और उसमें पर्याप्त सफलता भी अर्जित की। 

आपकी वक्तृत्व शैली और प्रतिभा को देखकर आपके बहुत से मित्रों और गुरूजनों ने आपको वकालत की पढ़ने के लिए प्रेरित किया और संपादन का कार्य करते हुए ही आपने सन् 1891 ई0 में वकालत की परीक्षा पास करके विधिवत वकालत प्रारम्भ कर दी। वकालत करते हुए भी आपका मन देश की दुर्दशा को देखकर तड़प-तड़प उठाता था; फलस्वरूप आपने उसे केवल सार्वजनिक सेवा के कार्य में साधन के रूप में ही अपनाया था। 

देश सेवा की पुनीत भावनाओं के वशीभूत होकर आपने कांग्रेस के सबी अधिवेशनों में सम्मिलित होना प्रारम्भ कर दिया था। उन दिनों आपने अपने भाषणों से कांग्रेस के नेताओ और जनता दोनों को इतना चमत्कृत कर दिया था कि मि0 ह्यूम को कांगे्रस की रिपोर्ट में यह लिखना पड़ा था-‘‘ जिस भाषण के लिए कांगे्रस के अधिवेशन में कई बार तालियाँ बजी और जिसको जनता ने बहुत उत्साह से सुना गया, वह पंण्डित मदनमोहन मालवीय का भाषण था। पण्डित जी की गौरवपूर्ण मूर्ति और हृदयग्राही भाषण ने वहां पर उपस्थित सभी व्यक्तियों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था।’’ इसके बाद से मालवीय जी ने कांग्रेस में रहकर देश का अनेक रूपों में जो नेतृत्व किया, वह स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में अपना विशेष महत्व रखता है।

देश को मालवीय जी की सबसे बड़ी देन काशी का हिंदू विश्वविद्यालय है। सन् 1904 ई0 में उसकी स्थापना के लिए आने अपने मानस में जो स्वप्न संजोया था, उसे मूर्त रूप देने के लिए सन् 1911 में आप एक योजना बनाकर और गले में भिक्षा की झोली डालकर देश-व्यापी दौरे पर घर से निकल पड़े और जन-साधारण से लेकर देश के बड़े से बड़े राजा-महाराजाओं तथा सेठ-साहूकारों के असीम एवं उदारतापूर्ण सहयोग से आपने थोड़े ही दिनों में एक करोड़ रूपयों जमा करके 4 फरवरी 1918 को शुभ मुहूर्त में शास्त्रोक्त रीति से ‘हिंदू विश्वविद्यालय’ की विधिवत स्थापना कर दी। हिंदू विश्वविद्यालय आपकी अटूट आस्था अथक परिश्रम का ज्वलन्त कीर्ति-शिखर है। यदि आपने जीवन में और कुछ भी न किया होता तो भी अकेला ‘हिंदू विश्व विद्यालय’ ही आपके नाम को अमर करने के लिए पर्याप्त था। राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में इतने महत्वपूर्ण कार्य करने के साथ-साथ आपने संस्कृत और साहित्य के उद्धार के लिए भी अपनी प्रतिभा का प्रचुर प्रयोग किया थां आपने जहां हिंदी के व्यापक प्रचार एवं प्रसार के लिए ‘अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना करने के साथ उसके पहले और नवें वार्षिक अधिवेशनों की अध्यक्षता की थी, वहाँ दैनिक ‘हिंदोस्थान’ का संपादन करने के अतिरिक्त आपने सन् 1902 में ‘अभ्युदय’ साप्ताहिक का संपादन-संचालन भी प्रारम्भ किया था और सन् 1910 ई0 में ‘मर्यादा’ नामक मासिक पत्रिका भी निकाली थी। मालवीय जी द्वारा संपादित इन दोनों पत्रों का भी हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। इन पत्रों के अतिरिक्त काशी में ‘सनातन धर्म’ और लाहौर से ‘विश्वबन्धु’ साप्ताहिक भी आपकी प्रेरणा से ही प्रकाशित हुए थे। 

सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में आपने हिंदी के विकास के लिए जहाँ अनेक उपयोगी योजनाएँ आरम्भ की वहां आपने सन् 1900 ई0 में उत्तर प्रदेश की अदालतों में उर्दू के साथ हिंदी को प्रचलित कराने के लिए भी अथक प्रयास किया था। इस संबंध में आपने पश्चिमोत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर को जो प्रतिवेदन दिया था, उसमें अनेक सुस्पष्ट तर्को और आंकड़ों के आधार पर यह सिद्ध किया गया था कि उत्तर प्रदेश में हिंदी ही व्यवहार-योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत की जाने की क्षमता रखती है। आपने लिखा था-‘‘पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध की प्रजा में शिक्षा का फैसला इस समय सबसे आवश्यक कार्य है और गुरूत्तर प्रमाणों में यह सिद्ध किया जा चुका है कि इस कार्य में सफलता तभी प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी दफ्तरों में नागरी अक्षर जारी किये जायेंगे। अतएव अब इस शुभ कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिए।’’ आपके इस सत्यप्रयास से ही हिंदी का प्रचल उत्तर प्रदेश की अदालतों में हुआ था। आपका जहाँ ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना में अभूतपूर्व योगदान था, वहाँ ‘नागरी प्रचारिणी सभा’की स्थापना में भी सन् 1893 ई0 में आपने पूर्ण सहयोग दिया था। उच्च शिक्षा के माध्यम के लिए हिंदी ग्रन्थों के प्रकाशन-कार्य को कार्य आगे बढ़ाने की दृष्टि से आपने ‘हिंदू विश्वविद्यालय’ में हिंदी प्रकाशन मण्डल की स्थापना भी कराई थी। 

यह बात कदाचित् हमारे अनेक पाठकों को मालूम ही न होगी कि मालवीय जी हिंदी के उच्चकोटि के पत्रकार तथा लेखक होने के साथ-साथ सहृदय कवि भी थे। आपने ‘मकरन्द’ उपनाम से ब्रजभाषा में इतनी सुन्दर रचनाएँ की है कि उनको देखकर आपकी काव्य-प्रतिभा का स्पष्ट आभास हो जाता है। आपकी वे कविताएँ हिंदी के प्राचीन रससिद्ध कवियों की रचनाओं से किसी भी दृष्टि से कम महत्व नहीं रखती। केवल 14 वर्ष की आयु में श्रंगार रस के संबंध में लिख गया आपका यह दोहा उनकी काव्य-प्रतिभा की उदात्तता का प्रमाण प्रस्तुत करता हैः

ग्रह रस ऐसो हो बुरो, मन को देत बिगारि।

या के पास न जाइए, जब लों होय अनारि।। 

ब्रज भाषा के सवैये लिखने में आपने जो सिद्धि प्राप्त की हुई थी, वह सर्वथा अनुपम कही जा सकती है। आपके सवैये ‘घनानन्द’ के समकक्ष ठछहरने की क्षमता रखते है। उदाहरणार्थ एक सवैया इस प्रकार हैः

इन्दु सुधा बरस्यो नलिनीन पै, वे न बिना रवि के हरषानी।

त्यों रवि तेज दिखायो तऊ, बिनु इन्दु कुमोदिनी ना बिकसानी।।

न्यारी रवि कहूँ यह प्रीति की रीति, नहीं ‘मकरन्दजू जात बखानी।

साँवरे कामरी वारे गोपाल पै, रीझि लटू भई राधिाका रानी।। 

आप जहाँ हिंदी के उत्कृष्ट कवि थे, वहाँ उर्दू में भी ‘मदनमोहन’ नाम से रचनाएँ किया करते थे। संस्कृत की रचना करने में भी वे बहुत प्रवीण थे। आपकी संस्कृत तथा हिंदी रचनाएँ काशी से प्रकाशित होने वाले ‘सनातन धर्म’ पत्र में प्रकाशित होती रहती थी। आपकी राष्ट्रभाषा हिंदी तथा साहित्य संबंधी सेवाओं को दृष्टि में रखकर अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन ने आपको ‘साहित्य वाचस्पति’ की सम्मानित उपाधि प्रदान की थी। आपका निधन 12 नवम्बर, सन् 1946 ईस्वी को हुआ था। 

आप जहाँ उच्चकोटि के पत्रकार और हिंदी के प्रबल समर्थक थे, वहाँ राजनीति के क्षेत्र में आपकी देन कम महत्वपूर्ण नहीं थी। आपने विभिन्न राष्ट्रीय आन्दोलनों में देश की जनता की जो सेवा की, वह सर्वथा अभिनन्दनीय एवं अनुकरणीय रही है।सन् 1931 में लन्दन में आयोजित ‘गोलमेज कान्फ्रेंस’ में सम्मिलित होकर आपने जिस प्रकार महात्मा गांधी जी का समर्थन किया था, उससे आपकी देश-भक्ति, त्याग और राष्ट्र के आदर्शो के प्रति दृढ़ निष्ठा का सम्यक् परिचय मिलता है। आपने सन् 1924 से सन् 1924 से 1930 तक ‘केन्द्रीय असेम्बली’ में रहकर अपनी वक्तृत्व-कला से भारत की वाणी का जो ओज प्रदर्शन किया था, वह अभूतपूर्व था। यह आपके त्याग का ही एक अनुपम तथा अनन्यतम उदाहरण है कि अच्छी-खासी चलती हुई वकालत को छोड़कर आप देश-सेवा के इस महायद्य के अद्वितीय अध्वर्यु बने थे।


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