श्री प्रतापनारायण मिश्र / क्षेमचंद्र ‘सुमन’



श्री मिश्र जी आधुनिक हिंदी के उन पत्रकारों में थे जिन्होंने हिंदी गद्य और पद्य दोनों को सर्वथा नया संस्कार दिया था। अपने गद्य में सहज सुबोधता लाने के लिए उन्होंने जहाँ देशज शब्दों का प्रयोग किया था, वहाँ उर्दू, फारसी के शब्दों को भी उदारतापूर्वक प्रयुक्त किया था। जबकि राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद हिंदी में उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग करने के पक्षपाती थे, तब श्री मिश्र जी ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करते थे जिनसे हिंदी गद्य को एक विशिष्ट शैली में ढाला जा सके। वे वास्तव में समन्वयवादी थे। यद्यपि श्री मिश्र जी के निबन्धों में संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के शब्दों का प्रयोग कम ही हुआ है, फिर भी जहाँ वे प्रयुक्त किये गए है, वे हिंदी की प्रकृति में रचे-पचे मिलते है। भारतेन्दु-मण्डल के अकेले वे ही ऐसे लेखक थे, जिनकी भाषा प्रवाहपूर्ण और फड़कती हुई दिखाई देती है। प्रतापनारायण मिश्र प्रायः ‘वह’ को ‘वुह’, ‘पृथक’ को ‘प्रथक’, ‘पतिव्रता’ को ‘पतिवृता’, ‘प्रश्न’ को ‘प्रष्ण’, ‘लेखनी’ को ‘लेखणी’ ‘ऋषि’ को ‘रिषि’ और ‘ऋचा’ को ‘रिचा’ लिखा करते थे। इन सब कमियों के बावजूद आपका गद्य सर्वथा स्वाभाविक, खरा तथा प्रभावशाली होता था। 

आपका जन्म उत्तरप्रदेश के उन्नाव जनपद के बेजेगाँव नामक ग्राम में, 27 सितम्बर, 1856 को हुआ था। आपके पिता पण्डित संकटाप्रसाद कात्यायन गोत्रीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और उस क्षेत्र में ‘ज्योतिषी जी’ के नाम से जाने जाते थे। क्योंकि  अपने ज्योतिष-संबंधी कार्य के प्रसंग में उनके पिता कानपुर के नौधरा नामक मौहल्ले में आकर रहने लगे थे, अतः आप भी उनके साथ वहाँ चले आए थे। यद्यपि आपके पिता की इच्छा आपको ज्योतिष शास्त्र में प्रवीण करने की थी, किंतु अपने मस्त-मौला स्वभाव के कारण आपकी रूचि उस ओर नहीं हुई। परिणामस्वरूप आपको एक अंग्रेजी स्कूल में भरती करा दिया गया। वहाँ जाकर भी आप पढ़ाई-लिखाई से विमुख रहे और जब आप केवल 18 या 19 वर्ष के ही रहे होंगे कि आपके पिताजी का देहावसान हो गया। इस घटना से आपका मन पढ़ाई से बिल्कुल उचट गया और आपने अपना पिण्ड स्कूल से सर्वथा छुड़ा लिया। 

यद्यपि आपकी शिक्षा अधूरी ही रह गयी थी, किंतु फिर भी आपने अपने अध्यवसाय तथा लगन से हिंदी, उर्दू तथा बंगला भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी में भी पर्याप्त योग्यता अर्जित कर ली थी। इन भाषाओं के आपके ज्ञान के विषय में सन् 1907 में ‘भारतमित्र’ में उसके संपादक श्री बालमुकुन्द गुप्त ने आपका जो जीवन परिचय प्रकाशित किया था, उसमें यह स्पष्ट लिखा था कि इन सभी भाषाओं में आप धारा प्रवाह रूप से बोल लेते थें क्योंकि आप छात्रावस्था में ‘कवि वचन-सुधा’ का नियमित रूप से पारायण किया करते थे, इसलिए आपका झुकाव साहित्य की ओर हो गया था। प्रारम्भ में आप कानपुर के लावनीबाजों के अखाड़ों में जाया करते थे। इस संपर्क के कारण ही पहले-पहल आपने हिंदी में लावनियाँ लिखनी प्रारम्भ की थी, कभी-कभी उर्दू तथा फारसी में नज्में भी लिख लिया करते थे। आप स्वभाव में मस्त, निर्भीक और दबंग थे। आपकी यह मस्ती आपकी रचनाओं में भी दृष्टिगत होती है। 

आप कोरे साहित्यकार ही नहीं थे, प्रत्युत कानपुर की अनेक सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से भी जुड़े रहते थे। यहाँ तक कि कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में आप कानपुर के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए थे। आपने एक बार कानपुर में ‘पारसी थियेट्रिकल कम्पनी’ के विरूद्ध विशुद्ध हिंदी का रंगमंच स्थापित करने का भी प्रयास किया था। आप स्वयं भी नाटकों में अभिनय करने की कला में पूर्णतः दक्ष थे। एक बार तो आपने स्त्री पात्रों का अभिनय करने के निमित्त अपने पिताजी से मूंछ मुंडवाने की अनुमति भी माँगी थी। 

इसी प्रकार ‘खड्गविलास प्रेस ‘पटना’ के बाबू रामदीनसिंह ने जब बाँकीपुर में भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र द्वारा लिखित ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक का मंचन किया था तब उसमें भारतेन्दु बाबू ने ‘हरिश्चंद्र’ और मिश्र जी ने ‘रोहिताश्व’ का अभिनय अत्यन्त कुशलता से किया था। सन् 1882 के आस-पास आपने भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की पत्रिका ‘कवि-वचन-सुधा’ में अपने सरस कवित्त और सवैये भी प्रकाशित कराए थे। सन् 1883 में जब आपकी ऐसी रचनाओं का प्रथम संकलन ‘प्रेम पुष्पावली’ नाम से प्रकाशित हुआ था, तब भारतेन्दु ने उसकी बहुत प्रशंसा की थी। आपकी रचनाओं का मूल स्वर मुख्यतः भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का ही होता था। कभी-कभी आप अपनी राष्ट्रीय रचनाओं में ऐसा तीख व्यंग करते थे कि उसे पढ़कर पाठक तिलमिला जाता था। अंग्रेजी राज्य की प्रजा-हितैषिता की थोथी भावनाओं के प्रति व्यंग करते हुए एक बार आपने यहां तक लिख दिया थाः

जिन धन धरती हरी, सो करि है कौन भलाई।

बंदर काके मीत, कलन्दर केहिके भाई।।

सब धन लिहै जात अंग्रेज,

हम केवल लैक्चर में तेज।। 

कांग्रेस की राजनीति में जब एक बार उदारवादियों का स्वर प्रखरता से उभरा था, तब भी आप चुप नहीं रह सके थे और समझौतावादियों के प्रति व्यंग करते हुए आपने यहां तक लिख दिया था। 

पढ़ि कमाय कीन्हों कहा, हरे न देस कलेस।

जैसे कन्ता घर रहे, वैसे रहे बिदेस।।

मिश्र जी इतने विनोदी स्वभाव के थे कि अपने दैनिक जीवन में भी आप फब्तियां कसने में नहीं चूकते थे। एक बार कानपुर के जनरलगंज मोहल्ले में एक पादरी में अपने भाषण में हिंदुओं को सम्बोधित करते हुए यह कहा कि ‘‘गाय तुम्हारी माँ है, बैल तुम्हारा पिता हुआ। लेकिन मैंने बैल को गन्दी नालियों का पानी पीते हुए देखा है।’’ इस पर भीड़ में से भाषण सुनने वाले मिश्र जी ने तत्काल उत्तर दिया-‘‘ वह ईसाई हो गया होगा।’’ आपके इस उत्तर को सुनकर उपस्थित श्रोताओं में हंसी का फव्वारा फूट पड़ा था और पादरी साहब पर घड़ो पानी पड़ गया था। 

आप जहां उच्चकोटि के कवि, वक्ता और अभिनेता थे, वहाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आपका सर्वथा विशिष्ट स्थान था। आपके द्वारा 15 मार्च सन् 1883 को संपादित एवं प्रकाशित ‘ब्राह्मण’ नामक पत्र आपकी ऐसी कला का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करता है। आपने अपना यह पत्र सन् 1893 तक भयंकर आर्थिक कष्ट उठाकर भी संचालित किया था। जब आपने गहन अर्थ-संकट के कारण उसका प्रकाशन बंद कर दिया तो कुछ दिन तक ‘खड्ग’-विलास प्रेस, पटना’ के बाबू रामदीन सिंह ने भी इसका प्रकाशन किया था। इस पत्र के माध्यम से आपने सशक्त व्यंग-लेखन की जो परम्परा चलाई थी, वह सर्वथा अनूठी और अद्भुत थी। अपने लेखन की सजीवता , सादगी , बांकपन और फक्कड़पन से आपने हिंदी-गद्य का जो श्रंगार किया था, उससे उन दिनों के अनेक लेखक प्रभावित हुए थे। जब आपको ‘ब्राह्मण’ के ग्राहक अपना चन्दा समय पर नहीं भेजते थे तो विवश होकर आपको अपनी व्यंगपूर्ण शैली में यह लिखना पड़ा था।

आठ मास बीते जजमान

कुछ तो करो दच्छिना दान, हरि गंगा।

आज कल जो रूपया देब,

मानो कोटि यज्ञ करि लेब, हरि गंगा।

कविताओ की भाँति आपकी गद्य शैली भी बड़ी चुटीली थी। आपके ‘‘दांत’ ‘बुढ़ापा’ ‘मोह’ ‘बाँह’, ‘मुच्छ’ ‘परीक्षा’, ‘ट’ और ‘द’ शीर्षक निबन्धों में आपकी गद्य शैली के विभिन्न आयामों का परिचय मिलता है। ‘ब्राह्मण’ के माध्यम से आपने जहाँ कविता में नया निखार प्रस्तुत किया था, वहाँ गद्य के क्षेत्र में भी अपकी प्रमुख देन है। 

‘ब्राह्मण’ के अतिरिक्त आपने महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय के अनुरोध पर सन् 1889 में केवल 25 रूपये मासिक पर कालाकाँकर (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होने वाले राजा रामपाल सिंह के दैनिक पत्र ‘हिंदोस्थान’ से प्रकाशित होने वाले राजा रामपाल सिंह के दैनिक पत्र ‘हिंदोस्थान’ में भी कुछ समय तक सहकारी संपादक का काम किया था। उन दिनों मालवीय जी वहां पर प्रधान संपादक थे। वहां से वापिस लौटने पर आपने कानपुर में सन् 1891 में ‘रसिक समाज’ की स्थापना करके वहां के साहित्यिक जागरण में भी उल्लेखनीय योगदान दिया था। आपने अनेक साहित्यिक, राजनीतिक प्रवृत्तियों में सक्रिय रूप से जुड़े रहने के अतिरिक्त कानपुर नगर में ‘भारत धर्म महामण्डल’, ‘धर्म सभा’ तथा ‘गौरक्षिणी सभा’ आदि कई संस्थाओं की स्थापना में ीाी ीाारी सहायता की थी। आप भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की भाॅति ही ‘हिंदी, हिंदू, हिंदोस्थान’ के समर्थक थे। यद्यपि आपने बहुत थोड़ा जीवन पाया था, फिर भी आपने हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि के लिए अपनी रचनात्मक प्रतिभा से एक सर्वथा विशिष्ट भावभूमि प्रस्तुत की थी। यही यह भी उल्लेखनीय है किः

पितु मातु सहायक स्वामी सखा

तुम ही इक नाथ हमारे हो।

तथा

शरणागत पाल कृपाल प्रभो

हमको इक आस तुम्हारी है।

जैसी प्रार्थनाओं के लेखक आप ही थे। 

कविता और गद्य लेखन में अपनी अनूठी शैली का प्रदर्शन करने के अतिरिक्त अभिनय-कला में भी आपने नये मानदण्ड स्थापित किये थे। पत्रकारिता और राजनीति में भी आपका व्यक्तित्व बिल्कुल बेजोड़ और निराला था। आपकी समाज-सुधार की भावनाएँ आपकी प्रायः सभी रचनाओं में स्पष्टतः प्रतिबिम्बित होती थी। आपकी प्रमुख रचनाओं की तालिका इस प्रकार हैः ‘चरिताष्टक’ ‘तृप्यन्ताम्’ ‘पंचामृत’ ‘मन की लहर’ ‘मानस विनोद’ ‘लोकोक्ति शतक’ ‘कवि कौतुक’ ‘भारत दुर्दशा’ ‘कथा माला’ ‘विक्रमादित्य’ ‘होली है। ‘निबन्ध नवनीत,’ ‘सुचाल शिक्षा’ ‘बोधोदय’, शैव सर्वस्व, गो संकट’, कलि प्रभाव’ ‘हठी हमीर’ जुआरी रघुआरी’, नीति रत्नावली’, ‘सेन वंश का इतिहास’, ‘सूबे बंगाल का भूगोल’, ‘वर्ण परिचय’, ‘शिशु विज्ञान’, ‘राज सिंह’, ‘इन्दिरा’ ‘राधा रानी’, ‘युगलांगुलीय’, ‘प्रेम पुष्पावली’, ‘ब्रैडला स्वागत’, ‘दंगल खण्ड’, ‘कानपुर साहित्य’ तथा श्रंगार विलास’ आदि। आपकी उर्दू में भी ‘दीवाने बरहमन’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। आपकी सभी गद्य-रचनाओं का संकलन ‘प्रतापनारायण ग्रन्थावली’ नाम से ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ की ओर से प्रकाशित हुआ है, जिसका संपादन श्री विजयशंकर मल्ल ने किया है। आपने ‘प्रताप चरित्र’ नाम से अपना एक आत्म-चरित भी ‘ब्राह्मण’ में निकालना प्रारम्भ किया था। खेद का विषय है कि यह अधूरा ही रह गया था। आप सन् 1892 के अन्त में गम्भीर रूप से बीमार पड़े थे और केवल 38 वर्ष की आयु में आपका निधन 6 जुलाई, 1894 को हुआ था। 

समाज-सुधार के प्रति मिश्र जी को कितनी आस्था थी, इसका परिचय उनके पत्र ‘ब्राह्मण’ के अनेक संपादकीय लेखों को देखने से सहज ही में मिल जाता है। 15 मई, 1883 के अपने ‘बेगार’ शीर्षक एक लेख में उन्होंने जो भावनाएँ व्यक्त की थी, उनसे हमारे आज के पत्रकार भी सबक ग्रहण कर सकते है। उन्होंने लिखा था-‘‘ जब हम अपने कत्र्तव्य पर दृष्टि करते है तो एक पहाड़ सा दिखाई पड़ता है।सहस्रो विषय विचारणीय है, किस-किस पर लिखें और यदि लिखें भी तो यह आशा बहुत कम है कि कोई हमारी सुनेगा, परंतु करें क्या? काम तो यह उठाया है। यदि अपने ग्राहकों को यह समाचार दे कि अब गर्मी बहुत पड़ने लगी या फलाने लाला साहब की बारात बहुत धूम से उठी या हमारे जिले के मजिस्ट्रेट तहसीलदार साहब और कोतवाल साहब इत्यादि धर्म और न्याय के रूप ही है तो हमारा पत्र तो मर जायेगा, पर किसी जीव का कुछ लाभ न होगा। और यदि सच-सच यह असहृ दुख दिखाई देगा, पर जिनके हाथों वह असहृ दुख हमको प्राप्त होते है, वह हम पर क्रुद्ध होंगे। यही डर लगता है कि कहीं नमाज के बदले रोजे न गले पड़े। परंतु हम भिखमंगे नहीं कि केवल ग्राहकों की खुशामद का ख्याल रखें। हम भाट नहीं कि बड़े आदमियों और राजपुरूषों की निरी झूठी स्तुति गाया करें। जो हो सो हो, हम ब्राह्मण है, इससे हमारा धर्म नष्ट होता है और हम पतित हुए जाते है। जो अत्यन्त दीन और असमर्थ देश भाइयों पर अत्याचार होते सैकड़ों मनुष्यों से सुने और फिर उसे सर्वसाधारण व सरकार पर विदित न करें।’’

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्रो. ऋषभदेव शर्मा के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ ‘धूप के अक्षर’ का लोकार्पण

हैदराबाद,  दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (उच्च शिक्षा और शोध संस्थान) तथा ‘साहित्य मंथन’ के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 4 जुलाई (सोमवार) को द...