किसानों और मजदूरों के मसीहा थे स्वामी सहजानंद सरस्वती

 


दिव्येन्दु राय

आज 26 जून 2021 को किसानों तथा मजदूरों के मसीहा दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी को गये 71 साल हो गए। 26 जून 1950 में उन्होंने बिहार के मुजफ्फरपुर में अपने प्राण त्यागे थे। उनके निधन पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि आज दलितों का संन्यासी चला गया।

बनारस से ट्रेन से मऊ जाते समय रास्ते में एक छोटा सा रेलवे स्टेशन पड़ता है दुल्लहपुर, यह उसी गॉव देवा का स्टेशन है जिस गॉव में महाशिवरात्रि के दिन ऐसे एक संन्यासी का अवतरण हुआ, जो भगवान शिव का भक्त था, शंकराचार्य की परंपरा वाले दशनामी संन्यासियों की जमात में दीक्षित, लेकिन जिसने बाद में किसानों को ही भगवान कहा और रोटी को भगवान से भी बड़ी बताया। 

हम बात कर रहे हैं स्वामी सहजानंद सरस्वती की, जिनको पूरा भारत आजादी की लड़ाई का अग्रणी सेनानी और भारत में संगठित किसान आंदोलन का जनक मानता है। उस स्वामी सहजानंद की यादों से जुड़े कई गांव और स्थान पुराने भोजपुर जिले में हैं, जहां स्वामीजी आते थे, ठहरते थे और किसान आंदोलन के दौरान वहीं से अपना आंदोलन चलाते थे। स्वामी सहजानंद के नाम पर भोजपुर में कई विद्यालय, दो महाविद्यालय, स्मारक और पुस्तकालय, वाचनालय आज भी उनकी स्मृतियों की लौ जलाए हुए हैं और लोगों को प्रेरणा देने का काम कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गांव देवा में महाशिवरात्रि के दिन 1889 में सहजानंद सरस्वती का जन्म हुआ। पिता बेनी राय साधारण किसान थे। मां का छाया बचपन में ही उठ गया। लालन-पालन चाची ने किया। तब कौन जानता था कि बालक नौरंग राय आगे चलकर एक शाश्वत विद्रोही संन्यासी बनेगा। पूर्व जन्म के संस्कारों ने बचपन में सांसारिक मोह-माया से विरक्ति का भाव इतना प्रबल किया कि वे दंडी संन्यासी बन गये। बचपन से ही मेधावी छात्र रहे नौरंग राय के युवा मन में विद्रोह की पहली चिंगारी तभी फूटी जब घर वालों ने जबरन शादी करा दी थी और साल भर के भीतर पत्नी के स्वर्गवास के बाद दोबारा शादी की जुगत में लगे थे। स्वामीजी ने परिवार, रिश्तेदार और समाज की परवाह किये बिना शादी से मना कर दिया और चुपके से भागकर काशी चले गये। वहां दशनाम संन्यासी से दीक्षा लेकर दंडी स्वामी बन गये। लेकिन धर्म-कर्म के पाखंड ने उनका वहां से भी उनका मन उचाट दिया।

देश की तत्कालीन परिस्थितियों को देख गांधीजी के कहने पर 1920 में स्वामी सहजानंद आजादी की लड़ाई में कूदे पड़े। बिहार को अपने आंदोलन का केन्द्र बनाया। इस दौरान गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, फैजाबाद और लखनऊ जेल उनका ठिकाना बना। कुछ समय पटना के बांकीपुर जेल और लगभग दो साल हजारीबाग केन्द्रीय कारा में सश्रम कारावास की सजा झेली। लेकिन कारावास के दौरान गांधीजी के सुविधाभोगी चेलों की करतूतों को निकट से देखने और गांधीजी का जमींदारों के प्रति नरम रुख को देख बिदक गये। बिहार में 1934 के भूकंप से तबाह किसानों को मालगुजारी में राहत दिलाने की बात को लेकर गांधीजी से उनकी अनबन हो गयी। एक झटके में ही कांग्रेस से से अलग होकर किसानों के लिए जीने और मरने का संकल्प ले लिया।

किसान आंदोलन को बनाया जीवन का लक्ष्य

स्वामी सहजानंद ऐसे युगपुरुष संन्यासी रहे, जिसने अपना जीवन देश की आजादी और किसानों की भलाई के लिए होम कर दिया। परमार्थ चिंतन के परंपरागत मूल्यों से एकाकार होते हुए उन्होंने उस समाज में भगवान का दर्शन किया, जिसे हम किसान कहते हैं। किसानों की भलाई औऱ उनको शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने अपने आप को समर्पित कर देते हैं। बिहार में आजादी की लड़ाई के दौरान भ्रमण करते हुए स्वामीजी ने देखा कि बड़ी संख्या में लघु-सीमांत किसान अपनी ही जाति के जमींदारों के शोषण और दोहन के शिकार हैं। उनकी स्थिति गुलामों से भी बदतर है।

विद्रोही सहजानंद ने अपनी ही जाति के जमींदारों यानी भूमिहारों के खिलाफ ‘लट्ठ’ उठा लिया और आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी। उन्होंने देशभर में घूम घूमकर किसानों की रैलियां की। स्वामीजी के नेतृत्व में सन् 1936 से लेकर 1939 तक बिहार में कई लड़ाईयां किसानों ने लड़ीं। इस दौरान जमींदारों और सरकार के साथ उनकी छोटी-मोटी सैकड़ों भिड़न्तें भी हुई। उनमें बड़हिया, रेवड़ा और मझियावां के बकाश्त सत्याग्रह ऐतिहासिक हैं। इस कारण बिहार के किसान सभा की पूरे देश में प्रसिद्धि हुई। दस्तावेज बताते हैं कि स्वामीजी की किसान सभाओं में जुटने वाली भीड़ तब कांग्रेस की रैलियों से ज्यादा होती थी। किसान सभा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर दो लाख पचास हजार हो गयी।

इतिहास साक्षी है कि सहजानंद सरस्वती ने ही भारत में पहली बार किसानों का संगठित आंदोलन शुरू किया और उसे अखिल भारतीय स्वरुप दिया। किसानों को भगवान मानने वाले जननायक दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती आजीवन त्याग और संघर्ष की प्रतिमूर्ति बने रहे। उन्होंने जमींदारी प्रथा के खिलाफ जिस आंदोलन की शुरुआत की कालांतर में वहीं किसान आंदोलन बिहार से जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का आधार बना। जब बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कानून बनाकर जमींदारी प्रथा खत्म कर दी, जबकि श्रीकृष्ण सिंह खुद भूमिहार जाति से ताल्लुक़ रखते थे एवं जमींदार थे।

स्वामी सहजानंद सरस्वती का एक नारा, जो किसान आंदोलन के दौरान चर्चित हुआ-

‘जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो कानून बनायेगा।

यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन भी वहीं चलायेगा।'

किसान आंदोलन में मन- प्राण से जुटे स्वामी सहजानंद की नेताजी सुभाषचंद्र बोस से निकटता रही। दोनों ने साथ मिलकर समझौता विरोधी कई रैलियां की। स्वामीजी फारवॉर्ड ब्लॉक से भी निकट रहे। एक बार जब स्वामीजी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया। सीपीआई जैसी वामपंथी पार्टियां भी स्वामीजी को वैचारिक दृष्टि से अपने करीब मानती रहीं। यह स्वामीजी का प्रभामंडल ही था कि तब के समाजवादी और कांग्रेस के पुराने शीर्ष नेता मसलन- एमजी रंगा, ईएमएस नंबूदरीपाद, पंडित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुनाकार्यी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी सुंदरैया, भीष्म सहनी, बाबा नागार्जुन, बंकिमचंद्र मुखर्जी जैसे तब के नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे।

स्वामी सहजानंद उस दौर में असहमतियों की आवाज थे। जहां कहीं भी गलत देखा तुरंत आंदोलन पर उतारु हो गये। परिणाम की चिंता नहीं की। जिस जाति में जन्में और जिस जाति के स्वाभिमान जगाने के लिए वर्षों तक काम किया, उसी जाति के जमींदारों के खिलाफ लठ उठा ली। मेरा जीवन संघर्ष नामक जीवनी में उन्होंने कई प्रसंगों की चर्चा की है। उनको स्वजातीय लोगों की स्वार्थपरायणता से काफी पीड़ा मिली। एक बार तो बिहार के बेहद प्रभावी नेता सर गणेशदत्त के चालाकी भरे वर्ताव से स्वामीजी इतने दुखी हुए कि उनसे सारा संबंध तोड़ लिया और जब मुंगेर में जातीय सम्मेलन कर सर गणेशदत्त को सभापति चुनने की कोशिश हुई तो स्वामीजी ने भूमिहार-ब्राह्मण महासभा को सदा के लिए भंग कर दिया। यह सन् 1929 की बात है।

स्वामी जी का जीवन संघर्ष और सृजन को समर्पित रहा। जब जेल में रहते तो नियमित तौर पर गीता के पठन-पाठन का काम करते। साथी कैदियों की प्रार्थना पर उन्होंने जेल में गीता भी पढ़ाई। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के अलावे किसान कैसे लड़ते हैं, क्रांति और संयुक्त मोर्चा, किसान-सभा के संस्मरण, खेत-मजदूर, झारखंड के किसान और गीता ह्रदय नामक छह पुस्तकें लिखी।

स्वामीजी ने दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिसमें सामाजिक व्यवस्था पर भूमिहार-ब्राह्मण परिचय, झूठा भय-मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, ब्राह्मण समाज की स्थिति आदि। उनकी आजादी की लड़ाई और किसान संघर्षों की दास्तान- किसान सभा के संस्मरण, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी, अब क्या हो, गया जिले में सवा मास आदि पुस्तकों में दर्ज है। उन्होंने श्रीमदभागवद का भाष्य ‘गीता ह्रदय’ नाम से लिखा।

भोजपुर में स्वामी सहजानंद जीवंत हैं

तत्कालिन भोजपुर जिले के सिमरी (अब बक्सर) और गाजीपुर के विश्वम्भरपुर गांव में रहकर उन्होंने आजादी की लौ को गांवों-किसानों तक पहुंचाया। सिमरी गांव में स्वामी जी द्वारा स्थापित पुस्तकालय आज भी है। उनके नाम पर यहां कॉलेज भी चलता है, जिसे उनके सहयोगी ने पंडित सूरज नारायण शर्मा ने स्थापित किया था। आरा का सहजानंद ब्रह्मर्षि कॉलेज अंगीभूत कॉलेज है, जबकि पकड़ी मोहल्ले में उनके नाम पर सरकारी हाई स्कूल है। आरा के ही पीरबाबा मोड़ के समीप सरकार द्वारा दी गयी जमीन पर ब्रह्मर्षि सहजानंद सरस्वती का स्मारक है जहां पुस्तकालय और वाचनालय चलता है। उनके गृह जनपद गाजीपुर से लगायत आज़मगढ़, मऊ एवं देश के कई प्रान्तों में उसके विचारों को आत्मसात करने वालों ने उनके नाम से शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की है। पटना से सटे बिहटा के पास सीताराम आश्रम स्थापित कर असहयोग आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक में स्वामी जी ने भाग लिया था।

आज स्वामी सहजानन्द सरस्वती के 71 वें महाप्रयाण दिवस पर देश में किसानों की जो स्थिति है, यह किसी से छिपी हुई नहीं है। किसानी का धंधा घाटे का सौदा हो गया है। किसान आंदोलन पर हैं, लेकिन उनकी आवाज सत्ता में बैठे लोगों को झकझोर नहीं पा रही है। कल्पना करिये कि आज स्वामी जी होते तो क्या चुप बैठते? नहीं, वे सत्ता में बैठे हुक्मरानों की नींद हराम कर दिये होते। उनके जीते-जी किसानों की ये स्थिति नहीं होती। किसानों को शोषण से मुक्त कराने और जमींदारी प्रथा की खात्मा के लिए संघर्ष करते हुए 26 जून 1950 को स्वामी जी बिहार के मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गये। सच पूछिए तो स्वामीजी के महाप्रयाण करने के साथ ही न केवल संगठित किसान आंदोलन का सूरज अस्त हुआ बल्कि उनका सबसे बड़ा रहनुमा भी चला गया, जो किसानों को केवल हक नहीं, बल्कि उनके हाथों में शासन की बागडोर सौंपने का हिमायती था। 


- स्वतन्त्र टिप्पणीकार, राजनीतिक विश्लेषक

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