कलकत्ता के आदियुगीन हिंदी पत्रकारों में पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र का नाम सर्वाग्रणी है। ‘भारत मित्र’ तथा ‘उचित वक्ता’ के संपादन द्वारा उन्होंने हिंदी में पत्रकारिता के जो मानदण्ड स्थापित किये थे, वे सर्वथा अप्रतिम और अनूठे थे। वास्तव में आपने अपने इष्ट मित्रों-सर्व श्री छोटूलाल मिश्र, सदानन्द मिश्र और गोविन्दनारायण मिश्र- के साथ ही इस कार्य को अपनाया था। ये सभी सज्जन उनके भाई-बन्धु सारस्वत ब्राह्मण थे और सभी ने अपनी-अपनी शक्ति तथा सामथ्र्य के अनुसार पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी है। श्री अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ने यह सही ही लिखा है कि-‘‘मिश्र जी समाचार-पत्र प्रकाशन से कुछ कमाया नीं, बल्कि उल्टे घर के घान फ्याल में मिलाये। परंतु उनको इस काम का शौक था, नशा था, इसलिए कुछ ऊटक-नाटक किया ही करते थे।’’
श्री मिश्र जी का जन्म साँवानगर (जम्मू-कश्मीर) में 31 अक्टूबर, सन् 1859 ईस्वी को हुआ था। आपके पिता पं0 घसीटाराम मिश्र व्यवसाय के सिलसिले में कलकत्ता में जाकर स्थायी रूप से रहने लगे थे और वहीं पर आपका सारा जीवन व्यतीत हुआ था। आपने हिंदी, डोगरी और बंगला भाषा का ज्ञान घर पर ही प्राप्त करके संस्कृत का अध्ययन काशी में किया था। अंग्रेजी आपने कलकत्ता के नार्मल स्कूल में सीखी थी। पहले-पहल आप दलाली का कार्य करते थे, परंतु बाद में पूर्णतः पत्रकारिता को ही अपना लिया था। काशी की ‘कवि वचन-सुधा’ नामक पत्रिका के संवाददाता के रूप में आपने यह कार्य प्रारम्भ किया था और फिर 17 मई सन् 1878 ई0 से पूर्णतः पत्रकार बन गए। आपने अपने जाति भाई श्री छोटूलाल मिश्र के साथ मिलकर ‘भारत मित्र’ नामक एक पाक्षिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। इस पत्र में संपादक के रूप में श्री छोटूलाल मिश्र का नाम छपता था और दुर्गाप्रसाद मिश्र इसके प्रबन्धक थे। धीरे-धीरे अपने दसवें अंक से यह पत्र ‘साप्ताहिक’ हो गया और साल भर में इसने अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। इसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि इसमें अखिल भारतीय समाचार छपा करते थे। इसके 22 जून सन् 1879 ई0 के अंक में श्री राधाचरण गोस्वामी का इदस आशय का एक पत्र भी छपा था कि स्वामी दयानन्द सरस्वती से वेद-विद्या का ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व कुछ समय तक आप पटना से प्रकाशित होने वाले ‘बिहार बन्धु’ के भी सहायक संपादक रहे थे।
जब आर्थिक कठिनाइयों के कारण ‘भारत मित्र’ के प्रकाशन का भार आप लोगों ने ‘भारत मित्र सभा’ को सौंप दिया तब आपने पंडित सदानन्द मिश्र के सहयोग से ‘सार सुधानिधि’ नामक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। इसके उपरान्त आपने सेठ रूड़मल गोयनका के आर्थिक सहयोग से सन् 1906 में प्रकाशित ‘मारवाड़ी बन्धु’ का भी संपादन किया था। अपनी जन्म-भूमि जम्मू व कश्मीर के प्रति भी आपके मानस में बहुत अनुराग था। अतः कुछ दिन आपने तत्कालीन कश्मीर नरेश महाराज रणवीर सिंह के अनुरोध पर जम्मू में रहकर वहाँ से ‘जम्बू प्रकाश’ नामक पत्र भी प्रारम्भ किया था। परंतु जब आपकी अस्वस्थता के कारण वह पत्र चल न सका तब आप फिर कलकत्ता लौट गए और ‘उचित वक्ता’ के संचालन-संपादन में ही अपना सहयोग देने लगे। महाराजा रणवीर सिंह के देहावसान के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी नरेश ने आपको फिर कश्मीर बुलाकर अपने राज्य के शिक्षा विभाग में उच्च अधिकारी बनाया था। किंतु आपको जब यह कार्य भी रास न आया तो आप फिर कलकत्ता चले गए। उन्ही दिनों बिहार राज्य के शिक्षाधिकारी श्री भूदेव मुखोपाध्याय के अनुरोध पर आपने बिहार के स्कूलों के लिए हिंदी की कुछ पाठ्य पुस्तके भी लिखी थी। आप ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के तत्कालीन संपादक-प्रवर्तक श्री शिशिर कुमार घोष को अपना राजनीतिक गुरू मानते थे।
एक उच्चकोटि के पत्रकार होने के अतिरिक्त आप सफल लेखक भी थे। आपके द्वारा लिखित पुस्तकों में ‘सरस्वती’, ‘चारू पाठ’ (तीन भाग), कश्मीर कीर्ति, लक्ष्मीबाई का जीवन’, ‘विद्या मुकुल,’ ‘लक्ष्मी’, ‘शिक्षा-दर्शन’, ‘हिंदी-बोध’ (तीन भाग) ‘आदर्श चरित्र’ ‘संक्षिप्त महाभारत’ ‘नीति-कुसुम’ ‘शिवाजी का जीवन-चरित’, ‘प्रभास-मिलन’, ‘भारत धर्म, और ‘सर्प दंश- चिकित्सा’ आदि विशेष उल्लेख योग्य है। आप उच्चकोटि के लेखक होने के साथ-साथ अच्छे वक्ता भी थे। आप अपने भाषणों में ठेठ हिंदी शब्दों का प्रयोग किया करते थे। स्वभाव से हंसमुख होने के कारण आप कभी-कभी अपने समसामयिक लेखको पर भी व्यंग्य करने में नहीं चूकते थे।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी रूप बनाने में आपको अद्भुत कौशल प्राप्त था। ‘प्रास्पैक्टस’ शब्द का रूप आपने ‘प्रतिष्ठा पत्र’ रखा था। विदेशी रीति-नीति के आप सर्वथा विरूद्ध रहा करते थे। देश की तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थिति की आपके दरबार में खुलकर चर्चा हुआ करती थी आद्यैर कलकत्ता के प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकार वहां आकर जमा होते थे। वास्तव में अतीतकाल में कलकत्ता में हिंदी पत्रकारिता का जो विकास हुआ था, उसकी नींव में श्री मिश्र जी का बहुत बड़ा योगदान था। आपके द्वारा संपादित पत्रों में लिखने वाले महारथियों में भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है।
कलकत्ता की हिंदी-पत्रकारिता के अनुभवों का जो विवरण उन्होंने 26 मई, 1894 के ‘उचित वक्ता’ में दिया था, उससे उनकी हिंदी निष्ठा का सम्यक् परिचय मिलता है। उन्होंने लिखा था-‘‘ उचित वक्ता’ मेरी अनुपस्थिति के कारण बंद हो गया। यद्यपि मित्र लोग इसके पुनः प्रकाशन के लिए अनुरोध करते रहे, परंतु मेरी इच्छा शिथिल ही हो गई थी। जिस समय मैंने ‘भारत मित्र’ को जन्म दिया था, जिस समय ‘सार सुधानिधि’ का अनुष्ठान पत्र प्रचार किया था और जन्म देने का उद्योग किया था तथा अंशीदार बनकर रूपये घाटे दिये थे, उस समय कलकत्ता में हिंदी की बड़ी ही आवश्यकता थी।’’
आपका निधन सन् 1910 ईस्वी में हुआ था।
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