अपने ही घर में ठिकाना ढूंढते हैं
बीता हुआ वह जमाना ढूंढते हैं
वक्त ने भी क्या से क्या बना दिया
अपना ही बुत वह पुराना ढूंढते हैंं
उठा कर रख दिया था जाने कहां
उनका दिया हुआ नज़राना ढूंढते हैंं
समझ नहीं सके उनके इशारे हम
अब बात करने का बहाना ढूंढते हैंं
परिंदे बात करते थे मुंडेर पर कभी
अब उनका वह चहचहाना ढूंढते हैंं
पयास है कि बुझती ही नही कभी
शामे उम्र मेंं भी तो पैमाना ढूंढते हैंं
जिंदगी की किताब के हर पन्ने पर
क्या लिखा है अफसाना ढूंढते हैंं
होंठ और जुबान पर तो ताले लगे हैं
खुल कर हंसने का बहाना ढूंढते हैंं
डॉ सत्येन्द्र गुप्ता नजीबाबाद जिला बिजनौर
वाह, सुंदर ग़ज़ल
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