पत्रकारिता के क्षेत्र में श्री बालकृष्ण भट्ट का स्थान सर्वथा अप्रतिम एवं अनन्य इसलिए भी है कि इनके शिष्यों में महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय तथा राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन ने अपने कर्ममय जीवन का प्रारम्भ पत्रकार के रूप में ही किया था। आपका जन्म 3 जून, सन् 1844 को प्रयाग में हुआ था। आपकी शिक्षा पहले-पहल घर पर संस्कृत में हुई थी और बाद में आपने ‘मिशन स्कूल’ से एण्ट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। यह परीक्षा देने के उपरान्त ही आप वहां पर अध्यापक हो गये थे, किंतु ईसाई-वातावरण के उस स्कूल में आपकी पट नही सकी और शीघ्र ही त्यागपत्र देकर अलग गए थे। इसके उपरान्त भट्ट जी ने अपना स्वाध्याय घर पर ही जारी रखा। यद्यपि उनके पिता भट्ट जी को व्यापार में लगाना चाहते थे, किंतु आपका रूझान पढ़नंे-लिखने की ओर था। सन् 1868 ई0 के लगभग आपने वहां के सी0ए0 बी0 स्कूल में शिक्षण का कार्य प्रारम्भ किया और थोड़े दिन बाद कायस्थ पाठशाला इण्टर काॅलेज में संस्कृत-शिक्षक हो गए। जिन दिनों आप इस विद्यालय में पढ़ाते थे, तब अंग्रेजी के प्रख्यात पत्रकार तथा कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी मासिक ‘माडर्न रिव्यू’ के संपादक बाबू रामानन्द चट्टोपाध्याय वहाँ पर प्रिंसिपल थे। उनकी तथा भट्ट जी की बहुत पटा करती थी और उन्हें वे अपना छोटा भाई मानते थे। इस विद्यालय में शिक्षक का कार्य करते हुए ही आपने भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की प्रेरणा से सितम्बर सन् 1877 ई0 में ‘‘ हिंदी वर्धिनी सभा’ की स्थापना करके उसके सदस्यों के सहयोग से ‘हिंदी प्रदीप’ नामक मासिक पत्र निकालना प्रारम्भ किया था और इस पत्र के प्रथम अंक का विमोचन भी भारतेन्दु जी ने ही किया था। ‘हिंदी प्रदीप’ पर उन दिनों यह पद्य छपा करता था।
सुभ सरस देस सनेह-पूरित प्रगट है आनंद भरै।
बच दुसह दुर्जन वायु सों मनि-दीप समथिर नहीं टरै।।
सूझै विवेक विचार उन्नति कुमति सब या मैं जरै।
‘हिंदी प्रदीप’ प्रकासि मूरखतादि भारत तम हरै।।
किंतु ‘मूंड मुँडाते ही ओले पड़े’। ‘प्रदीप’ में छपने वाले कई लेखों से ब्रिटिश नौकरशाही के चाकर नाराज हो गये और स्थानीय मजिस्ट्रेट ने भट्ट जी को अनेक बार बुलाकर चेतावनी भी दी। भट्ट जी को उन दिनों कितने संदेह की दृष्टि से देखा जाता था, इसका प्रमाण इसी बात से मिल जाता है कि एक बार आपके एक मित्र श्री मुंशी कामताप्रसाद ने आपसे यह कहा-‘‘ देखो पंडित जी, आप मेरे यहाँ न आया करिये। आपके आने से मैं सरकार में बदनाम हो जाऊँगा।’’ कैसा विपरीत वातावरण उन दिनों था, इसका अनुमान आप इसी घटना से लगा सकते है। एक बार रामलीला और मुहर्रम के एक साथ पड़ने पर जब प्रयाग में कुछ उपद्रव का वातावरण बन गया तो भट्ट जी ने ‘न नीचो यवनात्परः’ शीर्षक एक लेख ‘हिंदी प्रदीप’ में छाप दिया। मुसलमानों ने उन पर अभियोग कर दिया। फलतः कई महीने तक आप उसमें उलझे रहे और राजनीतिक लेख ‘प्रदीप’ में बराबर लिखते रहे। आपके उग्र लेखों के परिणामस्वरूप कोई-कोई न झंझट उन दिनों खड़ा ही रहता था। अन्त में आपने विवश होकर ‘हिंदी प्रदीप’ को राजनीति-प्रधान पत्र से बदलकर पूर्णतः ‘साहित्यिक’ बना दिया।
‘हिंदी प्रदीप’ के संचालन में भट्ट जी को भयंकर अर्थ-संकट से गुजरना पड़ा था और उसमें आपने अपने परिवार को ही अर्थ संकट में डाल दिया था। इतना होने पर भी आपने उसे निरन्तर 33 वर्ष तक बड़े धड़ल्ले से प्रकाशित किया था। वे लेखको से रचनाएँ मंगाने के लिए भी प्रायः गद्य की जगह पद्य का प्रयोग किया करते थे। एक बार उन्होंने कविवर श्रीधर पाठक से अपनी भावना इस प्रकार व्यक्त की थी।
पुस्तक पढ़वन कान्त पित बहुत धनबाद तीहि
विमती यहि आज, नव रचना मिन्नत एही।
हिव हुल सह अवगाहि पत्र आकु यहि सरवराहि,
को अवसर जग मांहि कबि रचना तिहि ना रूचि।।
इस बीच ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना हो गई और उसका प्रथम अधिवेशन महामना पंडित मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में धूमधाम से संपन्न हुआ। जब सन् 1812 ई0 के ‘हिंदी प्रेस एक्ट’ के अनुसार भट्ट जी उसे बंद कर दिया। अर्थ-संकट के कारण,‘कायस्थ पाठशाला’ की अच्छी खासी नौकरी भी छोड़कर आप कालाकाँकर राज्य से प्रकाशित होने वाले ‘सम्राट’ नामक साप्ताहिक पत्र का संपादन करने के लिए वहाँ चले गये।
उनके संपादन में इस पत्र का प्रथम अंक 30 मार्च सन् 1908 को निकला था आप अभी कठिनाई से 3-4 मास ही वहां रहने पाए थे कि बाबू श्यामासुन्दरदास के अनुरोध पर ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की ओर से तैयार होने वाले ‘कोश’ में कार्य करने के लिए आप कश्मीर चले गये। अतः उन्होंने आपसे यह कार्य संभालने का अनुरोध किया था। 68 वर्ष की आयु में भयंकर अर्थ-संकट के कारण आपको वहां जाना पड़ा था। जम्मू से काठ की सीढ़ी चढ़ते हुए आँखों के धोखा दे जाने पर आप फिसल गये और कूल्हे की हड्डी टूट गई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनकी उन दिनों बड़ी सेवा की थी। इसी अवस्था में आपको जम्मू से प्रयाग पहुंचाया गया और किसी प्रकार 6-7 मास बाद ठीक हो पाए थे। फिर ठीक होकर लगभग डेढ वर्ष तक आपने काशी में रहकर भी कोश का कार्य किया था।
भट्ट जी जहाँ उच्चकोटि के पत्रकार थे, वहाँ साहित्य-रचना में भी आपकी अभूतपूर्व गति थी। आपकी ‘कलराज की सभा’ ‘रेल का विकट खेल’, ‘बाल विवाह नाटक’, ‘जैसा काम वैसा परिणाम’, ‘आचार-विडम्बना’, भाग्य की परख’, षड्दर्शन संग्रह’ आदि के अतिरिक्त ‘पद्मावती’, ‘शर्मिष्ठा’, ‘चंद्रसेन’ किरातार्जुनीय, पृथुचरित या वेणी ‘संहार’, ‘शिशुपाल वध’, ‘नल दमयन्ती या दमयन्ती स्वयंवर’, ‘शिक्षा दान’ ‘नई रोशनी का विष’, ‘बृहन्नला’, सीता वनवास’, ‘पतित पंचम’, ‘नूतन ब्रहमचारी’ तथा ‘सौ अजान एक सुजान’ आदि कृतियां उल्लेखनीय है।
इनके अतिरिक्त आपने ‘गुप्त बैरी’, रसातल, ‘दक्षिणा’ और ‘हमारी घड़ी’, नामक उपन्यास भी लिखने प्रारम्भ किये थे, किंतु वे पूरे नहीं हो सके थे। इस प्रकार हम देखते है कि भट्ट जी जहां उच्चकोटि के पत्रकार थे, वहां सफल नाटककार तथा उपन्यासकार भी थे।
उत्कृष्ट निबन्ध-लेखकर के रूप में भी आपकी गणना की जाती है। आपके निबन्धों का संकलन ‘भट्ट निबन्धावली’ नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की ओर से कई भागों में प्रकाशित हुआ है। इनमें भट्ट जी के सभी साहित्यिक, सामाजिक और राजनीति का अद्भुत उभार दृष्टिगत होता है। सरल और मुहावरेदार भाषा लिखने में भट्ट जी को जैसी दक्षता प्राप्त थी, कदाचित् वैसी उस युग के किसी लेखक को नहीं थी। आपके निबन्धों में ‘पुरूष अहेरी की स्त्रियां अहेर है,’ ईश्वर की भी क्या ठठोल है’ ‘नाक निगोड़ी भी बुरी बला है’ ‘अकिल अंजीरन रोड़ा’, ‘‘झकुआ कौन-कौन है’, ‘हम डार-डार तुम पात-पात’, पंचों की सोहबत, ‘अंत को सखी और सुम भौसरी भाई’, ‘अब तो बासी भात में खुदा को साझा होने लगा’, कौआयरी और आशिक तन’, इंग्लिश पढ़े सो बाबू होय’ तथा ‘पंचों के सरपंच सितारे’ आदि उल्लेखनीय है। हिंदी-आलोचना के प्रारम्भिक पुरस्कर्ताओं में भी भट्ट जी का नाम लिया जाता है। सर्वप्रथम ‘हिंदी प्रदीप’ में ही हिंदी पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित होनी प्रारम्भ हुई थी। उन समीक्षाओं से आपकी सजग और सतर्क आलोचना-दृष्टि का परिचय मिलता है। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 33 वर्ष तक निरन्तर प्रकाशित होकर भी ‘हिंदी प्रदीप’ अप्रैल सन् 1909 ई0 के प्रकाशन के उपरान्त बंद हो गया।
पत्रकारिता की दृष्टि से ‘हिंदी प्रदीप’ का जन्म हिंदी साहित्य के इतिहास में एक क्रान्तिकारी घटना माना जाता है। अपनी निर्भीकता और स्पष्ट तीखी शैली के कारण वह ब्रिटिश नौकरशाही की दृष्टि में कांटे की तरह खटकने लगा था। एक बार अप्रैल 1908 में जब श्री माधव शुक्ल की ‘बम क्या है’ शीर्षक कविता छपी थी, तब सरकार ने इसके प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस प्रतिबंध के संबंध में भी भट्ट जी अपने जो विचार प्रकट किये थे वे इस प्रकार है-‘‘ अखबार वालों को बड़ी हानि की बात इसमें यह है कि जब इस एक्ट के विरूद्ध कोई बात छपेगी तो जिले का मजिस्ट्रेट उस अखबार के पब्लिशर या प्रिंटर को लोकल गवर्नमेण्ट की आज्ञा लेकर तलब करेगा और धमकी के सिवाय उससे एक मुचलका लिखवा लेगा कि फिर ऐसी बात इसमें न छपे। वाह! क्या न्याय है, जो मजिस्ट्रेट प्रिंटर के लेख को बुरा समझे वहीं मुन्सिफ बने और उनसे मुचलका भी लिखवा ले। भला ऐसा कभी सुनने में आया है, कि जो किसी को दोष लगाये, वही उसका न्याय भी करे।’’
आपका निधन 20 जुलाई सन् 1914 ई0 को हुआ था।
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