ऋषभदेव शर्मा - क्या लिखूँ, क्या छोड़ूँ

 



जब लिखने बैठता हूँ तो बेचैन हो उठता हूँ। मेरे सामने जितने चित्र उभरते हैं उससे कहीं अधिक विचार दिलोदिमाग में कुलांचे मारने लगते हैं। साहित्यकार को समाज का मार्गदृष्टा समझा जाता है मगर बहुत सारे साहित्यकारों की जीवनशैली और उनकी दुष्चरित्रता को देखकर मानों साहित्यकारों से घृणा ही होने लगी थी। अध्यापक भगवान होता है मगर बहुत सारे अध्यापकों का दोगला चरित्र देखकर कोफ्त होने लगी थी। मानता हूँ कि यदि कोई अच्छा इंसान नहीं हो सकता तो वह अच्छा साहित्यकार अथवा अध्यापक भी नहीं हो सकता। शब्दों का जाल बुनना और फिर किसी मछुआरे की तरह शिकार पर निकल जाना अलग बात होती है जबकि साहित्य की रचना करना और उस साहित्य को जीना अलग बात होती है। यही अध्यापक के लिए कही जा सकती है। सिर्फ वेतन के लिए अध्यापक होना अलग बात है जबकि उसका अध्यापक सा व्यवहार होना अलग बात है। कुल मिलाकर आदमी जिस पेशे में है वैसा उसको होना भी चाहिए अथवा यह भी कहा जा सकता है जिस व्यक्ति में जो जन्मजात संस्कार होते हैं उसे आप किसी भी प्रतिष्ठित पद पर बैठा दीजिए वह पदानुरूप कार्य न करके अपने ही अनुरूप कार्य करेगा किंतु शर्मा जी अब तक की आयु में अकेले ऐसे व्यक्ति देखे हैं जो अध्यापकी और साहित्यिकी को ऐसे जीते हैं कि वह न अपने पिता होने को भूलते हैं और न ही पति होने को इन सबसे बड़ी बात यह कि वह सामाजिकता को ओढते-बिछाते हैं। मैंने उनमें जो देखा है उसे बयान करने के लिए शब्दकोष में शब्द नजर नहीं आ रहे और विचार मेरे काबू से बाहर हो रहे हैं। जरा ठहर जाइए, कुछ सुस्ता लूँ तो लिखूँ!

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद में पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष रहे डाॅ. ऋषभदेव शर्मा आज हिंदी जगत का जानामाना नाम है। इनका जन्म चार जुलाई 1957 को गंगापाड़ी (खतौली), जनपद मुजफ्रनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। मेरठ विश्वविद्यालय से 1983 में एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 1988 में मणिपुर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. (हिंदी), शोध विषय ‘‘उन्नीस सौ सत्तर के पश्चात् की हिंदी कविता का अनुशीलन (राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में विशेष)’’ की उपाधि प्राप्त की। 1983-1990 के मध्य जम्मू और कश्मीर राज्य में गुप्तचर अधिकारी (इंटेलीजेंस ब्यूरो, भारत सरकार) रहे परंतु हिंदी प्रेमी और हिंदी सेवी होने के कारण यह नौकरी छोड़ दी और सन् 1990-1997 में प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास केंद्र पर सेवा करते रहने के बाद 1997-2005 में रीडर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र पर, 2005-2006 प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, एरणाकुलम केंद्र पर और फिर 2006-2015 प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र पर सेवा करते हुए 4 जुलाई 2015 को आपने सेवामुक्ति पाई। स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी अध्यापन का 25 वर्ष की सुदीर्घ अनुभव और डीलिट, पीएचडी और एमफिल के 142 शोध-प्रबंधों का सफल शोध-निर्देशन कर आपने न सिर्फ अच्छा अनुभव ही प्राप्त किया है बल्कि शताधिक शोधपरक समीक्षाएँ एवं शोधपत्र प्रकाशित कराए हैं। यही नहीं बल्कि शताधिक पुस्तकों के लिए भूमिका-लेखन और अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों में संयोजक, अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, विषय प्रवर्तक, संसाधक (विशेषज्ञ) के रूप में नियमित भागीदारी भी की है। आपने अतिथि व्याख्यानमालाएं राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, अरुणांचल प्रदेश, भाषाा विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र आदि संस्थानों में प्रस्तुत की है। 

आपकी काव्यात्मक पहचान स्नातक करते करते बन गई थी। उस समय तो हिंदी साहित्य में एक नया अध्याय ही जुड़ गया था जब 11 जनवरी, 1981 को आक्रोश की कविता ‘तेवरी काव्य आंदोलन’ का प्रवर्तन मेरठ में हुआ और फिर उसके ठीक एक साल बाद 1982 में खतौली में इसका घोषणा-पत्र जारी किया गया। इस घटना ने तत्कालीन हिंदी जगत में तहलका मचा दिया था।

आपको 1. रूसी-भारतीय मैत्री संघ-दिशा (मास्को), हिंदी संस्थान-कुरुनेगल (श्रीलंका), साहित्यिक-सांस्कृतिक शोध संस्था (मुंबई) और सामाजिक संस्था-पहल (दिल्ली) द्वारा ‘अंततराष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान’ (2017), 2. राजमहेंद्रवरम (आंध्र प्रदेश) में षष्ठिपूर्ति समारोह (29 जनवरी, 2017), 3. काव्य क्षेत्र में योगदान के संदर्भ में प्रकाशित समीक्षा ग्रंथ: ‘ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म’, डाॅ. विजेंद्र प्रताप सिंह, 2015, परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद, 4. वेभूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट, हैदराबाद द्वारा ‘हिंदी साहित्य सम्मान’ (2015), 5. तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी, चेन्नई द्वारा ‘जीवनोपलब्धि सम्मान’ (2015), 6. प्रतिभा प्रकाशन, हैदराबाद द्वारा ‘सुगुणा स्मारक सम्मान’ (2015), 7. कमला गोइका फाउण्डेशन, बैंगलोर द्वारा ‘रमादेवी गोइन्का हिंदी साहित्य सम्मान’ (2013), 8. जनजागृति सेवा सद्भावना पुरस्कार, हैदराबाद (2011), 9. आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी द्वारा ‘हिंदी लेखक पुरस्कार’ (2010), 10. शिक्षा शिरोमणि पुरस्कार, हैदराबाद (2006), 11. रामेश्वर शुक्ल अंचल सम्मान, जबलपुर (2003) आदि प्रमुख अनेक सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

आपकी 18 प्रकाशित मौलिक पुस्तकें तथा 9 आलोचना ग्रंथ इस प्रकार हैं-तेवरी चर्चा, हिंदी कविता: आठवाँ नया दशक, साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श, कविता का समकाल, तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ, तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद: परंपरा और प्रदेय, हिंदी भाषा के बढ़ते कदम, कविता के पक्ष में, कथाकारों की दुनिया, तेवरी, तरकश, ताकि सनद रहे, देहरी (स्त्रीपक्षीय कविताएँ), प्रेमा इला सागिपोनी (‘प्रेम बना रहे’ का तेलुगु काव्यानुवाद 2013: अनुवदक-जी.परमेश्वर), प्रिये चारुशीले (‘प्रेम बना रहे’ का तेलुगु काव्यानुवाद: आनुवादक - भागवतुल हेमलता), संपादित पुस्तकें 24 - शोध एवं विमर्श, ‘अंधेरे में’: पुनर्पाठ, निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, अन्वेषी, वृद्धावस्था विमर्श, संकल्पना, उत्तरआधुनिकताः साहित्य और मीडिया, मेरी आवाज, तेलुगु कवि कालोजी की 100 कविताएँ), भाषा की भीतरी परतें, अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य, प्रेमचंद की भाषाई चेतना, हिंदी कृषक, काजाजी, अभिनंदन ग्रंथ), स्त्री सशक्तिकरण के विविध आयाम, पुष्पक-4, पुष्पक-3, अनुवाद: नई पीठिका, नए संदर्भ, अभिनंदन-जनकवि दुलीचंद ‘शषि’, हैं सरहदें बुला रही, कारगिल युद्ध के दौरान लिखी गई कविताएँ), भारतीय भाषा पत्रकारिता, अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य: स्मारिका, माता कुसुमकुमारी हिंदीतरभाषी हिंदी साधक सम्मान: अतीत एवं संभावनाएँ, शिखर-शिखर, डा. जवाहर सिंह अभिनंदन ग्रंथ), कच्ची मिट्टी-2, पदचिन्ह् बोलते है। आपने अनेक 18 पुस्तकाकार पाठ्यसामग्री और ई-पीजी पाठशाला के लिए ई-पाठ लेखन एवं रिकाॅर्डिंग: लोक साहित्य (एनए-हिंदी) मानव संसाधन विकास मंत्रालय की प्रायोजना के अंतर्गत निर्माण किया है। लगभग 8 पत्रिकाएँ संपादित कर चुके है और अकादमिक संस्थाओं से संबद्धता-पाठ्यक्रम निर्माण, पाठ सामग्री लेखन एवं संपादन भी कर चुके है। लगभग 142 शोध का निर्देशन कर चुके है। जिनमें 34 पीएचडी, 106 एमफिल और 2 डी.लिट., शामिल हैं।

यहाँ इस परिचय का औचित्य हो सकता है कि बहुतसे पाठकों को आवश्यक न लगे मगर ऋषभदेव को समझने के लिए इस परिचय की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि उन्हें समझने की। बहुत से लोगों ने ऋषभदेव शर्मा को समझने के लिए उन्हें पढा होगा मगर यह सच्चाई है कि किसी लेखक अथवा कवि को सुन-पढ कर समझना बहुत ही मुश्किल होता है। दोहरे चरित्र वाले साहित्यकारों अथवा अध्यापकों को समझना तो और भी मुश्किल हो जाता है। ऋषभदेव शर्मा को समझने के लिए अधिक मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है परंतु यह बात जानने के लिए मुझे बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी है। वह विद्वान हैं यह बात मैं उतने ही दावे से कह सकता हूँ जितने दावे के साथ यह बात कहूँ कि विद्वता महान लोगों में होती है। साहित्यकार होना अथवा अध्यापक होना महान होना नहीं होता मगर विद्वता का मतलब ही महान हो जाना है। 

शर्मा जी साहित्य रचते हैं इसलिए साहित्यकार हैं और शिक्षण कार्य उनकी आजीविका रही इसलिए अध्यापक हैं। इन दोनों कार्यों को करते हुए मैंने तमाम लोगों को देखा है। कुंजी से पढाते हुए और शब्दों का जाल बुनने वाले तमाम लोगों को मैं नजदीक से जानता हूं जो अंदर से बेहद चतुर और चालाक हैं। ऐसे लोगों को जानता हूं जो इतने चालाक हैं कि उन्हें सिर्फ अपनाआपा याद रहता है मगर दूसरों को देखकर खुश हो जाने वाले, अपना दूसरों को दे देने वाले और दूसरे लोगों के काम आने वाले लोग भी काफी मिल जाएंगे। लेकिन अपना बिस्तर ऐसे अतिथियों को देकर स्वयं जमीन पर सो जाने वाले विरले ही लोग होते हैं। अतिथि भी वह जिनसे उन्हें व्यक्तिगत कोई लाभ नहीं होने वाला है। वह अपना भोजन भी उन लोगों को खिला देते हैं जिनसे बदले में एक गिलास पानी की उम्मीद नहीं है। कोई उनके काम आ जाए तो बहुत बढिया और कोई उनके काम न आए तो भी चेहरे पर वही हंसी। अगर किसी बूढे में बालपन देखना है तो वह शर्मा जी को देख सकता है और यदि किसी को ऐसा व्यक्ति देखना है जिसमें कथा-कहानियों के गंभीर पात्र नजर आ जाएं तो भी शर्मा जी को देखा जा सकता है। सच कहूं तो यदि किसी को आशुतोष के दर्शन करने हैं तो वह शर्मा जी के दर्शन कर लें। भगवान आशुतोष को जो लोग जानते हैं वह यह भी जानते हैं कि उन्होंने कभी किसी को निराश नहीं किया। जिसने जो मांगा दे दिया बिना कोई परवाह के। शर्मा जी में भी यही आदत है। इसीलिए कहता हूं जो शर्मा जी को समझना चाहता है वह नैतिकता, इंसानियत अथवा सादगी को समझ ले, शर्मा जी अपने आप समझ में आ जाएंगे।

शर्मा जी पर लिखने के लिए बहुत है, समझ नहीं आ रहा है कि उन पर क्या लिखूँ, क्या छोड़ूँ?

-अमन कुमार त्यागी 


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