जब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू बालमुकुन्द गुप्त में ‘अनस्थिरता’ शब्द के प्रयोग को लेकर ऐतिहासिक वाद-विवाद चल रहा था और बाबू बालमुकुन्द गुप्त ‘भारत मित्र में ‘आत्माराम’ के कल्पित नाम से द्विवेदीजी पर तीखे प्रहार कर रहे थे, तब श्री गोविन्दनारायण मिश्र ने ‘हिंदी बंगवासी’ में आचार्य द्विवेदीजी के पक्ष में ‘आत्माराम’ की टें-टें शीर्षक लेखमाला लिखकर अपने गंभीर भाषा-ज्ञान का अभूतपूर्व परिचय दिया था। एक उत्कृष्ट पत्राचार होने के साथ-साथ आप कैसे तीखे समीक्षक थे, इसका परिचय आपकी इदस लेखमाला को देखने से मिल जाता है। इस विवाद में भाषा और व्याकरण चेतना जाग्रत होने के साथ-साथ उस युग की तेजस्वी पत्रकारिता का भी सम्यक् परिचय मिला था।
उस युग के पत्रकार औचित्य के कितने आग्रही थे और उन्हें भाषा-परिष्कार का कितना ध्यान रहता था, इसका भी परिचय हमें उसी में मिलता है। गुप्तजी की इस लेख माला का समर्थन जहां सर्वश्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी, माधवप्रसाद मिश्र और जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी जैसे दिग्गज साहित्यकार कर रहे थे, तब अकेले मिश्र जी ने ही द्विवेदी का पक्ष समर्थन करके अपने अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया था।
श्री मिश्रजी का जन्म कलकत्ता में सन् 1859 में हुआ था। आपके पिता पंडित गंगानारायण सुप्रसिद्ध बंगाली कृष्णदास पाल के सहपाठी थे। शिक्षा समाप्ति पर वे कलकत्ता में दलाली का कार्य करने लगे थे। गंगानारायण जी की रूचि संस्कृत के अध्ययन की ओर विशेष थी, अतः उन्होंने अपने सुपुत्र श्री गोविन्दनारायण को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए काशी से पंडिछत बुलवाये थे। उन्ही पंडितों से श्री मिश्रजी ने प्रारम्भ में ‘अमर कोश’,‘मुहूर्त चिन्तामणि’ ‘वेद’ और ‘अष्टाध्यायी’आदि ग्रन्थ पढ़े थे। आप केवल 15 वर्ष के ही थे कि आपका विवाह करा दिया गया। उन दिनों संस्कृत ‘किरातार्जुनीय’, ‘रघुवंश’ और ‘शकुन्तला’ आदि ग्रन्थों की पढ़ाई तीसरी कक्षा में ही हो जाती थी। आपने संस्कृत साहित्य के साथ-साथ प्राकृत व्याकरण का भी अच्छा अध्ययन किया था। आप अपनी छात्रावस्था में ही कविता करने लगे थे। जब आप दूसरी कक्षा में ही थे कि आपकी आंख खराब हो गई और डाॅक्टरों की सम्मति से आपने पढ़ाई छोड़ दी। काफी चिकित्सा कराने के उपरान्त एक आंख तो ठीक हो गई, किंतु दूसरी में अन्त तक विकार बना ही रहा। इसके उपरान्त घर पर अपने स्वाध्याय के बल पर ही आपने अपना अध्ययन आगे बढ़ाया।
जब सन् 1873 में कलकत्ता से आपके फुफेरे भाई श्री सदानन्द मिश्र ने ‘सार सुधानिधि’ नामक साप्ताहिक पत्र निकालना प्रारम्भ किया, तब आपने उसमें पूर्ण सहयोग दिया था, किंतु बाद में इसकी साझेदारी छोड़कर आपने संपादन में ही सहयोग करना प्रारम्भ किया था। कभी-कभी तो आप पूरे के पूरे अंक की ही सामग्री लिख डालते थे। ‘सार सुधानिधि’ से क्योकि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र विशेष स्नेह करते थे, इसलिए मिश्रजी की भी उनसे घनिष्टता हो गई और उनके संपर्क से तो आपके लेखन की प्रतिभा ने और भी गुल खिलाए। ‘सार सुधानिधि’ के अतिरिक्त आप ‘उचित वक्ता’ और ‘धर्म दिवाकर’ नामक पत्रों में भी प्रायः लेखादि लिखा करते थे। आपने सन् 1903 में ‘सारस्वत सर्वस्व’ नामक मासिक पत्र भी प्रकाशित किया था।
संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, अंग्रेजी और बंगला के अतिरिक्त आप पंजाबी और गुजराती भी जानते थे और मराठी पुस्तकों का भाव भी समझ लेते थे। जिन लोगों ने आपके द्वारा लिखित ‘विभक्ति-विचार’ और ‘प्राकृत विचार’ शीर्षक लेख पढ़े है, वे भी आपकी प्रतिभा तथा योग्यता से भली-भाॅति परिचित है। आपके द्वारा विरचित ग्रंथों में ‘शिक्षा-सोपान’, ‘सारस्वत-सर्वस्व’, ‘कवि और चित्रकार’ (अपूर्ण), ‘प्राकृत विचार’, ‘विभक्ति विचार’ तथा ‘आत्माराम की टें-टें’ (अपूर्ण) आदि उल्लेखनीय है। आपने अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की द्वितीय अधिवेशन की अध्यक्षता भी की थी जो सन् 1901 में प्रयाग में संपन्न हुआ था। आप ऐसा प्रौढ़ गद्य लिखते थे कि उसे पढ़कर बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ जैसा आनन्द अनुभव होता था। जिन लोगों ने आपके द्वारा सम्मेलन के सभापति के पद से दिया तािा आपकी ‘कवि और चित्रकार’ शीर्षक रचनाएँ पढ़ी है, वे हमारी इस कथन से शत-प्रतिशत सहमत होंगे।
हिंदी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय अधिवेशन प्रयाग में हुआ था। इस अवसर पर आपने अपने अध्यक्षीय भाषण के प्रारम्भ में की अभ्यर्चना जिन शब्दों में की थी, उससे आपके गम्भीर ज्ञान का परिचय मिलता है। आपने कहा था- ‘‘ इस परम पवित्र तीर्थराज प्रयाग की प्रसिद्धि, प्रधानता और पृथ्वीतल के सब तीर्थो की अधीश्वरता का भी प्रधान कारण, सरस्वती पिता, परिणामदर्शी विश्वविधाता, सुचतर शिरोमणि चतुर्मुख ब्रहमा का इस परम पुनीत सितासित संगम-स्थल पर ‘प्रकृष्ट याग’ करना ही लोक-प्रसिद्ध है। आज सौभाग्यवश उस ही सुप्रसिद्ध है। आज सौभाग्यवश उस ही सुप्रसिद्ध तीर्थराज में, विद्वज्जन साहित्य सम्मेलन मिस से इस अनूप जंगम रूप से तीर्थराज प्रयाग ने मानो प्रत्यक्ष सशरीर सजीव दर्शन दे नेत्रों को को कृतार्थ किया। साथ ही ‘मातृभाषा’ हिंदी सरस्वती की निश्छल सेवाच्र्चना और उन परम पूजनीय मातृ चरणों पर प्रेम-पुलकित प्रफुल्ल मन मनस्वी मर्मज्ञ विवुधों का सुगन्धित सुमनांजलि प्रदानपूर्वक एकाग्र वृत्ति से कायिक, वाचिक, मानसिक आराधन रूप ‘प्रकृष्ट’ सर्वोत्कृष्ट ‘याग’ के सदनुष्ठान से आज ‘प्रयाग’ नाम की अक्षरशः सार्थकता भी निर्विवाद प्रत्यक्ष देखने को आ रही है।’’
पत्र-पत्रिकाओं मं जब कुछ लोग विभक्ति मिलाकर लिखते और कुछ उन्हें अलग करके लिखते थे तब आपने ‘विभक्ति विचार’ नाम से जो आन्दोलन चलाया था वह भी अभूतपूर्व था। जब कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘हितवार्ता’ पत्र में मिश्रजी की यह लेखमाला छपा करती थी तो समस्त हिंदी जगत में कुहराम मच जाता था। मिश्र जी विभक्ति को मिलाकर लिखने के पक्षपाती थे। जिन दिनों आपने यह लेखमाला लिखी थी, उन दिनों पंडित अम्बिकादत्त व्यास, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, लाला भगवानदीन तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि ने भी यही आपत्ति उठाई थी। इस विवाद में पं0 जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, पं0 गंगाप्रसाद अग्निहोत्री और अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी आदि ने भी भाग लिया था। जब श्री सखाराम गणेश देउस्कर ने भी ‘विभक्ति-प्रलय’ शीर्षक एक पत्र प्रकाशित करके विभक्ति-संबंधी इस नई प्रवृत्ति का ‘कारण या इतिहास’ जानने की उत्कंठा व्यक्त की तो उसकी ओर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। मिश्रजी की दृष्टि में खड़ी बोली में ‘विभक्ति-प्रत्यय के अपद होने के कारण शब्द के साथ ही विभक्ति का प्रयोग शुद्ध था।
इसी प्रकार जब बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने अपने ‘भारत मित्र’ पत्र में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘सरस्वती’ में प्रकाशित ‘भाषा की अनस्थिरता’ शीर्षक लेख के ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर ‘आत्माराम’ के नाम से एक लम्बी लेखमाला उनके विरोध में लिखी तो मिश्रजी भी कैसे चुप रहते? द्विवेदी जी पर मिश्रजी की बहुत श्रद्धा थी। फलस्वरूप आपने ‘हिंदी बंगवासी’ में ‘आत्माराम की टें-टें’ शीर्षक लेखमाला में गुप्त जी की खूब खबर ली। इसका समर्थन करते हुए मिश्रजी ने लिखा था- ‘‘संस्कृत व्याकरण के नियमों से हिंदी व्याकरण की बहुत से विषयों से विशेषता है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार जिन-जिन शब्दों के आदि में स्वर वर्ण रहते है, उनके आगे प्रयुक्त होने वाले निषेधवाचक ‘न’ का भी ‘अन’ हो जाता है। इससे हिंदी में ‘अनरीति’, ‘अनमिल’, अनपढ़ तथा ‘अनसुनी’ आदि अनेक शब्द सर्वथा विशुद्ध माने जाते है। ऐसी अवस्था में द्विवेदी जी ने यदि ‘अनस्थिरता’ शब्द लिख ही दिया तो क्या अनर्थ किया?’’
इन तर्क-वितर्को के बाद अन्त में ‘आत्माराम’ शान्त हो गए और मिश्रजी के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापित करते हुए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने एक पत्र में लिखा था- ‘‘गोविन्दः शरणं मम।’’ इस घटना के उपरान्त भाषा और व्याकरण -संबंधी विवादों में मिश्रजी के मत को महत्व दिया जाने लगा।
आपका निधन 23 अगस्त सन् 1923 ईस्वी को 64 वर्ष की आयु में हुआ था।
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